गुरुवार, 6 मई 2021

सेवाशक्ति के आधार हैं हमारे दो चरण : पद्भ्यां शूद्रोSअजायत



पद्भ्यां शूद्रोSअजायत    
वैदिक परिभाषाएं सामान्य परिभाषाएं जैसी नहीं होती हैं।इन्हें समझने के लिए अतिरिक्त श्रम की आवश्यकता पड़ती है।द्विपद और चतुष्पद शब्द मनुष्य और पशु का संज्ञान कराते हैं।पद और पाद अंगवाची पैर के लिए प्रयुक्त होते हैं।मनुष्य को द्विपद इसलिए कहते हैं कि उसके दो पैर हैं।द्विपद में सभी तरह के मनुष्यों का अंतर्भाव है।पाद अर्थात् पैर की महत्ता अन्य शरीर के अंगों से कभी भी  कमतर नहीं आँकी जा सकती है।
पैरों की अपनी अनौखी विशेषता के कारण वैदिक परम्परा में चरणवंदना का बहुत महत्व है।शक्ति के केंद्र चरण होते हैं।रामायण युग से लेकर अद्यतन अंगद का पैर इसी शक्ति के भाव को प्रकट करता है।पैर यदि लड़खड़ाने लग जाएं तो फिर सर,हाथ आदि अंग भी शून्यता की तरफ बढ़ने लगते हैं।शरीर के संवाहक हैं हमारे दो चरण।इस संवाहकता के कारण गुरुपाद, पितृपाद, आचार्यपाद, चरणकमल, चरणारविन्द आदि पद सम्मानित माने जाते हैं।वैदिक साहित्य में अभिवादन के समय चरणस्पर्श की महत्ता बहुत अधिक है।कभी भी कोई चरणस्पर्श की जगह शिरस्पर्श नहीं करते हैं।सामाजिक व्यवहार में पाद  शब्द चतुर्थांश को भी व्यक्त करता है।
मानवसंस्कृति के एक चौथाई का प्रतिनिधित्व करते हैं  सेवाशक्ति से सम्पन्न ये चरण।शूद्र सेवाशक्ति से संपन्न है।शूद्र सेवा से अपनी जीविका चलाते हैं।चार शक्तियां हैं - एक ज्ञान की,दूसरी बल की,तीसरी संग्रह की और चौथी सेवा की।सेवा की महत्ता किसी से छुपी नहीं है-सेवाधर्म: परमगहनः।मनु ने सेवा की ओर संकेत किया है-वर्णानां शुश्रूषामनसूययायाज्ञवल्क्यस्मृति के अनुसार- शिल्पैर्वा विविधैः जीवेत् द्विजातिहितमाचरन्।शिल्पविद्या भी शूद्रों की शक्ति मानी जाती थी।
जब भी हम शुद्र को अधम मानेंगे तभी हम  मानवीयगरिमा से रहित हो जाएंगे और समाज की दुर्गति के भी कारण बनेंगे।जो यह मानते हैं कि शूद्र व्यक्तित्वविकास व अध्ययन की तरफ गतिमान नहीं होते हैं, उन्हें कुछ भी नहीं सिखाया जा सकता है।वे टस से मस नहीं होते हैं जड़ता दिखाने में।वे मूढ़ हैं, वे शूद्र कहलाते हैं।वास्तव में यह सोच बिल्कुल गलत है।जो भी शूद्र को मूर्ख और मूढ़ मानता है,वास्तव में वह मानवीय-गरिमापूर्ण व्यवहार से स्वयं को वंचित कर रहा होता है।शूद्र को मूर्ख कहना बिल्कुल गलत है,अशास्त्रीय और अमर्यादित भी।यजुर्वेद का ऋषि स्वयं इसमें प्रमाण है- यथेमां वाचं कल्याणीमावदानिजनेभ्यः। ब्राह्मणराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय।।
वेद का ज्ञान (शिक्षा)बिना किसी भेदभाव के सम्पूर्ण मानव जाति के लिए है।ऋषि शूद्र को साक्षात संबोधित कर रहा है। ज्ञान से इन्हें वंचित रखना और दुराग्रह से इन्हें मूढ़ या मूर्ख मानना मानवता पर कुत्सित प्रहार है।सत्य तो यह है कि मूर्खता तो किसी भी वर्ण के व्यक्ति में देखी जा सकती है।किंवदंती है कि एकबार एक माँ  जब अपने पुत्र को खाने के लिए थाली में गर्म खीर परोसती है तो उसका पुत्र खीर खाने के लिए जल्दी से थाली के बीच में जैसे ही अपना हाथ डालता है तो उसका हाथ जल जाता है।पास बैठी मां ने जब उसका हाथ जलता देखा तो उससे सहा नहीं गया और उसने अपने बेटे से कहा- बेटा! तू तो चाणक्य जैसी मूर्खता कर रहा है।चाणक्य भी तेरे जैसे ही जल्दी-जल्दी के चक्कर में अपने शत्रुओं के बीच में ही हमला कर रहा है। उसे किनारे से हमला शुरू करना चाहिए,वहां शत्रु निष्क्रिय होता है। बेटा! तू पहले किनारे से खाना शुरू कर।वहां  बीच की अपेक्षा  खीर जल्दी ठंडी हो जाती है।ऐसा करने से फिर न तो तेरा हाथ ही जलेगा और नहीं मुख।कहते हैं कि मां-बेटे के इस संवाद को सुनकर ही चाणक्य को योजनाबद्ध तरीकों से शत्रु को पराजित करने के लिए सफल रणनीति बनाने का ब्लूप्रिंट (रहस्य)मिला था।
सेवाशक्ति और मानवता के आधार स्तम्भ हैं शूद्र।शूद्र को वैदिक संस्कृति में निम्न नहीं समझा जाता है।मृच्छकटिकम् में तो राजा का नाम ही शूद्रक था।समाज में व्यवस्था चाहे कर्म आधारित वर्णविभाजन की हो या फिर जाति  आधारित कर्म की।जब भी कोई शब्द सामाजिक तानेबाने को ध्वस्त कर अस्पृश्यता बढ़ावा देता है तो समाज उससे स्वतः दूरी बनाने लगता है।
आज के समय में शूद्र शब्द बहुत ही गर्हित अर्थ में माना जाने लगा है।आज 
शायद ही कोई व्यक्ति स्वयं को शूद्र कहलाना पसंद करे।आधुनिक समाजवैज्ञानिकों ने तभी तो वर्तमान संदर्भ के मद्देनजर दलित शब्द को गढ़ा है। यद्यपि दलित शब्द से शोषित व  वंचितवर्ग का अवगाहन होता है।इस वर्ग के हुए शोषण को कदापि विस्मृत नहीं किया जा सकता है।लेकिन शोषण और वंचितसमुदायों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ग न स्वीकारना भी अनुचित है।
वस्तुतः वैदिकपरम्परा में पुष्पदल और तुलसीदल बहुत ही सम्मानित प्रयोग है। जो दल पुष्पों से बिछुड़ गया हो ,टूट गया हो।ठीक, इसी तरह से जिस समूह को सामाजिक समरसता से वंचित कर दिया गया हो,उसे ही आधुनिककाल में दलितरूप में परिभाषित किया गया है।दलितविमर्श के साथ ही स्वयं को आभिजात्यवर्ग से सम्मानित मनाने वाले लेखकों और विचारकों के लिए निम्नप्रदत्त अवधारणा अवश्य विवेचनीय है-नाविशेषोSस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्।ब्रह्मणा पूर्वसृष्टा हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ।।
ईश्वर ने सभी मनुष्यों को ब्राह्मण के समान ही उत्पन्न किया है।लेकिन अपने भिन्न-भिन्न कर्मो ने ही वे विभिन्न वर्णों में विभाजित हुए हैं।साहस कर्म वाले लोग ब्राह्मणवर्ण से क्षत्रिय,व्यापार के प्रति झुकाव वाले ब्राह्मणवर्ण से वैश्य तथा सेवा में रुचि रखने लोग ब्राह्मणवर्ण से ही शूद्र  बने हैं।शायद इसीलिए अत्रि स्मृति में कहा गया है- जन्मन: जायते विप्र: संस्काराद्द्विज उच्यते।
                                                                                                                         -डॉ. कमलाकान्त बहुगुणा



14 टिप्‍पणियां:

  1. अद्भुत रहस्योद्घाटन आचार्य जी

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  2. बहुत सुन्दर तार्किक व्याख्या

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    1. चार शक्तियां हैं - एक ज्ञान की,दूसरी बल की,तीसरी संग्रह की और चौथी सेवा की।

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  3. बहुत ही प्रासंगिक व्याख्या

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  4. बहुत ही अच्छे तरीक़े व्याख्या की गई है। आज के समय में जो लोगों कि एक धारणा बनी हुई, उसे इसी तरह तोड़ा जा सकता है। डॉक्टर साहब को बहुत बहुत बधाई!!
    सादर
    अवनींद्र

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  5. आभार आदरणीय ।आप जैसे सुधीजन हमारे संबल में अन्यतम हेतु हैं।

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  6. वाह! वैदिक गूढ़ रहस्यों की बुहुत ही सुन्दर व वैज्ञानिक प्रस्तुति करण है | धन्यवाद साहब जी |
    🙏

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    1. श्रीअभयेन्द्र तिवारी जी आप सेना में धर्मगुरु हैं।आपकी टिप्पणी हमारी मार्गदर्शिका है।

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    2. आदरणीय तिवारी जी आभार

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