हम अपने व्यवहार और नजरिए को बदलने के लिए अथक परिश्रम करते हैं।बहुत परिश्रम
के बाद भी हम उस अनुभूति के करीब भी नहीं पहुंच पाते हैं,जहां हम स्वयं से परिचित हो सकें।आदतन इस तरह के बड़े परिवर्तन की तरफ हम कम
ही आकर्षित हो पाते हैं,जो हमें हमारी
प्रकृति से मिला सके।स्वयं से मिलना छोटा उद्देश्य कदापि नहीं हो सकता है।स्वयं के
अस्तित्व को जानना बड़े उद्देश्यों में से एक नहीं बल्कि अकेला ही है।इस बृहद
उद्देश्य को पाने के लिए हमें अपने मूलभूत
पैराडाइम में परिवर्तन के साथ श्रम और तप की बहुत अधिक आवश्यकता पड़ती है।हमें
पत्तों और टहनियों की अपेक्षा जड़ों पर ज्यादा फोकस करना करना होता है।इस बृहद
परिवर्तन के लिए हमें स्वयं भी अलग तरह से बनने हेतु संकल्पित होना होगा।
अस्तित्वबोध के लिए हमारे चरित्र में विनम्रता और वात्सल्यता बहुत आवश्यक
है।अहंकार और अवसाद से ऊपर उठकर हमें अपनी आत्मिक अग्नि को उद्बुद्ध करना होगा।इस
अग्नि में ताप भी है और प्रकाश भी।इस तरह से बनने के लिए हमें पूरी शिद्दत
चाहिए।हम जो बने हुए हैं,वही हम देखते
हैं।हम क्या देख पाते हैं?यह हमारे बनने
पर निर्भर करता है।यह कभी नहीं हो सकता है कि हम देखने में तो बदल जाएं,लेकिन बनने के लिए हमें बदलना स्वीकार ही न हो।
प्रकृति के सुनहरे नियम संरक्षण और संवर्धन के साथ ही हमें स्वयं से परिचित
होने का भी समुचित अवसर देते हैं।इन नियमों को आत्मसात करें ,अन्यथा इनका अभाव विघटन और विनाश को भी आमंत्रित करते सकता
है।चेतना की अधिकतम गहराई संरक्षण और संवर्धन की आधारभूमि है।यदि हमारे द्वारा इस
भूमि को उर्वरा नहीं किया गया तो फिर हमें विघटित और विनष्ट होने से कोई नहीं बचा
सकता है।चेतना की गहराई में उतरने पर ही हमें मालूम होता है कि ये सभी प्राकृतिक
नियम प्रत्येक मानव की अंतरात्मा में विद्यमान हैं।भले ही उनमें कोई इन नियमों के
प्रति निष्ठावान हो या न हो। लेकिन ये प्रकृति के सुनहरे नियम हम सबके अंतर्मन
होते जरूर हैं।चाहे वे थोड़े धूमिल ही क्यों न हों।आस्थाहीनता से ये नियम दफन भी हो
जाते हैं।
मानव गरिमा प्रकृति के नियमों में सर्वोपरि है।मानवीय गरिमा को सभी धर्म,सभी देशों के संविधान तथा सभी संस्कृतियाँ सम्मान देती
हैं।संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के पीछे मानवीय गरिमा की यही उच्च
भावना छिपी है।मानवीय गरिमा का अर्थ है कि मानवमात्र की गरिमा का ख्याल रखना।समाज
के अंतिम पायदान पर खड़ा इंसान भी प्रथम पायदान पर खड़े इंसान जैसा ही गरिमामयी
है। कर्म के आधार पर उच्चता और निम्नता का आकलन मानवता पर बहुत बड़ा कलंक
है।प्रधानमंत्री नरेंद्रमोदी द्वारा सफाई कर्मचारियों के पादप्रक्षालन भी इसी भाव
के जागृति हेतु यह महान संदेश है।
ईमानदारी
और अखंडता ये दोनों भी मानव विश्वास की गहरी नींव है।कोई भी व्यक्ति,परिवार,समाज और
राष्ट्र इन्हें धारण किए बिना उन्नति नहीं
कर सकता है।निष्पक्षता स्वाभाविक होते हुए भी जब यह ओढ़ी या थोपी जाती है तो फिर यह
हमें अस्तित्व बोध की प्रकृति से भी बहुत दूर करती जाती है।हमें बालसुलभ
निष्पक्षता ही धारण करनी होगी।इन आवश्यक तत्वों के साथ ही सुरक्षा, मार्गदर्शन, बुद्धि, शक्ति, सेवा, योगदान, उत्कृष्टता, धैर्य, पोषण, ज्ञान,इच्छा, योग्यता तथा प्रोत्साहन आदि प्राकृतिक नियमों के प्रति भी संकल्पित होना होगा।
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