बुधवार, 19 मई 2021

बहुत अधिक गतिमान है समय का पहिया

 


समय उड़ता जा रहा है।समय का पहिया बहुत अधिक गतिमान है।समय पर किसी का वश नहीं चलता है।जब भी हम समय को पीछे से पकड़ने व रोकने का असफल प्रयास करते हैं तो हमें मात्र निराशा या बेचैनी मिलती है।समय को पकड़ने की बजाए हमें उसका चालक अथवा पायलट बनना होगा।हमें अपने विचारों को पंख देकर समय के साथ कदम मिलाने में तालमेल बैठाना होगा।हमारे विचार तय करते हैं कि हम क्या कर रहे हैं,क्या करेंगे और हमने क्या किया है। हमने क्या किया है यह तय करेगा कि लोग हमारे साथ कैसा व्यवहार करें।हमारा व्यवहार मूल्यांकन के लिए कितना प्रामाणिक है?क्योंकि व्यवहार प्रायः धारणा से बनता है।कई बार नाटकीय भी होता है।नाटकीयता और धारणा यथार्थ के जानने व समझने में पूर्ण समर्थ नहीं है।

विवेचना के दौरान बहुत बार हम अपनी अनुभूति की विशद व्याख्या कर रहे होते हैं।उसी बीच जब किसी का असहमति में स्वर उठता है तो हम स्वयं को सही से अवलोकन के लिए तैयार कर लेते हैं।पर इसकी कसौटी सेल्फ अवेयरनेस ही है।अलग-अलग राय रखने का अर्थ है कि हर व्यक्ति की अनुभूति का तल अलग-अलग है।तथ्य को जुटाने के लिए संवाद में शान्ति और सम्मान बहुत ही महत्वपूर्ण नींव है।हार और जीत के नजरिए में शान्ति और सम्मान की मर्यादा भंग हो जाती है।

बात उन्नीस सौ तिरानवे की होगी।गुरुकुल में अध्ययन के दौरान घटित प्रसंग है।गुरुकुल में एक बड़ी उम्र के छात्र थे।वे मुझसे उम्र में बड़े तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक भी थे।हम सब उन्हें भ्राता जी बोलते थे।बहुत ही सरल,सहज स्वाभाविक व्यवहार के धनी थे।मुझे तो उनका स्नेह सगे भाई से भी बढ़कर मिलता था।छात्रावास में स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण उन्होंने अपने रहने की व्यवस्था बाहर करनी पड़ी थी,और वे पढ़ने के लिए पाणिनि महाविद्यालय में आया करते थे।

एकदिन की बात है ।वे बहुत ही व्यथित और घबराए हुए लग रहे थे।उनके चेहरे को देखकर लग भी रहा था कि मानो जैसे वे किसी बड़ी परेशानी में हों।मुझसे उनकी वह अवस्था कुछ अटपटी-सी लग रही थी।यह सब देख मुझसे रहा नहीं गया और मैं पूछ बैठा भ्राताजी आप आज बहुत परेशान नजर आरहे हैं। सब कुशल तो है न।वे प्रायः सबको महाराजजी ही संबोधित करते थे।वे बोले- महाराजजी आज तो मैं मरते-मरते बच गया हूं।और फिर जो उनके साथ घटा उसे उन्होंने सिल-सिलेबार बताना शुरू कर दिया।मैं उनकी हर बात को बहुत ही गौर से सुन रहा था।

उन्होंने बताया कि आज जब मैं पढ़ने के लिए कमरे से पैदल-पैदल आरहा था तो रास्ते में मुझे फन फैलाए हुए काला सांप दिखा।आज तो उसने मुझे डस लिया होता।यह समझो कि मैं बाल-बाल बच गया हूं।मुझे तो आज अपनी साक्षात मौत नजर आरही थी।वह तो अच्छा हुआ सांप को देखते ही मैं सरपट दौड़ पड़ा।मेरी हिम्मत पीछे मुड़कर देखने की भी नहीं हुई।अगर मैं भागता नहीं तो आज वह सांप मुझे बिना काटे नहीं छोड़ता।

खैर, अब वे पहले से मुझे बेहतर दिखने लगे।फिर दूसरे दिन जब वे आए तो मैंने पूछा-भ्राता जी आज तो आपको सांप नहीं दिखा होगा रास्ते में।मेरे बोलते ही वे बड़े ही कातर भाव से बोले कि लगता है वह सांप मुझे डसकर ही मानेगा।आज भी मुझे सांप उसी जगह पर दिखा।मैं भी हैरान था कि ऐसा कैसे होसकता है।उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था, मानो जैसे उन्हें अपनी मौत साक्षात नजर आरही हो।वे बहुत ही घबराए हुए नजर आरहे थे।खैर,शाम को वापिस अपने कमरे पर चले गए और जब फिर मुझे अगले दिन अर्थात् तीसरे दिन मिले तो मैंने उनसे पूछा-भ्राता जी!सब ठीक-ठाक?अब तो वह हंसते हुए बोले-महाराज! वहां सांप-वांप कुछ नहीं था।मैं तो उससे  बेकार ही डर रहा था,वह तो सड़क के किनारे फन फैलाए सांप के आकार वाला लोहा गड़ा था।जिसे मैं सांप समझ बैठा था।फिर क्या था?हम दोनों मिलकर बहुत देर तक हंसते रहे।

-डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा 





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