शिक्षक और अभिभावकों के मध्य रिश्ता
स्वयं शिक्षक हूँ अतः इस विषय का आकलन भी शिक्षकधर्म की परंपरा के अनुकूल ही करने की भरसक कोशिश करूंगा। मेरा मानना है कि शिक्षक-अभिभावक का रिश्ता अन्य रिश्तों से जैसे पति-पत्नी,गुरु-शिष्य,भाई-बहन,पिता-पुत्र,मां-बेटी आदि से नितांत भिन्न है।इस रिश्ते के लिए कमजोर या मजबूत विशेषण देने की अपेक्षा परस्पर संवादपूर्ण विश्लेषणात्मक नजरिये को विकसित करना बहुत जरूरी है।पल-प्रतिपल विमर्श ही परस्पर आकर्षण का एकमात्र आधार है इस रिश्ते में।इस रिश्ते में मौन का अर्थ है मृत्यु। यहाँ मौन का मतलव अपनी जिम्मेदारियों को कमतर आंकना या उनसे भागना है।
संवाद ही एक मात्र ऐसी शैली है,जो अभिभावक और शिक्षक के मध्य में बनी अकारण-सकारण दूरी,असहमति और असंतोष के भावों को अंकुरण होने से पहले सदा-सदा के लिए नष्ट कर परस्पर आत्मिक सद्भाव और सौहार्द को जन्म देती है।संवाद ही विवाद के रोकथाम में कारगर उपाय है।संवाद के लिए प्रथम शर्त है मन में किसी तरह की कोई आग्रह की पोटली न हो।शांत मन निष्पक्ष समन्वय की भावना के साथ परस्पर चर्चा के लिए सहमत होना ।
शिक्षक और अभिभावक दोनों के केंद्र में विद्यार्थी है। दोनों के विमर्श का मकसद भी विद्यार्थी ही है।विद्यार्थी मतलव भारत का भविष्य और भविष्य के निर्माण में नींव की मजबूती का ख्याल हमेशा रखना चाहिए।भावी विराट,भव्य,दिव्य व्यक्तित्व रूपी इमारत के निर्माण के लिए शिक्षक-अभिभावक के लिए सत्परामर्श है कि वे परस्परसंवाद को अहमियत दें।साथ हीं उन्हें सावधान भी किया जाना चाहिए कि देश के निर्माण में अपने गैर आवश्यक मिथ्या अभिमान को कभी भी संवाद में आड़े न आने दें,ज्ञान,धन,मान,पद और प्रतिष्ठा के अभिमान से बचने की पूरी कोशिश करें।
वर्तमान के विद्यार्थी ही देश के भावी कर्णधार होतेहैं।भविष्य में देश का भार उनके कंधों पर होगा।अतः शिक्षक और अभिभावक दोनों को मिल कर उनकी भुजाओं और कंधों को मजबूत करना होगा। उन्हें इस तरह से प्रशिक्षित करना होगा ताकि उनका सिर कभी झुके नहीं।छाती चौड़ी और मस्तक सदैव ऊंचा रहे उनका भी और अपने देश का भी।क्योंकि भविष्य उनके निर्माण की गुणात्मक परीक्षा जरूर करेगा।
आचार्य चाणक्य ने भी कहा है- शिक्षक की गोद में निर्माण और प्रलय दोनों निवास करते हैं। अतः शिक्षक को भी यह निश्चय करना जरूरी है कि निर्माण और प्रलय में किसे महत्व दे?
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