मंगलवार, 11 मई 2021

कॅरोना से प्रकृति की महत्ता का बोध




कॅरोना काल में ऑक्सीजन की कीमत से आम आदमी भी परिचित हो चुका है।प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन साढ़े पांच सौ लीटर ऑक्सीजन ग्रहण करता है।यह ऑक्सीजन हमें पेड़ो से मिलती है।जीवन के आधार हैं ये वृक्ष।वृक्ष हमारे जीवन के लिए अनिवार्य होने पर भी हमें वृक्षारोपण के लिए विज्ञापन का सहारा लेना पड़ता है।कितनी शर्म की बात है ।वृक्षारोपण के विज्ञापन देना मानवता के लिए बहुत अधिक लज्जा की बात है।वृक्ष मतलव प्राणतत्व के स्रष्टा।
आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम इस तरह से शामिल हो गए हैं कि स्वयं को भारतीय मूल्यों से वंचित करते चले गए।प्रकृति से प्रेम भारतीय ज्ञानपरंपरा की नींव है।वृक्षों और नदियों को इस देश में भगवत्ता के सदृश पूजनीय माना जाता रहा है।वैदिकपरंपरा में वृक्ष की महिमा का अतिशयता से वर्णन मिलता है।वृक्षपूजा की सुदीर्घपरंपरा वैदिक साहित्य के साथ ही बौद्ध और जैन साहित्य तक विद्यमान है।बुद्ध और तीर्थंकर की दृष्टि में पृथ्वी का पवित्र वृक्ष बोधिवृक्ष का बहुत अधिक महत्त्व रहा है।हिंदू धर्म में कल्पवृक्ष का देवता और असुरों के समुद्र मंथन से जन्म हुआ था।वृक्षों और पौधों को भगवान मानकर पूजने की परंपरा सामान्य बात नहीं है।भारत में पीपल,वट और तुलसी की पूजा का इतिहास बहुत पुराना है।वृक्षपूजा के पीछे छिपे रहस्य को जानने के बजाय आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल लोग इसे जड़ता सिद्ध करने में अधिक आतुर रहे हैं।प्रकृतिपूजा का मजाक बनाना उनके चरित्र का अहं हिस्सों में से एक हो गया था।लेकिन एक बार फिर से कॅरोना महामारी ने हमें पुनः अपनी जड़ों की ओर लौटने का भी संकेत दे दिया है।
यद्यपि हमने प्रकृति का जो नुकसान पंहुचाया है,उसे पाटना बहुत मुश्किल होगा।लेकिन फिर भी यदि हम पूर्व पितरों की प्रदत्त प्रविधियों को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाते हुए संकल्पित होते हैं तो समझो हम बहुत हद तक प्रकृति संरक्षण के लिए समर्पित हो गए हैं।वृक्षों और नदियों के प्रति प्रेमपूर्ण प्रवृत्ति को बढ़ावा देना ही हमारे लिए अब एक मात्र विकल्प है ।


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