गुरुवार, 20 मई 2021

वैदिकसंस्कृति की कतिपय विशेषताएं

वैदिकसंस्कृति की कतिपय विशेषताएं -डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा

वेद का ज्ञान सदा से सम्पूर्ण मानवता के लिए समर्पित है।जाति,वर्ण,समाज, देश, पंथ, संप्रदाय आदि की दीवारों को गिराकर धरती पर मनुष्यमात्र की संवेदना का प्रतिनिधित्व करता है वेद का आलोक।महाभारत वेद के आलोक की सत्ता का सम्यक्तया ज्ञानोपरान्त ही डिंडिम उद्घोषणा के लिए उद्यत हुआ है।महर्षि वेदव्यास की ध्वनि पूर्ण निष्ठा के साथ वैदिक गवेषणा के लिए आह्लादकारी प्रेरणा है।मनुष्य की सभी तरह की प्रवृत्तियों के संरक्षण के सूत्र पदे-पदे वेद में विद्यमान हैं। 

          यानीहागमशस्त्राणि याश्च काश्चित् प्रवृत्तयः पृथक्।

          तानि वेदं पुरस्कृत्य प्रवृत्तानि यथाक्रमम्।।महा0 अनु0 122/4

आधुनिककाल खंड में वामपंथ की पक्षपात पूर्ण बौद्धिकता के भ्रमित मायाजाल से ग्रसित कुछ आग्रही व्यक्तियों ने मनु की समग्र चिंतन परम्परा को गर्हित करने के अभीप्सित प्रयत्नों द्वारा निम्नकोटि के तथा विभाजनकारी षड्यंत्रों वाली मानसिकता से मनु को अनावश्यक विवादास्पद बनाने की भरपूर कोशिश की थी।वैदिक विरासत और वैदिक गवेषणा में महर्षि मनु अत्यंत श्रद्धास्पद हैं।महर्षि मनु की दृष्टि में वेदों में भौतिक पदार्थों के नाम और कर्म के साथ ही लौकिक व्यवस्थाओं की रचना  का समग्र निदर्शन प्राप्त होता है।

सर्वेषां नामानि  कर्माणि च पृथक्  पृथक्।वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे।।मनु0 1/21

आत्म-परमात्मा का वर्णन, परमानंद की प्राप्ति के उपायों की चर्चा,प्रकृति-पुरुष का विश्लेषण, द्रव्य-गुण की व्याख्या, प्रत्यक्ष-अनुमान आदि प्रमाणों का विस्तृत उल्लेख,यज्ञीयकर्मकांड की प्रक्रिया का चिंतन, न्याय-वैशेषिक आदि षड्दर्शनों की रचना के आधार वेद ही हैं।तभी तो इन दर्शनों को आस्तिकसंज्ञा है।वेदों की प्रमाणिकता को अस्वीकार करने वाले चार्वाक-जैन–बौद्ध आदि दर्शनों को मनु ने नास्तिको वेदनिन्दकः कहा है।

महर्षि मनु की मान्यता है कि राज्यव्यवस्था, दंडविधान और सेनासंचालन में सिद्धहस्त वेदों के विद्वान ही हो सकता है।

सैनापत्यं च राज्यं च दंडनेतृत्वमेव च।सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति ।।-मनु012/100

वेदों में राष्ट्रसंरक्षण के रहस्य की ऐसी सीख दी गई है, जिसे जीवन में अपनाने से हमारा राष्ट्र सुरक्षित रहेगा और समुन्नति की ओर अग्रसर भी होगा।अथर्ववेद में वर्णित है यदि  राष्ट्र के नागरिक परिश्रमी आलस्य और प्रमाद से रहित हैं तो वह राष्ट्र सुरक्षित भी है और उत्कर्ष के सभी सोपानों को अवश्य संस्पर्श करता है।

श्रमेण तपसा ब्रह्मणा वित्त ऋते श्रिताः .... अथर्ववेद 12//5/1

सुविदित ही है कि आलसी और निकम्मा व्यक्ति संसार में कुछ भी नहीं प्राप्त कर सकता है।यजुर्वेद में उल्लिखित है।मनुष्य तू कर्म का निष्पादन करता हुआ वर्षों तक जीवित रहने की अभिलाषा रख।कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः...... यजुर्वेद 40/2

श्रम के बिना विश्राम की परिकल्पना नितांत असंभव है।इसी कारण वैदिक ऋषि परिश्रमी व्यक्ति के मुखव्याजेन  उद्घोषणा करता है कि मेरे दाहिने हाथ में पुरुषार्थ है और बाएं हाथ में उत्कृष्ट सफलता।कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः..........अथर्ववेद 7/50/8

सफलता आस्वादन का मुख्य रहस्य कठोर परिश्रम ही है।राष्ट्र के नागरिक यदि परिश्रमी हैं तो उस राष्ट्र के उत्कर्ष को कोई चुनौती नहीं दे सकता है?आज भी विश्व में अनेक ऐसे राष्ट्र हैं जिन्होंने बहुत ही अल्पसमय में प्रकर्ष उत्कर्ष की गाथा स्वर्णाक्षरों में लिखी है।उत्कर्ष के मूल में विवेकपूर्ण कठोर परिश्रम है।यदि वहां के नागरिक कदाचित किसी विशेष संदर्भ में अपने राष्ट्रीय नेतृत्व से असहमति रखते हैं तो वे विरोधस्वरूप अपने हाथों में काली पट्टी धारण करेंगे,परन्तु अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्यों से वे कदापि विमुख नहीं होते हैं।हड़ताल के नाम पर जर्मनी और जापान देशों के नागरिक अपने राष्ट्र की प्रगति को रोकने में किसी भी कीमत पर सहभागी नहीं बनते हैं। वे राष्ट्रीय उन्नति में कभी भी बाधक नहीं बनते हैं।

श्रम और तप  का अर्थ है श्रम में तपस्या  की अनिवार्यता।महाभारत में तप का अन्वाख्यान कर्तव्यपालन से है। तपः स्वकर्मवर्त्तित्वम्।कर्म करते समय तप की भूमिका नींव में संस्थापित पत्थर सदृश है।चाणक्य के अनुसार इंद्रियों को वश में रखने का नाम तप है।तपः सारमिन्द्रियनिग्रहः।चाणक्यनीति

आचार्यशंकर तर्क और शास्त्र की अभिज्ञता से सदा वंदनीय हैं।वे जितं हि जगत् केन? मनो हि येन.....प्रश्नोत्तरी माध्यम से तप का माहात्म्य संदर्शित करते हैं।मन को नम किए बिना विश्वविजेता की संकल्पना उपहासास्पद होती है।

संसार की सार्वभौमिक सत्ता की स्वीकार्यता का अर्थ है अखिल विश्व के संचालक,जिसके अनुशासन में सम्पूर्ण जड़-चेतन अनुविद्ध है,उसके अनुशासन का उल्लंघन सर्वथा असंभव है।इस धारणा में प्रगाढ श्रद्धा ही अनौखी अनुभूति कारण बनती है-ईश्वरीय सार्वभौमिक सत्ता की स्वीकार्यता।यही आस्तिक हृदय की पहचान है।इस सत्ता की स्वीकार्यता ही व्यक्ति को अशुभता से सदा दूर रखती है।कर्मफल अवश्य ही सम्प्राप्त होते हैं-यह न्याय इस सत्ता का परम संज्ञान है।कोई भी जागरूक व्यक्ति कभी भी दुःख की कामना नहीं करता है।अशुभ कर्मों के परिणामस्वरूप दुःखों के भोग को रोकने में कोई भी शक्ति सक्षम नहीं है।आस्तिकहृदय कर्मपरिणाम को कभी विस्मृत नहीं करता है।इस अनौखी सीख की छाप सदा उसके अंतर्मन में रहती है।इसी अनौखी शिक्षा की स्पष्ट झलक छान्दोग्योपनिषद में मिलती है।आस्तिकमति से सम्पन्न राष्ट्रीयनेतृत्व के प्रतिनिधि महाराज अश्वपति की उद्घोषणा संवेदनापूर्ण सज्जनों को आज भी अनवरत आकर्षितकिए बिना नहीं रहती है।

न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः।नानाहिताग्निर्नाना विद्वान्न स्वैरी स्वैरिणी कुतः।।

राष्ट्र चेतना के संदेश वीरभोग्या वसुन्धरा को अनुप्राणित करने की सदा ही आवश्यकता रहती है।भूमि मांसदृश पुत्र की सभी इच्छाओं को सुफलित करने वाली होती है।वेद की ऋचा माता भूमि: पुत्रोSहं पृथिव्या: का उच्चारण इसी महत्ता की ओर संकेत करती है।इस राष्ट्र वैभव की सुरक्षा हेतु स्वयं की आहुति देने में कैसा भय? वयं राष्ट्रे जागृयामः पुरोहिता: और वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम... भी इसी भावना की जागृति में परम उद्दीपन हैं।

वेदों की समाज के संदर्भ में मौलिकता अवश्य ही आदरणीय है।ज्ञान-विज्ञान के कारण ब्राह्मण,शक्ति और साहस की प्रचुरता से क्षत्रिय, व्यापार में अनुष्ठानकौशल से वैश्य,सेवा की परम भावना से शुद्र,उत्तमप्रबंधन से नारीशक्ति, निर्भीक और बलवान संतति, दुधारू और पुष्ट गौएँ,द्रुतगति धारक अश्व,पर्याप्त भारसंवाहक वृषभ, अपरिमित हरीतिमा,रोगनाशक औषधि,पर्याप्त वर्षा,अतिवृष्टि और अनावृष्टि का सर्वथा अभाव तथा योग और क्षेम की उपलब्धि की कामना और प्रार्थना वेद की वैज्ञानिकता का व्यवस्थित चित्रण है।यजुर्वेद की यह मन्त्र साधना-आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतां.......योगक्षेमो न:कल्पताम् ....

यह सार्वकालिक और सार्वभौमिक कामना है।वेदों में उदात्त शिक्षा का संदर्शन,मानवीयवेदना और राष्ट्रीयचेतना के सूत्र पदे-पदे विद्यमान हैं।स्वामी दयानन्द सरस्वती का उद्घोष वेदों की ओर लौटो तथा वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।वस्तुतः वेदों की सार्वभौमिकता के परिचय कायह निदर्शन है।

वेदों में सोम तत्त्व शान्ति का परम दूत के रूप वर्णित है।सोम के महत् सामर्थ्य में ही विश्वशान्ति की स्थापना सन्निहित है। वैश्विकशान्ति विश्ववरणीय है और यही वैदिकसंस्कृति की सर्वोच्च प्राथमिकता भी।

अच्छन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य ............सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा.......यजुर्वेद 7/14

शान्ति की प्रार्थना पदे-पदे वेदों में उल्लसित है।शान्तिपाठ और शान्तिकरण के मन्त्र शान्ति की वैश्विक प्रासंगिकता की अपरिहार्य देशना है।द्युलोक के सूर्य, चंद्र और नक्षत्र शान्ति के सन्देशवाहक हैं।अंतरिक्ष जो वायु और वर्षा का स्रोत भी है वह शान्ति का मंगल गायक है।विविध ऐश्वर्यों से प्लावित यह पृथ्वी शान्ति की अधिष्ठात्री है।नदी की शीतल धारा तथा फूलों और फलों से संयुक्त वनस्पतियां भी शान्ति की ही स्वर लहरियां हैं।हरितिमा से समादृत पर्वतों के उत्तुंग शिखर और उत्ताल तरंगों से आपन्न समुद्र भी शान्तिगान के लयबद्ध और अनुशासित श्रोता हैं।

शान्ति की स्थापना के लिए साधन भी शान्ति पूर्ण हों।परस्परप्रेम, परस्परसहयोग,परस्परसंवाद और परस्परनिर्भरता ही सही अर्थों में वसुधा को कुटुंब बना सकती है।

आतंकवाद आज वैश्विक समस्या है। इस समस्या के समाधान में परम साधन और सामयिक आह्वान है वैदिक संस्कृति की शान्ति के बीजांकुरण की प्राकृतिकप्रक्रिया का अनुप्रयोग।तथापि कदाचित् कतिपय संगठन यदि आतंक की फसल पैदा करने में अति उत्साहित दिखे, तब सभी विकल्पों में शिष्ट और अन्यतम विकल्प शेष समर ही है।

उत्तिष्ठत संनह्यध्वमुदारा: केतुभिः सह।सर्पा इतरजना रक्षांस्यमित्राननु धावत।।अथर्ववेद 3/30/19

वीरपुत्रों का सुसज्जा के साथ आह्वान राष्ट्रध्वज के उन्नतभाव का प्रदर्शन,सर्पसदृश कुटिल और विषधरप्रवृत्ति वालों  ,विभेदकारी की मानसिकता से अतिरंजित आतंकी क्रियाओं के कारक असुरों पर तब प्रहार ही एकमात्र विकल्प शेष रहता है-असौ या सेना मरुतः परेषामस्मानैत्यभ्योजसा स्पर्धमाना।तां विध्यत तमसापवृतेन यथैषामन्यो अन्यं न जानात् ।।अथर्ववेद 8/8/24

हे वीरपुरुषो!हमारी ओर बढ़ने वाली आतंकवादी सेना की गति को निरुद्ध हेतु उसे तामस अस्त्र से भेदन कीजिए,ताकि इन्हें परस्पर के सम्बन्ध का विस्मरण हो सके और ये परस्परसंहार हेतु भी तत्पर हो जाएं-इमे जयन्तु परामी जायन्ताम्।अथर्ववेद 8/8/24

हमारे वीर विजयश्री का आलिंगन करें और आतातायियों का पराभव हो।वैदिकऋषि द्वारा युद्ध की भयंकरता वर्णन आधुनिक समय में उसकी शाश्वत चिन्तन की प्रासंगिकता को यथार्थ में परिभाषित करता है।

वृक्षे वृक्षे नियता मीमयद् गौस्ततो वयः प्रणतान् पूरुषाद:।

                 अथेदं विश्वं भुवनं भयात इन्द्राय सुन्वद् ऋषये च शिक्षत् ।। ऋग्वेद 10/27/22

आचार्य यास्क उक्त मन्त्र के व्याख्यान क्रम में वृक्ष का अर्थ धनुष, गौ का अर्थ प्रत्यञ्चा और वयः का अर्थ बाण करते हैं।भीषणसंग्राम के दौरान उभयपक्ष की सेनाएं अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित है।प्रत्येक सैनिक के धनुष पर चढ़ी प्रत्यञ्चा टंकार की भीष्म गर्जना के साथ नररक्तपिपासु बाण शत्रुदल का मर्दन कर रहे हैं।इस संहार लीला से समस्त भुवन संत्रस्त हो उठा है।इन्द्र विनाश के क्षणों को अवलोकन कर प्रभु से कातरस्वरों में प्रार्थना करने लगा। संहारकारक इस संग्राम को रोकना अति आवश्यक है।प्रभो! प्राणों के प्यासे मन में प्रेम की अविरल धारा प्रवाहित कीजिए।ऋषियों से भी अभ्यर्थना है कि आपकी देशना में युद्ध विराम की कामना हो।युद्ध की अनिवार्यता को अस्वीकारते हुए वैदिक ऋषि की पुकार अवश्य ही ध्यातव्य है।

प्रमुञ्च धन्वनस्त्वमुभयोरार्त्न्योर्ज्याम्।याश्च ते हस्त इषवः परा ता भगवो वप।।यजुर्वेद 16/9

हे राष्ट्रनायक!धनुष की दोनों कोटियों पर चढ़ी प्रत्यंचा विमुक्त कीजिए।युद्ध हेतु सन्नद्ध हाथों में रखे बाणों को पृथक् कर दीजिए।धनुष और बाण सभी तरह के अस्त्र-शस्त्रों के बोधक हैं।समर में जिस साधन से विनाशक तत्त्व को विमोचित किया जाए वह धनुष और संहारक तत्व बाण संज्ञक के रूप में लोक में प्रचलित है।मन्त्रार्थ का तात्पर्य सामरिक सज्जा के विराम की प्रासंगिकता को अवसर प्रदान करना।

मित्रत्व की संकल्पना में वैदिकसंस्कृति की अनूठी सन्देशना है-मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।। यजुर्वेद 36/18

मैत्री झलक से मुझे और मेरे प्रत्येक कलाप में अवलोकन की वांछा सभी मानवीय सत्ता से और उस सत्ता के प्रति मेरी चक्षुओं में भी मैत्री की ज्योति सदा अवलोकित रहे।यह भावना परिस्थितियों पर निर्भरता के अपेक्षा प्रेम की शाश्वत सत्ता के प्रति पूर्ण निष्ठा की गंभीर अभिव्यक्ति हो।प्रेम की उपासना में अलंकार की अभिव्यंजना के साथ जिस स्वाभाविक प्रवृत्ति के आश्रय से ग्रहण किया गया है,वह वैदिक मनोविज्ञान के उत्कर्ष का भी परिचायक है।

सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या।।अथर्ववेद 3/30/2

हृदय की सदाशयता, मन की पवित्रता और द्वैष विद्वैष की सर्वथा अनुपस्थिति की अवधारणा में नवजात गोवत्स के प्रति गोमाता के व्यवहार का आदर्शसंस्मरण भी अनौखी ऋषिप्रज्ञा का अनुपम उदाहरण है।

वैदिक संस्कृति की प्रयोगशाला का नाम यज्ञशाला है।ऋचाओं की अनुगूंज के साथ स्वाहाकार के क्रम में शाकल्य और घृत की आहुति गौण होते हुए भी पर्यावरण की शुद्धि में प्रधान हेतुकी है।प्रकृति में सर्वत्र यज्ञ विद्यमान है।रात्रि के बाद उषा, उषा के बाद सूर्योदय।भूमि द्वारा सूर्य की परिक्रमा, वर्षा, ऋतुचक्र, नवसंवत्सर आदि।वस्तुतः यह सब यज्ञ ही है।

छान्दोग्योपनिषद में मानवजीवन यज्ञ नाम से संकेतित है।पुरुषो वाव यज्ञ: ... 3/16

प्रातःसवन, माध्यन्दिनसवन और सायंसवन-मानवीय संकल्पों का यज्ञीय अनुष्ठान के साथ तादात्म्य भाव है।महिदास ऐतरेय ऋषि इसी यज्ञीयसाधना के अन्यतम अनुष्ठाता थे।

विशेष ध्यान के आकर्षण क्रम में वैदिक शब्द कोष निघण्टु में धन वाचक 28 शब्दों का संग्रह है। पाठान्तर दो शब्दों के जोड़ने पर 30 शब्द हो जाते हैं।निघण्टु में धन और लक्ष्मी पदों का संग्रह नहीं है, तथापि इन्हें सम्मिलित किये जाने पर 32 धन वाचक शब्दों से धन की महिमा का वेदों में बहुशः वर्णन है।वेदों में दरिद्रता और कंगाली को कोई स्थान नहीं है-वयं स्याम पतयो रयीणाम् । ऋग्वेद 4/50/6

रयि शब्द का बहुवचन प्रयोग द्योतक है बहुविध ऐश्वर्यों के स्वामी बनना।ऋग्वेदपरिशिष्ट के लक्ष्मीसूक्त में वर्णित है-प्रादुर्भूतोSस्मि राष्ट्रेSस्मिन् कीर्त्तिमृद्धिम् ददातु मे ।मन्त्र संख्या 7

राष्ट्र में जन्मग्रहण और उस राष्ट्र से यश और समृद्धि की अभिलाषा है।अन्न, वस्त्र,अलंकार,रजत, हिरण्य,पुत्र,कलत्र, रथ,गाय,अश्व,हाथी-सभी तरह के धन की आकांक्षा की गई है।परन्तु लक्ष्मी प्राप्ति में पापकर्म सर्वथा परिहेय है।

इन्द्र जिसे मघवा अर्थात् धनाधीश कहते हैं।उससे धन की प्रार्थना में उच्चरित मन्त्र-भूरिदा भूरी देहि नो दभ्रं भूर्याभर।ऋग्वेद 4/32/20

हे इन्द्र!भूरिदाता आप भूरिशः ऐश्वर्य की प्राप्ति में सहायक हों।स्वल्प नहीं बहुत अधिक लक्ष्मी की इच्छा है।अलक्ष्मी को काणी,विकटा एवं सदा रुलाने वाली कहकर पर्वत से टकराकर चूर-चूर होने की इच्छा व्यक्त की गई है।अरायिकाणे विकटे गिरि गच्छ सदान्वे।ऋग्वेद 10/155/1

वेद की प्रेरणा है लक्ष्मीवान होने के लिए।परन्तु भौतिक सम्पदा के अतिरिक्त महनीय सम्पदा अध्यात्म की प्राप्ति जीवन का परम उद्देश्य वांछनीय है।

                                     ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदु:।

  यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत् तद्विदुस्त इमे समासते ।।ऋग्वेद 1/164/39

ऋचाओं द्वारा उस परम अविनाशी सत्ता का स्तवन,जिसके अनुशासन में सभी देवगण रहते हैं।यदि उसे नहीं जान पाए तो फिर उसे ऋचा से क्या प्राप्त होगा।ऋचा की उपादेयता परम पद के दर्शन की अभिलाषा में समाधि को प्रमुखता देना है।समाधि के अन्वाख्यान में ऋग्वेदीय ऋषिचेतना की सीख अवश्य संज्ञेय है।

न दक्षिणा विचिकिते न सव्या न प्राचीनमादित्या नोत पश्च ।

               पक्या चिद् वसवो धीर्या चिद् युष्मानीतो अभयं ज्योतिरश्याम् ।। ऋग्वेद 2/27/11

न तो मुझे दक्षिण दिशा में ही कुछ दिख रहा है और न ही बायीं दिशा में।पूर्व दिशा में भी कुछ नहीं दिख रहा और न ही पश्चिम दिशा में।जान गया हूं कि मुझ में अपरिपक्वता की अपार त्रुटियां हैं बुद्धि अल्पता की भी भरमार है फिर भी आपके मार्गदर्शन से निर्मित ज्योतिष्पथ मुझ में अभयता का संचार करता है।समाधि के क्रम में मन और बुद्धि के प्रयोग की व्यापकता का वर्णन यजुर्वेद में है।

                  युञ्जते मन उत युञ्जते धियो  विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः।

   वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्महि देवस्य सवितु: परिष्टुतिः ।।यजुर्वेद 5/14,11/4,37/2

विप्रश्रेष्ठ विद्वान् विप्र के विप्र सवितादेव में मन समाहित करते हैं और बुद्धि को स्थिर करते हैं।सर्वव्यापी ईश्वर अकेले ही यज्ञों का धारण किये हुए है।महान सर्वज्ञ विप्रकृष्ट दिव्य स्रष्टा की महती महिमा है।इस मन्त्र में योग  के मूल सिद्धांत विद्यमान हैं।

भारतीय एवं पाश्चात्य ऐतिहासिक गवेषकों की स्पष्ट मान्यता है कि संसार की सबसे प्राचीन संस्कृति वैदिकसंस्कृति है।वैदिकसंस्कृति भारत की संस्कृति है।बड़े-बड़े झंझावातों ने इसे उखाड़ने की भरसक चेष्टा की थी।इसके सिद्धांतों को कई तरह से झकझोरा गया था।परंतु आश्चर्य है कि यह फिर भी मिट न सकी।विश्व के समस्त उत्थान और पतन की साक्षी रही है यह वैदिकसंस्कृति।प्राचीनसमय से ही वैदिकसंस्कृति की उदात्तशिक्षाएं अखिलविश्व के मार्गदर्शक की भूमिका में प्रतिष्ठित रही है।इस प्रतिष्ठित भूमिका से आह्लादित महर्षि मनु की उद्घोषणा हमारी समस्त  ऋषिचेतना के प्रति कृतज्ञतापूर्ण  अविस्मरणीय अभिव्यक्ति है।

एतद्देशप्रसूतस्य        सकाशादग्रजन्मनः ।

       स्वंस्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ।।मनु0 2/20 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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