बात बहुत बचपन की है।तब शायद मैं दूसरी या तीसरी क्लास में पढ़ने वाला छात्र रहा होऊंगा।मेरी और मुझसे बड़े भाई की प्रारंभिक शिक्षा पिताजी की देख-रेख में हुई थी।पिताजी तब के अखंड उत्तरप्रदेश और आज के उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के सरकारी स्कूल में हैडमास्टर थे।पिताजी का वर्चस्व विद्यालय और घर दोनों ही जगहों पर पूरी हनक के साथ विद्यमान था।मैं और मुझसे बड़ा भाई परिवार से अलग पिताजी के साथ ही रहते थे।हम दोनों भाइयों की सारी जिम्मेदारी पिताजी की ही थी।मां दादी के साथ गांव में खेतीबाड़ी के साथ-साथ गाय-बेलों और घर की देखभाल भी किया करती थी।
एकबार की बात है कि रोजाना की तरह दूधिया सुबह-सुबह हमारे क्वार्टर के दरवाजे पर रखे बड़े-से लोटे में दूध डाल कर चला गया था।उसके जाने के कुछ समय के बाद मैं जैसे ही सुबह -सुबह अपने बिस्तर से सोकर उठा तो वैसे ही अपनी अधखुली आंखों को अपने दोनों हाथों से मलता हुआ दरवाजे की तरफ जाने लगा।जैसे ही मैं दरवाजे पर पंहुचा तो वैसे ही फ़र्श पर रखे दूध से भरे लोटे पर मेरा पैर लग गया । मेरे पैर के लगते ही दूध का लोटा जमीन पर लुढ़क गया और सारा का सारा दूध जमीन पर फैल गया।अब पिताजी द्वारा मेरी बहुत पिटाई होगी, इस डर से मुझ में अंदर ही अंदर बहुत कंपकंपी छूटने लगी थी।मुझे तब कुछ सूझ भी नहीं रहा था कि आखिर मैं अब करूं तो करूं क्या? इसी डर से मैं अपने बचने के उपायों पर गौर करता हुआ दुबारा से अपने बिस्तर पर सो गया ।नींद तो अब आनी ही कहां से थी। लेकिन अपनी सांसें थामे सोने का नाटक जरूर करने लगा।
बस,कुछ ही देर के बाद मुझे पिताजी के घर के अंदर प्रवेश करने की आहट सुनाई दी। वे जमीन पर दूध के लोटे को लुढ़का हुआ देखकर गुस्से में तिलमिलाते हुए बोलने लगे कि तुम देर तक सोते रहते हो, इसलिए बिल्ली दूध पी गई और बचे हुए दूध को फैलाकर भी चली गई है।मैं भी अनजान-सा भाव लिए तथा अंदर ही अंदर पिटाई से बच गया हूँ इस आंतरिक आश्वासन के साथ राहत भरी सांस लेने लगा था।यद्यपि उस समय की मेरी समग्र प्रतिक्रिया का उद्दीपन भय ही रहा था और अभीष्ट उद्देश्य भी था गैरइरादतन अपराध के दंड से मुक्ति पाने का उपाय ढूंढना।परंतु कईबार हमारे दिलोदिमाग में सामाजिक दर्पण से प्रतिबिम्बित प्रतिक्रिया परिस्थितियों के अनुसार प्रकट हो जाया करती हैं।उस समय मानस में प्रकट हुई नादानियों ने अपनी समझ व स्तर के अनुरूप निदान ढूंढ लिया था।आज भले ही वह निदान जीवनमूल्यों से किसी भी तरह से मेल खाता न दिखे ,लेकिन उस समय उसने मुझे और मेरे अंतर्मन को बहुत अधिक राहत का अहसास तो कराया ही था।
आज भी जब वह स्मृति मेरे मानस में उभरती है तो एक बात अवश्य स्पष्ट हो जाती है कि जीवन में चाहे कैसी भी समस्या क्यों न आ जाए,लेकिन उनसे न तो घबराना चाहिए और नहीं उनसे पलायन करना चाहिए।उनका सामना करने का अर्थ है,स्वयं उनके समाधान की खोज में निकल पड़ना।समाधान के प्रति हमारी तीव्रतम व्याकुलता हमारे अस्तित्व की परम पहचान है।हमारी व्याकुलता सचेतन प्रयास की उद्गमस्थली है।अंदर से यह अनुभूति चरम पर हो कि मैं हूँ न।मैं हूँ न का यह आत्मिक संवाद हमें समाधान का सारथी बनाकर ही छोड़ेगा।यही संवाद आत्मजागृति (Self Awareness) के बीज भी अंकुरित करता है।
Adbhut 🙏🙏
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंइसे कहते हैं बाल बाल बचना
जवाब देंहटाएंआभार सभी का हृदय से
जवाब देंहटाएंवाह बड़े भ्राताश्री चतुराई तो आपकी बचपन से ही
जवाब देंहटाएंपहचान है!
आभार प्रिय अनुज
हटाएंआपकी प्रवीण बुद्धि की चर्चा तो गांव में आज भी
जवाब देंहटाएंहोती रहती है!
नन्द किशोर बहुगुणा
सभी प्रवीण बुद्धि से सम्पन्न हैं मेरे भाई ......
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