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शनिवार, 7 मई 2022

शिवोsहम्


शिवोsहम्


यूं तो मनुष्य प्राणिजगत का सबसे बुद्धिमान प्राणी है।परंतु अन्य प्राणियों में बुद्धि के संस्कार मात्र उनके देह के पोषण और अस्तित्व के संरक्षण में समर्थ हो पाते हैं, जबकि मानव को मिली बुद्धि का परम प्रयोजन है कि वह बुद्धि को प्रबुद्ध करते हुए शिवोsहम् की प्रति पल की अनुभूति में समर्थ हो सके। हमारी इस मानवीय यात्रा का परम अवसान भी हिमालय के उत्तुंग शिखरों से लेकर मानसरोवर के पवित्र जल में देवाधिदेव महादेव के रुद्राभिषेक के पलों का स्वयं साक्षी बनने के मूल्यवान अवसर को  पाना है।हिमालय,मानसरोवर,रुद्राभिषेक, और साक्षीभाव ये अध्यात्म जगत के पारिभाषिक पद हैं।इनका योगसाधना में बहुत महत्व है।

शिव का अर्थ है कल्याण। इस कल्याण में जब आत्मा की सहभागिता होती है,तभी उसे आत्मकल्याण कहा जा सकता है। आत्मकल्याण के साथ ही सकल मानवीय प्रजा के कल्याण हेतु पथ का निदर्शन शिवत्व की परिभाषा है। यूं तो आज मानवीय बुद्धि के दुरुपयोग से न केवल यह भूलोक अपितु द्युलोक और अंतरिक्ष लोक भी बहुत अधिक त्रस्त और संतप्त हैं। लेकिन, बुद्धि में शाश्वत सत्ता के एकमात्र अधिष्ठाता  शिवतत्व का अवतरण ही इसका सार्वकालिक समाधान है।

हमारी बुद्धि में शिवत्व के आमंत्रण में यजुर्वेद की ऋचा की देशना ऋषि चेतना का सर्वश्रेष्ठ संज्ञान है।

शिवो भव प्रजाभ्यो मानुषीभ्यस्त्वमंगिर:।

मा द्यावा पृथिवी अभि शोचीर्मा न्तरिक्षं मा वनस्पतीन्।। यजुर्वेद 11/45

मनुष्यमात्र के प्रति आत्मभाव और शिवतत्त्व के बीज मानवता की बुनियादी आवश्यकता है। हमारे  प्रत्येक विमर्श में हर मानव आत्मबन्धु हो और प्रत्येक मानुषी प्रजा के लिए शिवत्व के भावों का  उदयन सहजता से हो।

आज का विज्ञानवेत्ता मानव आकाश में कृत्रिम उपग्रहों की उड़ान से अंतरिक्ष की व्यवस्था में शांति भंग कर रहा है और चन्द्रलोक में उतरकर उपद्रव पैदा कर रहा है।बहरहाल,पृथ्वी पर हम स्वतंत्रता के बहाने महामारक बमों और अस्त्रों के निर्माण से महाविनाश को आमंत्रण नहीं दे रहे हैं क्या?क्या विज्ञान की खोज में शिवत्व मुख्य आधार नहीं होना चाहिए?

जिस इंसान को अभी तक पृथ्वी पर इंसानियत के साथ रहना नहीं आया है,क्या वह बिना शिवत्व के द्युलोक और अंतरिक्ष में पहुंच कर सर्वकल्याण की भावना का संकल्प कर सकता है?अवश्य ध्यान रहे कि हम में से न तो कोई सदा रहने वाला है,न ही हम में से किसी का सौंदर्य सदा बरकरार रहने वाला है।हमारा बल और यौवन भी सदा-सदा के लिए टिकने वाला नहीं है।फिर क्यों हम अपनी अनंत लालसा के कारण इस भूमि को अधिक नारकीय और संघर्षों के कारणों को पनपने में सहयोगी बन रहे हैं?हमारे लालच की सीमा सुरसा राक्षसी की भांति प्रति क्षण विस्तार के लिए बहुत आतुर है,जिस कारण हम अंतरिक्ष से भी पृथ्वी पर अंगारे बरसाने में लगे हए हैं।अपने लालच के वशीभूत हम सारी पृथ्वी की दिव्य वनस्पतियों को भी राख करने में तुले हुए हैं।कब होगा इस लालच का अवसान? सच तो बस,इतना है कि इन सबका एक ही समाधान है शिवो भव या शिवोsहम् ।

शिवोsहम् चेतना के निरंतर अहसास का नाम है।हर क्रिया में, हर प्रतिक्रिया में शिवत्व के दर्शन का नाम है शिवोsहम्।शिवोsहम् वह उपाधि है,जो समाधि की अनुगूंज को निरंतरता से व्यक्त करती है।

शिव मतलव परिस्थिति का गुलाम नहीं।शिव  की समाधि  मुद्रा बताती है कि समाधान बाहर की प्रतियोगिता से मिलने वाला नहीं है।यह तो अवेयरनेस और डिटैचमेंट की सहज अनुभूति के उच्च परिणाम से संभव है।

शिव की समाधि में आत्मचिंतन की मुद्रा बताती है कि हमें दैनिक जीवन में आत्मावलोकन को बहुत अधिक महत्व देना चाहिए।।शिव समाधि के अतिरिक्त जनसमान्य के कल्याण के साथ संतुलन और सामंजस्य के भी महाप्रणेता हैं।

भगवान शिव का वाहन नंदी( वृषभ) धर्म का प्रतीक है और भगवती पार्वती का वाहन शेर शक्ति का प्रतीक है।जीवन में सबसे बड़ी कला का नाम है संतुलन।संतुलन का अभाव ही संघर्ष का प्रमुख कारण है।वृषभ और सिंह परस्पर विरोधी हैं।शिव संतुलन के अद्भुत शिल्पकार हैं।शिव में  गजब का सामंजस्य है।शिव के कंठ में सर्पमाला है तो कार्तिकेय का वाहन मयूर है।गणेश का वाहन मूषक। मयूर सर्प का दुश्मन है, तो मूषक सर्प का  दुश्मन है।सबका स्वभाव विपरीत है। परन्तु भगवान शिव सामंजस्य के अद्भुत प्रस्तोता हैं। विपरीत परिस्थितियों में सामंजस्य ही एकमात्र ऐसा गुण है, जो सफलता के आस्वादन में प्रबल सहयोगी होता है।

समुद्र मंथन के समय में सभी देवों ने अमृत का पान  किया था और भगवान शिव ने विष का पान किया था।अमृत का पान करने वाले देव कहलाए और विष का पान करने वाले देवों के देव महादेव कहलाए।

शिव ने उस हलाहल को अपने कंठ में रख लिया। उसे गले के नीचे नहीं उतरने दिया। संसार के विष यानी दुख-कठिनाइयों को हमें अपने गले से नीचे नहीं उतरने देना चाहिए। हमें कठिनाइयों का भान तो हो, लेकिन हमें  उन्हें अधिक महत्व नहीं देना चाहिए। नील कंठ सुंदरता का प्रतीक है।सबसे अधिक सौंदर्य परोपकार में होता है।

शिव के मस्तक पर चंद्रमा इस बात का प्रतीक है कि  हमें अपने मस्तिष्क को सदा शांत रखना चाहिए।जटाओं से निकलती गंगा का तात्पर्य है-सामर्थ्यवान का स्वयं पर नियंत्रण  और दूसरों के दुर्गुणों रूपी विष को सोखकर, ठंडे दिमाग से समाज और परिवार में सामंजस्य बनाए रखना है ।हमारा व्यक्तित्व ऐसा प्रखर हो कि गंगा जैसी जीवनदायिनी शक्तियां हमें स्वयं  प्राप्त हो जाए। 




      -डॉ. कमलाकान्त बहुगुणा

विभागाध्यक्ष एवं संपादक वरेण्यम्

पूर्व संपादक जीवन संचेतना

मंगलवार, 11 मई 2021

मानवीय प्रवृत्ति के कतिपय सुनहरे नियम





हम अपने व्यवहार और नजरिए को बदलने के लिए अथक परिश्रम करते हैं।बहुत परिश्रम के बाद भी हम उस अनुभूति के करीब भी नहीं पहुंच पाते हैं,जहां हम स्वयं से परिचित हो सकें।आदतन इस तरह के बड़े परिवर्तन की तरफ हम कम ही आकर्षित हो पाते हैं,जो हमें हमारी प्रकृति से मिला सके।स्वयं से मिलना छोटा उद्देश्य कदापि नहीं हो सकता है।स्वयं के अस्तित्व को जानना बड़े उद्देश्यों में से एक नहीं बल्कि अकेला ही है।इस बृहद उद्देश्य को पाने के लिए  हमें अपने मूलभूत पैराडाइम में परिवर्तन के साथ श्रम और तप की बहुत अधिक आवश्यकता पड़ती है।हमें पत्तों और टहनियों की अपेक्षा जड़ों पर ज्यादा फोकस करना करना होता है।इस बृहद परिवर्तन के लिए हमें स्वयं भी अलग तरह से बनने हेतु संकल्पित होना  होगा।

अस्तित्वबोध के लिए हमारे चरित्र में विनम्रता और वात्सल्यता बहुत आवश्यक है।अहंकार और अवसाद से ऊपर उठकर हमें अपनी आत्मिक अग्नि को उद्बुद्ध करना होगा।इस अग्नि में ताप भी है और प्रकाश भी।इस तरह से बनने के लिए हमें पूरी शिद्दत चाहिए।हम जो बने हुए हैं,वही हम देखते हैं।हम क्या देख पाते हैं?यह हमारे बनने पर निर्भर करता है।यह कभी नहीं हो सकता है कि हम देखने में तो बदल जाएं,लेकिन बनने के लिए हमें बदलना स्वीकार ही न हो।

प्रकृति के सुनहरे नियम संरक्षण और संवर्धन के साथ ही हमें स्वयं से परिचित होने का भी समुचित अवसर देते हैं।इन नियमों को आत्मसात करें ,अन्यथा इनका अभाव विघटन और विनाश को भी आमंत्रित करते सकता है।चेतना की अधिकतम गहराई संरक्षण और संवर्धन की आधारभूमि है।यदि हमारे द्वारा इस भूमि को उर्वरा नहीं किया गया तो फिर हमें विघटित और विनष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता है।चेतना की गहराई में उतरने पर ही हमें मालूम होता है कि ये सभी प्राकृतिक नियम प्रत्येक मानव की अंतरात्मा में विद्यमान हैं।भले ही उनमें कोई इन नियमों के प्रति निष्ठावान हो या न हो। लेकिन ये प्रकृति के सुनहरे नियम हम सबके अंतर्मन होते जरूर हैं।चाहे वे थोड़े धूमिल ही क्यों न हों।आस्थाहीनता से ये नियम दफन भी हो जाते हैं।

मानव गरिमा प्रकृति के नियमों में सर्वोपरि है।मानवीय गरिमा को सभी धर्म,सभी देशों के संविधान तथा सभी संस्कृतियाँ सम्मान देती हैं।संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के पीछे मानवीय गरिमा की यही उच्च भावना छिपी है।मानवीय गरिमा का अर्थ है कि मानवमात्र की गरिमा का ख्याल रखना।समाज के अंतिम पायदान पर खड़ा इंसान भी प्रथम पायदान पर खड़े इंसान जैसा ही गरिमामयी है। कर्म के आधार पर उच्चता और निम्नता का आकलन मानवता पर बहुत बड़ा कलंक है।प्रधानमंत्री नरेंद्रमोदी द्वारा सफाई कर्मचारियों के पादप्रक्षालन भी इसी भाव के जागृति हेतु यह महान संदेश है।

ईमानदारी और अखंडता ये दोनों भी मानव विश्वास की गहरी नींव है।कोई भी व्यक्ति,परिवार,समाज और राष्ट्र इन्हें धारण किए  बिना उन्नति नहीं कर सकता है।निष्पक्षता स्वाभाविक होते हुए भी जब यह ओढ़ी या थोपी जाती है तो फिर यह हमें अस्तित्व बोध की प्रकृति से भी बहुत दूर करती जाती है।हमें बालसुलभ निष्पक्षता ही धारण करनी होगी।इन आवश्यक तत्वों के साथ ही सुरक्षा, मार्गदर्शन, बुद्धि, शक्ति, सेवा, योगदान, उत्कृष्टता, धैर्य, पोषण, ज्ञान,इच्छा, योग्यता तथा प्रोत्साहन आदि प्राकृतिक  नियमों के प्रति भी संकल्पित होना होगा।





सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु

स्मृति और कल्पना

  प्रायः अतीत की स्मृतियों में वृद्ध और भविष्य की कल्पनाओं में  युवा और  बालक खोए रहते हैं।वर्तमान ही वह महाकाल है जिसे स...