गुरुवार, 20 मई 2021

शिक्षक और अभिभावकों के मध्य रिश्ता


शिक्षक और अभिभावकों के मध्य रिश्ता 

स्वयं शिक्षक हूँ अतः इस विषय का आकलन भी शिक्षकधर्म की परंपरा के अनुकूल ही करने की भरसक कोशिश करूंगा। मेरा मानना है कि शिक्षक-अभिभावक का रिश्ता अन्य रिश्तों से जैसे पति-पत्नी,गुरु-शिष्य,भाई-बहन,पिता-पुत्र,मां-बेटी आदि से नितांत भिन्न है।इस रिश्ते के लिए कमजोर या मजबूत विशेषण देने की अपेक्षा परस्पर संवादपूर्ण विश्लेषणात्मक नजरिये को विकसित करना बहुत जरूरी है।पल-प्रतिपल विमर्श ही परस्पर आकर्षण का एकमात्र आधार है इस रिश्ते में।इस रिश्ते में मौन का अर्थ है मृत्यु। यहाँ मौन का मतलव अपनी जिम्मेदारियों को कमतर आंकना या उनसे भागना है।
संवाद ही एक मात्र ऐसी शैली है,जो अभिभावक और शिक्षक के मध्य में बनी अकारण-सकारण दूरी,असहमति और असंतोष के भावों को अंकुरण होने से पहले  सदा-सदा के लिए नष्ट कर परस्पर आत्मिक सद्भाव और सौहार्द को जन्म देती है।संवाद ही विवाद के रोकथाम में कारगर उपाय है।संवाद के लिए प्रथम शर्त है मन में   किसी तरह की कोई आग्रह की पोटली न हो।शांत मन निष्पक्ष समन्वय की भावना के साथ परस्पर चर्चा के लिए सहमत होना ।
शिक्षक और अभिभावक दोनों के केंद्र में विद्यार्थी है। दोनों के विमर्श का मकसद भी विद्यार्थी ही है।विद्यार्थी मतलव भारत का भविष्य और भविष्य के निर्माण में नींव की मजबूती का ख्याल हमेशा रखना चाहिए।भावी विराट,भव्य,दिव्य व्यक्तित्व रूपी इमारत के निर्माण के लिए शिक्षक-अभिभावक के लिए सत्परामर्श है कि वे परस्परसंवाद को अहमियत दें।साथ हीं उन्हें सावधान भी किया जाना चाहिए कि देश के निर्माण में अपने गैर आवश्यक मिथ्या अभिमान को कभी भी संवाद में आड़े न आने दें,ज्ञान,धन,मान,पद और प्रतिष्ठा के अभिमान से बचने की पूरी कोशिश करें।
वर्तमान के विद्यार्थी ही देश के भावी कर्णधार होतेहैं।भविष्य में देश का भार उनके कंधों पर होगा।अतः शिक्षक और अभिभावक दोनों को मिल कर उनकी भुजाओं और कंधों  को मजबूत करना होगा। उन्हें इस तरह से प्रशिक्षित करना होगा ताकि उनका सिर कभी झुके नहीं।छाती चौड़ी और मस्तक सदैव ऊंचा रहे उनका भी और अपने देश का भी।क्योंकि भविष्य उनके निर्माण की गुणात्मक परीक्षा जरूर करेगा।
आचार्य चाणक्य ने भी कहा है- शिक्षक की गोद में निर्माण और प्रलय दोनों निवास करते हैं। अतः शिक्षक को भी यह निश्चय करना जरूरी है कि निर्माण और प्रलय में किसे महत्व दे? 
शिक्षक और अभिभावक कि सूझ-बूझ भरी संवादशैली ही उनके आपसी रिश्तों को आजन्म  सजीव और अमर कर सकती है।विद्या ददाति विनयं का सूत्र उन्हें उनके बढ़ते ज्ञान के अनुभव को हकीकत के धरातल पर विनम्रता के संचार के साथ तीव्ररूप में प्रवाहित करता है। यही इस रिश्ते की सुगंध भी है।


वैदिकसंस्कृति की कतिपय विशेषताएं

वैदिकसंस्कृति की कतिपय विशेषताएं -डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा

वेद का ज्ञान सदा से सम्पूर्ण मानवता के लिए समर्पित है।जाति,वर्ण,समाज, देश, पंथ, संप्रदाय आदि की दीवारों को गिराकर धरती पर मनुष्यमात्र की संवेदना का प्रतिनिधित्व करता है वेद का आलोक।महाभारत वेद के आलोक की सत्ता का सम्यक्तया ज्ञानोपरान्त ही डिंडिम उद्घोषणा के लिए उद्यत हुआ है।महर्षि वेदव्यास की ध्वनि पूर्ण निष्ठा के साथ वैदिक गवेषणा के लिए आह्लादकारी प्रेरणा है।मनुष्य की सभी तरह की प्रवृत्तियों के संरक्षण के सूत्र पदे-पदे वेद में विद्यमान हैं। 

          यानीहागमशस्त्राणि याश्च काश्चित् प्रवृत्तयः पृथक्।

          तानि वेदं पुरस्कृत्य प्रवृत्तानि यथाक्रमम्।।महा0 अनु0 122/4

आधुनिककाल खंड में वामपंथ की पक्षपात पूर्ण बौद्धिकता के भ्रमित मायाजाल से ग्रसित कुछ आग्रही व्यक्तियों ने मनु की समग्र चिंतन परम्परा को गर्हित करने के अभीप्सित प्रयत्नों द्वारा निम्नकोटि के तथा विभाजनकारी षड्यंत्रों वाली मानसिकता से मनु को अनावश्यक विवादास्पद बनाने की भरपूर कोशिश की थी।वैदिक विरासत और वैदिक गवेषणा में महर्षि मनु अत्यंत श्रद्धास्पद हैं।महर्षि मनु की दृष्टि में वेदों में भौतिक पदार्थों के नाम और कर्म के साथ ही लौकिक व्यवस्थाओं की रचना  का समग्र निदर्शन प्राप्त होता है।

सर्वेषां नामानि  कर्माणि च पृथक्  पृथक्।वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे।।मनु0 1/21

आत्म-परमात्मा का वर्णन, परमानंद की प्राप्ति के उपायों की चर्चा,प्रकृति-पुरुष का विश्लेषण, द्रव्य-गुण की व्याख्या, प्रत्यक्ष-अनुमान आदि प्रमाणों का विस्तृत उल्लेख,यज्ञीयकर्मकांड की प्रक्रिया का चिंतन, न्याय-वैशेषिक आदि षड्दर्शनों की रचना के आधार वेद ही हैं।तभी तो इन दर्शनों को आस्तिकसंज्ञा है।वेदों की प्रमाणिकता को अस्वीकार करने वाले चार्वाक-जैन–बौद्ध आदि दर्शनों को मनु ने नास्तिको वेदनिन्दकः कहा है।

महर्षि मनु की मान्यता है कि राज्यव्यवस्था, दंडविधान और सेनासंचालन में सिद्धहस्त वेदों के विद्वान ही हो सकता है।

सैनापत्यं च राज्यं च दंडनेतृत्वमेव च।सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति ।।-मनु012/100

वेदों में राष्ट्रसंरक्षण के रहस्य की ऐसी सीख दी गई है, जिसे जीवन में अपनाने से हमारा राष्ट्र सुरक्षित रहेगा और समुन्नति की ओर अग्रसर भी होगा।अथर्ववेद में वर्णित है यदि  राष्ट्र के नागरिक परिश्रमी आलस्य और प्रमाद से रहित हैं तो वह राष्ट्र सुरक्षित भी है और उत्कर्ष के सभी सोपानों को अवश्य संस्पर्श करता है।

श्रमेण तपसा ब्रह्मणा वित्त ऋते श्रिताः .... अथर्ववेद 12//5/1

सुविदित ही है कि आलसी और निकम्मा व्यक्ति संसार में कुछ भी नहीं प्राप्त कर सकता है।यजुर्वेद में उल्लिखित है।मनुष्य तू कर्म का निष्पादन करता हुआ वर्षों तक जीवित रहने की अभिलाषा रख।कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः...... यजुर्वेद 40/2

श्रम के बिना विश्राम की परिकल्पना नितांत असंभव है।इसी कारण वैदिक ऋषि परिश्रमी व्यक्ति के मुखव्याजेन  उद्घोषणा करता है कि मेरे दाहिने हाथ में पुरुषार्थ है और बाएं हाथ में उत्कृष्ट सफलता।कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः..........अथर्ववेद 7/50/8

सफलता आस्वादन का मुख्य रहस्य कठोर परिश्रम ही है।राष्ट्र के नागरिक यदि परिश्रमी हैं तो उस राष्ट्र के उत्कर्ष को कोई चुनौती नहीं दे सकता है?आज भी विश्व में अनेक ऐसे राष्ट्र हैं जिन्होंने बहुत ही अल्पसमय में प्रकर्ष उत्कर्ष की गाथा स्वर्णाक्षरों में लिखी है।उत्कर्ष के मूल में विवेकपूर्ण कठोर परिश्रम है।यदि वहां के नागरिक कदाचित किसी विशेष संदर्भ में अपने राष्ट्रीय नेतृत्व से असहमति रखते हैं तो वे विरोधस्वरूप अपने हाथों में काली पट्टी धारण करेंगे,परन्तु अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्यों से वे कदापि विमुख नहीं होते हैं।हड़ताल के नाम पर जर्मनी और जापान देशों के नागरिक अपने राष्ट्र की प्रगति को रोकने में किसी भी कीमत पर सहभागी नहीं बनते हैं। वे राष्ट्रीय उन्नति में कभी भी बाधक नहीं बनते हैं।

श्रम और तप  का अर्थ है श्रम में तपस्या  की अनिवार्यता।महाभारत में तप का अन्वाख्यान कर्तव्यपालन से है। तपः स्वकर्मवर्त्तित्वम्।कर्म करते समय तप की भूमिका नींव में संस्थापित पत्थर सदृश है।चाणक्य के अनुसार इंद्रियों को वश में रखने का नाम तप है।तपः सारमिन्द्रियनिग्रहः।चाणक्यनीति

आचार्यशंकर तर्क और शास्त्र की अभिज्ञता से सदा वंदनीय हैं।वे जितं हि जगत् केन? मनो हि येन.....प्रश्नोत्तरी माध्यम से तप का माहात्म्य संदर्शित करते हैं।मन को नम किए बिना विश्वविजेता की संकल्पना उपहासास्पद होती है।

संसार की सार्वभौमिक सत्ता की स्वीकार्यता का अर्थ है अखिल विश्व के संचालक,जिसके अनुशासन में सम्पूर्ण जड़-चेतन अनुविद्ध है,उसके अनुशासन का उल्लंघन सर्वथा असंभव है।इस धारणा में प्रगाढ श्रद्धा ही अनौखी अनुभूति कारण बनती है-ईश्वरीय सार्वभौमिक सत्ता की स्वीकार्यता।यही आस्तिक हृदय की पहचान है।इस सत्ता की स्वीकार्यता ही व्यक्ति को अशुभता से सदा दूर रखती है।कर्मफल अवश्य ही सम्प्राप्त होते हैं-यह न्याय इस सत्ता का परम संज्ञान है।कोई भी जागरूक व्यक्ति कभी भी दुःख की कामना नहीं करता है।अशुभ कर्मों के परिणामस्वरूप दुःखों के भोग को रोकने में कोई भी शक्ति सक्षम नहीं है।आस्तिकहृदय कर्मपरिणाम को कभी विस्मृत नहीं करता है।इस अनौखी सीख की छाप सदा उसके अंतर्मन में रहती है।इसी अनौखी शिक्षा की स्पष्ट झलक छान्दोग्योपनिषद में मिलती है।आस्तिकमति से सम्पन्न राष्ट्रीयनेतृत्व के प्रतिनिधि महाराज अश्वपति की उद्घोषणा संवेदनापूर्ण सज्जनों को आज भी अनवरत आकर्षितकिए बिना नहीं रहती है।

न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः।नानाहिताग्निर्नाना विद्वान्न स्वैरी स्वैरिणी कुतः।।

राष्ट्र चेतना के संदेश वीरभोग्या वसुन्धरा को अनुप्राणित करने की सदा ही आवश्यकता रहती है।भूमि मांसदृश पुत्र की सभी इच्छाओं को सुफलित करने वाली होती है।वेद की ऋचा माता भूमि: पुत्रोSहं पृथिव्या: का उच्चारण इसी महत्ता की ओर संकेत करती है।इस राष्ट्र वैभव की सुरक्षा हेतु स्वयं की आहुति देने में कैसा भय? वयं राष्ट्रे जागृयामः पुरोहिता: और वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम... भी इसी भावना की जागृति में परम उद्दीपन हैं।

वेदों की समाज के संदर्भ में मौलिकता अवश्य ही आदरणीय है।ज्ञान-विज्ञान के कारण ब्राह्मण,शक्ति और साहस की प्रचुरता से क्षत्रिय, व्यापार में अनुष्ठानकौशल से वैश्य,सेवा की परम भावना से शुद्र,उत्तमप्रबंधन से नारीशक्ति, निर्भीक और बलवान संतति, दुधारू और पुष्ट गौएँ,द्रुतगति धारक अश्व,पर्याप्त भारसंवाहक वृषभ, अपरिमित हरीतिमा,रोगनाशक औषधि,पर्याप्त वर्षा,अतिवृष्टि और अनावृष्टि का सर्वथा अभाव तथा योग और क्षेम की उपलब्धि की कामना और प्रार्थना वेद की वैज्ञानिकता का व्यवस्थित चित्रण है।यजुर्वेद की यह मन्त्र साधना-आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतां.......योगक्षेमो न:कल्पताम् ....

यह सार्वकालिक और सार्वभौमिक कामना है।वेदों में उदात्त शिक्षा का संदर्शन,मानवीयवेदना और राष्ट्रीयचेतना के सूत्र पदे-पदे विद्यमान हैं।स्वामी दयानन्द सरस्वती का उद्घोष वेदों की ओर लौटो तथा वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।वस्तुतः वेदों की सार्वभौमिकता के परिचय कायह निदर्शन है।

वेदों में सोम तत्त्व शान्ति का परम दूत के रूप वर्णित है।सोम के महत् सामर्थ्य में ही विश्वशान्ति की स्थापना सन्निहित है। वैश्विकशान्ति विश्ववरणीय है और यही वैदिकसंस्कृति की सर्वोच्च प्राथमिकता भी।

अच्छन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य ............सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा.......यजुर्वेद 7/14

शान्ति की प्रार्थना पदे-पदे वेदों में उल्लसित है।शान्तिपाठ और शान्तिकरण के मन्त्र शान्ति की वैश्विक प्रासंगिकता की अपरिहार्य देशना है।द्युलोक के सूर्य, चंद्र और नक्षत्र शान्ति के सन्देशवाहक हैं।अंतरिक्ष जो वायु और वर्षा का स्रोत भी है वह शान्ति का मंगल गायक है।विविध ऐश्वर्यों से प्लावित यह पृथ्वी शान्ति की अधिष्ठात्री है।नदी की शीतल धारा तथा फूलों और फलों से संयुक्त वनस्पतियां भी शान्ति की ही स्वर लहरियां हैं।हरितिमा से समादृत पर्वतों के उत्तुंग शिखर और उत्ताल तरंगों से आपन्न समुद्र भी शान्तिगान के लयबद्ध और अनुशासित श्रोता हैं।

शान्ति की स्थापना के लिए साधन भी शान्ति पूर्ण हों।परस्परप्रेम, परस्परसहयोग,परस्परसंवाद और परस्परनिर्भरता ही सही अर्थों में वसुधा को कुटुंब बना सकती है।

आतंकवाद आज वैश्विक समस्या है। इस समस्या के समाधान में परम साधन और सामयिक आह्वान है वैदिक संस्कृति की शान्ति के बीजांकुरण की प्राकृतिकप्रक्रिया का अनुप्रयोग।तथापि कदाचित् कतिपय संगठन यदि आतंक की फसल पैदा करने में अति उत्साहित दिखे, तब सभी विकल्पों में शिष्ट और अन्यतम विकल्प शेष समर ही है।

उत्तिष्ठत संनह्यध्वमुदारा: केतुभिः सह।सर्पा इतरजना रक्षांस्यमित्राननु धावत।।अथर्ववेद 3/30/19

वीरपुत्रों का सुसज्जा के साथ आह्वान राष्ट्रध्वज के उन्नतभाव का प्रदर्शन,सर्पसदृश कुटिल और विषधरप्रवृत्ति वालों  ,विभेदकारी की मानसिकता से अतिरंजित आतंकी क्रियाओं के कारक असुरों पर तब प्रहार ही एकमात्र विकल्प शेष रहता है-असौ या सेना मरुतः परेषामस्मानैत्यभ्योजसा स्पर्धमाना।तां विध्यत तमसापवृतेन यथैषामन्यो अन्यं न जानात् ।।अथर्ववेद 8/8/24

हे वीरपुरुषो!हमारी ओर बढ़ने वाली आतंकवादी सेना की गति को निरुद्ध हेतु उसे तामस अस्त्र से भेदन कीजिए,ताकि इन्हें परस्पर के सम्बन्ध का विस्मरण हो सके और ये परस्परसंहार हेतु भी तत्पर हो जाएं-इमे जयन्तु परामी जायन्ताम्।अथर्ववेद 8/8/24

हमारे वीर विजयश्री का आलिंगन करें और आतातायियों का पराभव हो।वैदिकऋषि द्वारा युद्ध की भयंकरता वर्णन आधुनिक समय में उसकी शाश्वत चिन्तन की प्रासंगिकता को यथार्थ में परिभाषित करता है।

वृक्षे वृक्षे नियता मीमयद् गौस्ततो वयः प्रणतान् पूरुषाद:।

                 अथेदं विश्वं भुवनं भयात इन्द्राय सुन्वद् ऋषये च शिक्षत् ।। ऋग्वेद 10/27/22

आचार्य यास्क उक्त मन्त्र के व्याख्यान क्रम में वृक्ष का अर्थ धनुष, गौ का अर्थ प्रत्यञ्चा और वयः का अर्थ बाण करते हैं।भीषणसंग्राम के दौरान उभयपक्ष की सेनाएं अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित है।प्रत्येक सैनिक के धनुष पर चढ़ी प्रत्यञ्चा टंकार की भीष्म गर्जना के साथ नररक्तपिपासु बाण शत्रुदल का मर्दन कर रहे हैं।इस संहार लीला से समस्त भुवन संत्रस्त हो उठा है।इन्द्र विनाश के क्षणों को अवलोकन कर प्रभु से कातरस्वरों में प्रार्थना करने लगा। संहारकारक इस संग्राम को रोकना अति आवश्यक है।प्रभो! प्राणों के प्यासे मन में प्रेम की अविरल धारा प्रवाहित कीजिए।ऋषियों से भी अभ्यर्थना है कि आपकी देशना में युद्ध विराम की कामना हो।युद्ध की अनिवार्यता को अस्वीकारते हुए वैदिक ऋषि की पुकार अवश्य ही ध्यातव्य है।

प्रमुञ्च धन्वनस्त्वमुभयोरार्त्न्योर्ज्याम्।याश्च ते हस्त इषवः परा ता भगवो वप।।यजुर्वेद 16/9

हे राष्ट्रनायक!धनुष की दोनों कोटियों पर चढ़ी प्रत्यंचा विमुक्त कीजिए।युद्ध हेतु सन्नद्ध हाथों में रखे बाणों को पृथक् कर दीजिए।धनुष और बाण सभी तरह के अस्त्र-शस्त्रों के बोधक हैं।समर में जिस साधन से विनाशक तत्त्व को विमोचित किया जाए वह धनुष और संहारक तत्व बाण संज्ञक के रूप में लोक में प्रचलित है।मन्त्रार्थ का तात्पर्य सामरिक सज्जा के विराम की प्रासंगिकता को अवसर प्रदान करना।

मित्रत्व की संकल्पना में वैदिकसंस्कृति की अनूठी सन्देशना है-मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।। यजुर्वेद 36/18

मैत्री झलक से मुझे और मेरे प्रत्येक कलाप में अवलोकन की वांछा सभी मानवीय सत्ता से और उस सत्ता के प्रति मेरी चक्षुओं में भी मैत्री की ज्योति सदा अवलोकित रहे।यह भावना परिस्थितियों पर निर्भरता के अपेक्षा प्रेम की शाश्वत सत्ता के प्रति पूर्ण निष्ठा की गंभीर अभिव्यक्ति हो।प्रेम की उपासना में अलंकार की अभिव्यंजना के साथ जिस स्वाभाविक प्रवृत्ति के आश्रय से ग्रहण किया गया है,वह वैदिक मनोविज्ञान के उत्कर्ष का भी परिचायक है।

सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या।।अथर्ववेद 3/30/2

हृदय की सदाशयता, मन की पवित्रता और द्वैष विद्वैष की सर्वथा अनुपस्थिति की अवधारणा में नवजात गोवत्स के प्रति गोमाता के व्यवहार का आदर्शसंस्मरण भी अनौखी ऋषिप्रज्ञा का अनुपम उदाहरण है।

वैदिक संस्कृति की प्रयोगशाला का नाम यज्ञशाला है।ऋचाओं की अनुगूंज के साथ स्वाहाकार के क्रम में शाकल्य और घृत की आहुति गौण होते हुए भी पर्यावरण की शुद्धि में प्रधान हेतुकी है।प्रकृति में सर्वत्र यज्ञ विद्यमान है।रात्रि के बाद उषा, उषा के बाद सूर्योदय।भूमि द्वारा सूर्य की परिक्रमा, वर्षा, ऋतुचक्र, नवसंवत्सर आदि।वस्तुतः यह सब यज्ञ ही है।

छान्दोग्योपनिषद में मानवजीवन यज्ञ नाम से संकेतित है।पुरुषो वाव यज्ञ: ... 3/16

प्रातःसवन, माध्यन्दिनसवन और सायंसवन-मानवीय संकल्पों का यज्ञीय अनुष्ठान के साथ तादात्म्य भाव है।महिदास ऐतरेय ऋषि इसी यज्ञीयसाधना के अन्यतम अनुष्ठाता थे।

विशेष ध्यान के आकर्षण क्रम में वैदिक शब्द कोष निघण्टु में धन वाचक 28 शब्दों का संग्रह है। पाठान्तर दो शब्दों के जोड़ने पर 30 शब्द हो जाते हैं।निघण्टु में धन और लक्ष्मी पदों का संग्रह नहीं है, तथापि इन्हें सम्मिलित किये जाने पर 32 धन वाचक शब्दों से धन की महिमा का वेदों में बहुशः वर्णन है।वेदों में दरिद्रता और कंगाली को कोई स्थान नहीं है-वयं स्याम पतयो रयीणाम् । ऋग्वेद 4/50/6

रयि शब्द का बहुवचन प्रयोग द्योतक है बहुविध ऐश्वर्यों के स्वामी बनना।ऋग्वेदपरिशिष्ट के लक्ष्मीसूक्त में वर्णित है-प्रादुर्भूतोSस्मि राष्ट्रेSस्मिन् कीर्त्तिमृद्धिम् ददातु मे ।मन्त्र संख्या 7

राष्ट्र में जन्मग्रहण और उस राष्ट्र से यश और समृद्धि की अभिलाषा है।अन्न, वस्त्र,अलंकार,रजत, हिरण्य,पुत्र,कलत्र, रथ,गाय,अश्व,हाथी-सभी तरह के धन की आकांक्षा की गई है।परन्तु लक्ष्मी प्राप्ति में पापकर्म सर्वथा परिहेय है।

इन्द्र जिसे मघवा अर्थात् धनाधीश कहते हैं।उससे धन की प्रार्थना में उच्चरित मन्त्र-भूरिदा भूरी देहि नो दभ्रं भूर्याभर।ऋग्वेद 4/32/20

हे इन्द्र!भूरिदाता आप भूरिशः ऐश्वर्य की प्राप्ति में सहायक हों।स्वल्प नहीं बहुत अधिक लक्ष्मी की इच्छा है।अलक्ष्मी को काणी,विकटा एवं सदा रुलाने वाली कहकर पर्वत से टकराकर चूर-चूर होने की इच्छा व्यक्त की गई है।अरायिकाणे विकटे गिरि गच्छ सदान्वे।ऋग्वेद 10/155/1

वेद की प्रेरणा है लक्ष्मीवान होने के लिए।परन्तु भौतिक सम्पदा के अतिरिक्त महनीय सम्पदा अध्यात्म की प्राप्ति जीवन का परम उद्देश्य वांछनीय है।

                                     ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदु:।

  यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत् तद्विदुस्त इमे समासते ।।ऋग्वेद 1/164/39

ऋचाओं द्वारा उस परम अविनाशी सत्ता का स्तवन,जिसके अनुशासन में सभी देवगण रहते हैं।यदि उसे नहीं जान पाए तो फिर उसे ऋचा से क्या प्राप्त होगा।ऋचा की उपादेयता परम पद के दर्शन की अभिलाषा में समाधि को प्रमुखता देना है।समाधि के अन्वाख्यान में ऋग्वेदीय ऋषिचेतना की सीख अवश्य संज्ञेय है।

न दक्षिणा विचिकिते न सव्या न प्राचीनमादित्या नोत पश्च ।

               पक्या चिद् वसवो धीर्या चिद् युष्मानीतो अभयं ज्योतिरश्याम् ।। ऋग्वेद 2/27/11

न तो मुझे दक्षिण दिशा में ही कुछ दिख रहा है और न ही बायीं दिशा में।पूर्व दिशा में भी कुछ नहीं दिख रहा और न ही पश्चिम दिशा में।जान गया हूं कि मुझ में अपरिपक्वता की अपार त्रुटियां हैं बुद्धि अल्पता की भी भरमार है फिर भी आपके मार्गदर्शन से निर्मित ज्योतिष्पथ मुझ में अभयता का संचार करता है।समाधि के क्रम में मन और बुद्धि के प्रयोग की व्यापकता का वर्णन यजुर्वेद में है।

                  युञ्जते मन उत युञ्जते धियो  विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः।

   वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्महि देवस्य सवितु: परिष्टुतिः ।।यजुर्वेद 5/14,11/4,37/2

विप्रश्रेष्ठ विद्वान् विप्र के विप्र सवितादेव में मन समाहित करते हैं और बुद्धि को स्थिर करते हैं।सर्वव्यापी ईश्वर अकेले ही यज्ञों का धारण किये हुए है।महान सर्वज्ञ विप्रकृष्ट दिव्य स्रष्टा की महती महिमा है।इस मन्त्र में योग  के मूल सिद्धांत विद्यमान हैं।

भारतीय एवं पाश्चात्य ऐतिहासिक गवेषकों की स्पष्ट मान्यता है कि संसार की सबसे प्राचीन संस्कृति वैदिकसंस्कृति है।वैदिकसंस्कृति भारत की संस्कृति है।बड़े-बड़े झंझावातों ने इसे उखाड़ने की भरसक चेष्टा की थी।इसके सिद्धांतों को कई तरह से झकझोरा गया था।परंतु आश्चर्य है कि यह फिर भी मिट न सकी।विश्व के समस्त उत्थान और पतन की साक्षी रही है यह वैदिकसंस्कृति।प्राचीनसमय से ही वैदिकसंस्कृति की उदात्तशिक्षाएं अखिलविश्व के मार्गदर्शक की भूमिका में प्रतिष्ठित रही है।इस प्रतिष्ठित भूमिका से आह्लादित महर्षि मनु की उद्घोषणा हमारी समस्त  ऋषिचेतना के प्रति कृतज्ञतापूर्ण  अविस्मरणीय अभिव्यक्ति है।

एतद्देशप्रसूतस्य        सकाशादग्रजन्मनः ।

       स्वंस्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ।।मनु0 2/20 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

अष्टाध्यायी की कतिपय विशेषताएं


अष्टाध्यायी की कतिपय विशेषताएं      - डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा

 महर्षि पाणिनि का विश्व प्रसिद्ध महनीय ग्रंथ अष्टाध्यायी संस्कृतव्याकरण के नियमन में सर्वोच्च है। लौकिक और वैदिक दोनों तरह के शब्दार्थ बोधन में अव्याहत गति से पाणिनीय व्याकरण शास्त्र की उल्लेखनीय भूमिका यथावत विद्यमान है। अष्टाध्यायी के अर्थबोधन की महत्ता किसी वेद विशेष तक सीमित न रहकर प्रत्युत समस्त वेदसंहिताओं के रहस्यार्थप्रकटन में परम सहायक है। तभी तो महर्षि पतञ्जलि ने अष्टाध्यायी को सर्ववेद पारिषद शास्त्र 1 कहा है। प्रस्तुत शोधपत्र का प्रयोजन है जनसामान्य तक पाणिनि कृत अष्टाध्यायी की कतिपय उल्लेखनीय विशेषताओं की यथामति  विवेचना करना। 

महर्षिपाणिनि संस्कृतव्याकरणपरम्परा के आदि आचार्य नहीं हैं। वे व्याकरणपरम्परा के उत्कर्ष शिखरों में अन्यतम हैं। उनके भाषिकरहस्यों के नियमन के पीछे समृद्ध भाषा के अस्तित्व की सुदीर्घ परम्परा के प्रौढ़विमर्श का बहुत ही महनीय स्वरूप विद्यमान  था। भाषिकतत्त्वों की  विश्लेषणात्मक प्रवृत्ति का समग्र व्यापार अर्थात् भाषिकनियमों के ज्ञेय स्वरूप के समृद्ध समाधानात्मकशास्त्र व्याकरणशास्त्र  नाम से सुधी सम्प्रदाय में समादृत है।

पाणिनि के नियमप्रणयन में प्रचलित पध्दति के सर्वथा अस्वीकार्यता वाले मत के स्थान पर अधिक संगत और स्वयंपूर्ण पद्धति का सृजन अधिक दृढसंकल्पित है। पाणिनि ने पूर्व आचार्यों के पारिभाषिक पदों को यथासम्मान अपने ग्रंथ में स्थान दिया है। पाणिनि ने शाकल्य, आपिशलगार्ग्य, गालवभारद्वाज, कश्यप, शौनक, स्फोटायन और चक्रपाणि आदि आचार्यों का उल्लेख करके वैयाकरणों की परम्परा के प्रति अपना आत्मिक सम्मान व्यक्त किया है। पूर्व आचार्यों के मतोल्लेख के साथ ही अपनी विशेष शैली के अनुरूप उनकी परिभाषा के लिए नूतन आधार देने में पूरी प्रमाणिकता बरती है।

व्याकरणशास्त्र में भाषा की शुद्धता, विकृत भाषा के पुनः निर्मिति तथा च भाषान्तर पदों का पृथक्करण हेतु नियमविशेषों की संरचना का  मुख्यता  से स्थान देना होता है। तभी विश्लेषण को व्याकरण नाम से पुकारा जाता है। व्याक्रियन्ते निष्पाद्यन्ते शब्दा: अनेनेति तद्व्याकरणम् या फिर व्याक्रियन्ते Sसाधुशब्देभ्यः साधुशब्दा: पृथक्क्रियन्ते येन तद्व्याकरणम् इति,परिभाषा स्वीकृत है।

पाणिनि का प्रथम प्रतिज्ञा वाक्य  “अथ शब्दानुशासनम्”और “लक्ष्यलक्षणं व्याकरणम्”3 में अनुशासन और लक्षण दोनों ही पदों में प्रयुक्त करणार्थक ल्युट्प्रत्यय असाधु शब्दों से साधु शब्द अलग किए जाने वाले अर्थ में ही व्याकरण पद का प्रयोग सम्मान्य है। ऋग्वेदीय मन्त्र सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत0 4 में तितउ (चलनी) शब्द व्याकरण के इसी अर्थ में विवेच्य है। यथा चलनी  सक्तु को स्वच्छ करके अर्थात् भूसी का परिमार्जन करके सारभूत सत्तू को भक्षणीय बना देती है, ठीक वैसे ही व्याकरणशास्त्र भाषा से अशुद्ध शब्दों को परिमार्जित कर शुद्ध शब्दों के प्रयोग द्वारा भाषा को बोधगम्य बनाता है।

पाणिनीय व्याकरण की इस अवधारणा में प्रमाण हैं महर्षि पतंजलि का प्रकथन अवश्य संज्ञेय है। एकस्यैव शब्दस्य बहवोSपभ्रंशा: यथा गोशब्दस्य गावी गोणी गोता गोपितलिका इत्येवमादयः।5

व्याकरण की विशेषताओं के संदर्भ में एक बात बहुत अधिक ध्यान देने योग्य है कि व्याकरण प्रहरी की भांति भाषा की सुरक्षा में सदा सावधान की भूमिका सुस्थित रहता है। व्याकरण की यह नैसर्गिक प्रकृति भाषा को विकृत होने से एवं उसके अस्तित्व को कोई  हानि न पंहुचने में बहुत उपकारी है। इस लक्ष्य पर व्याकरण की प्रकृति विशेषतया सावधान रहती है, ताकि भाषा के स्वरूप में कोई मिलावट न हो पाए। यही प्रवृत्ति भाषा को अमरता प्रदान करती है। यद्यपि व्याकरण इस अपरिवर्तनीय प्रकृति को बहुत से भाषावैज्ञानिक भाषिकप्रवाह के क्रम के विकास में अवरोधक की भांति जटिल जकड़ वाली मजबूत पकड़ स्वीकारते हैं। उनकी यह धारणा नितान्त निर्मूल भी नहीं कही जा सकती है। एक समय संस्कृतभाषा लोकभाषा के रूप में जनसामान्य की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम रही है। लेखक की संस्कृतभाषा लोकभाषा के कालखण्ड पर सहमतिपूर्ण निष्ठा गुरूपरम्परा से अवच्छिन्न है। जनसामान्य की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम में व्याकरण की अत्यधिक निर्भरता, नियमातीत सहजबोध की स्वाभाविकप्रवृत्ति तथा व्याकरणात्मक अनुशासन की लाठी  के भय से दूर संस्कृतेतर भाषा को अपनाने में जरूर महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी। अस्तु!

व्याकरण का अन्यतम कार्य प्रकृति -प्रत्यय का व्युत्पादन अवश्य है। पाणिनि शब्दों के अव्युत्पन्नत्व पक्ष को भी पूर्ण सहमति देते हैं। इसीलिए प्रकृति-प्रत्यय के व्युत्पादन की विचारणा व्याकरण के परिचय कराने में तो समर्थ है लेकिन यह विचारणा महाभाष्य में व्याकरण के लक्षणत्व में स्वीकृत नहीं है।

विविध प्रत्ययों से निष्पन्न शब्दों की संख्या अनंत है। शब्दभण्डार की सम्पन्नता  में प्रकृतिप्रत्यय की भूमिका बहुत अधिक गरिमा पूर्ण है। महर्षि पाणिनि शब्दों के व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न उभयविध मतों के आग्रहरहित पक्षपाती हैं। व्युत्पन्न शब्द प्रत्ययान्त होते हैं। एक प्रकृति से विविध प्रत्यय जुड़ने पर शब्दभण्डार भी अधिक सम्पन्न होता है। व्युत्पत्तिक्रम को आदर देने वाले आचार्य पाणिनि समस्त शब्दों की व्युत्पन्नधर्मिता वाली मान्यता को अनुचित आग्रह मानते हैं। “अर्थवदधातुरप्रत्यय: प्रातिपादिकम्” 6 अव्युत्पन्न शब्दों की प्रातिपादिकता के लिए पाणिनि का यह सूत्र है। परन्तु व्युत्पन्न शब्द इस परिभाषा की परिधि में नहीं आते हैं। उनकी संज्ञा हेतु पाणिनि ने अन्य सूत्र “कृत्तद्धितसमासाश्च”7 का प्रणयन किया है। महर्षि शाकटायन के मत में सभी सभी शब्द व्युत्पन्न हैं। “तत्र नामानि आख्यातजानि इति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च’ 8 व्युत्पत्ति पक्ष के प्रथम आचार्य शाकटायन तथा अव्युत्पन्न पक्ष के प्रबल समर्थक आचार्य गार्ग्य दोनों ही पाणिनि से पूर्वकालिक हैं। “लङ: शाकटायनस्यैव” 9 और “ओतो गार्ग्यस्य” 10। इस तरह का वैचारिक संघर्ष पाणिनि के भी बहुत पहले से है। महर्षि पतञ्जलि भी अनेकों स्थलों पर आचार्यपाणिनि की इस मान्यता का समर्थन करते हुए दिखाई देते हैं-प्रातिपदिकविज्ञानाच्च भगवतः पाणिने: सिद्धम्। 11

वस्तुतः शब्दार्थ के अन्वेषण में प्रकृति और प्रत्यय के ज्ञान के साथ ही उनके अर्थ का भान भी आवश्यक है। यथा कारक आदि शब्दों में कृ प्रकृति तथा ण्वुल् प्रत्यय है। कृ प्रकृति का अर्थ करना और ण्वुल् प्रत्यय का अर्थ है कर्त्ता। अब कृ और ण्वुल् का अर्थ हुआ करने का कर्त्ता अर्थात् करने वाला।

महर्षिपाणिनि ने संस्कृत भाषा के परिष्कृतस्वरूप को सैद्धान्तिक आयाम देने के उद्देश्य से भाषिक तत्त्व के विभिन्न अवयव यथा अक्षरसमाम्नाय, पद, क्रिया,वाक्य,लिंग आदि के अन्तर्सम्बन्धों के संज्ञान हेतु अष्टाध्यायी की रचना की है। संस्कृत के विशाल कलेवर का समग्र विश्लेषण अष्टाध्यायी के सूत्रों में उपलब्ध है। पाणिनि की सूत्रशैली स्मृतिगम्य भी है। पाणिनि अपनी विश्लेषण प्रक्रिया वाली सूत्र शैली में अपने नवीन उपकरणों के अतिरिक्त अपने से पूर्व वैयाकरणों के उपकरणों को भी प्रयोग में लाते हैं। पाणिनि के अपने उपकरणों में शिवसूत्र महत्वपूर्ण उपकरणों में से एक है। शिवसूत्रों को ही माहेश्वर या प्रत्याहार सूत्र कहते हैं।

नृत्तावसाने  नटराजराजो  ननाद ढक्कां नवपंच वारम् । उद्धर्त्तुकामःसनकादिसिद्धानेतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्।। 12

 पाणिनि ने शब्दों के विश्लेषण हेतु लगभग चार हजार(3861)सूत्रों को वैज्ञानिकता के साथ अष्टाध्यायी में संकलन किया है। ये सूत्र गणितीय सूत्रों की भांति जटिल एवं विस्तृत सिद्धांतों का   अत्यंत सरलता से अवबोधन कराते हैं। अष्टाध्यायी भाषा के समस्त पहलुओं की विवेचना में अत्यंत उपकारी है। चतुर्दश माहेश्वरसूत्र (प्रत्याहारसूत्र) अष्टाध्यायी की लघुता और सरलता अध्येताओं के लिए सिद्धिदा के रूप में सदा स्मरणीया है। अष्टाध्यायी के इन चतुर्दश सूत्रों की प्रधान भूमिका के कारण ही पाणिनि ने शिव के आशीर्वाद से ही इनका प्रणयन अथवा प्राप्त किया है, यह लोक में माना जाता है। “अइउण्” 13 प्रथम प्रत्याहार सूत्र के व्याख्यानक्रम में आचार्य की यह प्रतिज्ञा कि वेदाङ्गरूप शिक्षा में जिस ह्रस्व अ को संवृत माना गया है उसे इस सम्पूर्ण व्याकरण शास्त्र में विवृत मानने की प्रतिज्ञा सभी तरह के संशयों को विराम और साथ ही अष्टाध्यायी के अन्तिम सूत्र “अ अ” 14 में पुनः विशेषतया संस्मरण कराना कि अ के विवृतत्व की लक्ष्मणरेखा यहीं तक है। अन्यत्र उसके संवृतत्व धर्म में कोई आपत्ति नहीं है । तभी तो ह्रस्व अ के सवर्णत्व के अतिरिक्त दीर्घसन्धि आदि कार्य निर्वाधतया निष्पन्न होते हैं।

अष्टाध्यायी के प्रथम सूत्र  “वृद्धिरादैच्” 15 में ऐच् प्रत्याहार है। प्रत्याह्रियन्ते संक्षिप्यन्ते वर्णा: येन तत् प्रत्याहारसूत्रम्। प्रत्याहार व्याकरणशास्त्र का एक पारिभाषिक पद है, जिसमें दो वर्णों की उपस्थिति होती है। प्रत्यहार के दो वर्णों में अन्त्य वर्ण सदा इन चतुर्दश सूत्रों के अंतिम वर्णों में से कोई एक अवश्य होता है। प्रत्याहार के दो वर्णों में पूर्व वर्ण इन चौदह सूत्रों का आदि या मध्य वाला वर्ण होता है। इन दो वर्णों से ही अक्, अण्, अच् आदि प्रत्याहार रूप बनते हैं। अक् अच् आदि प्रत्याहार अपने आदि और मध्य के वर्णों का भी बोधन कराते हैं। अन्तिम वर्णों की इत् संज्ञा होने के कारण उनका ग्रहण प्रत्याहारों में नहीं होता है। इस संदर्भ के नियामक हैं पाणिनीय सूत्रद्वय “आदिरन्त्येन सहेता” 16 एवं “हलन्त्यम् “ 17। महाभाष्यकार महर्षि पतंजलि की निम्न कारिका इस नियमन में प्रामाणिक समर्थन है।

प्रत्याहारेष्वनुबन्धानां कथमज्ग्रहणेषु न ।आचारादप्रधानात्वाल्लोपश्च बलवत्तरः ।। 18

अष्टाध्यायी के चतुर्दश प्रत्याहार सूत्रों में विद्यमान वर्ण संस्कृत भाषा की दृष्टि में अत्यन्त प्रामाणिक हैं। वर्णोच्चारण शिक्षा में इन वर्णों के जो भी उच्चारण स्थान एवं प्रयत्न नियत किए गए हैं वे नितान्त शुद्ध तथा आग्रह रहित हैं। शिक्षा और व्याकरण की परंपरागत रीति से उच्चरित शब्दों की साधुता में ही पाणिनि की मान्यता सर्वश्रेष्ठ है। अष्टाध्यायी के चौदह सूत्रों से पाणिनि 41+2=43 प्रत्याहारों को व्यवहार में लाए हैं। अष्टाध्यायी के 41 प्रत्याहारों के अतिरिक्त दो प्रत्याहारों  का भी प्रयोग होता है-एक औणादिक “ञमान्ताड्ड:” 19 से ञम् एवं द्वितीय “चयो द्वितीय: शरि पौष्करसादे:” 20 वार्त्तिक से चय् ।

सूत्र के लक्षण की मानकता पाणिनिकृत अष्टाध्यायी के सूत्रों में पूर्णतया घटित होती है। सूत्र के  लक्षण का स्वरूप अवश्य संज्ञेय है।

अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद्विश्वतोमुखम् ।अस्तोभमनवद्यञ्च च सूत्रं सूत्रविदो विदुः।। 21

अल्पक्षरता=संक्षिप्तता अर्थात् न्यूनातिन्यून अक्षरों की विद्यमानता, असन्दिग्धता=सन्देहहीनता संदेहास्पद ज्ञान का नितराम् अभावता,सारतत्त्वों की सार्वभौमिकता से समादृत, नाना विद्या के अर्थों की विज्ञापिका, स्तोभतारहित=विरोधहीनता तथा सर्वथा अनवद्य=निर्दोषता वाली शब्दराशि को सूत्र कहा जाता है।अष्टाध्यायी में सूत्रों के प्रकार-

संज्ञा च परिभाषा च विधिर्नियमेव च ।अतिदेशोSधिकारश्च षड्विधं सूत्रमुच्यते ।। 

लेखक अष्टाध्यायी के सूत्रों के नौ प्रकार गुरुपरम्परा से मानता है। अष्टाध्यायी के सूत्रों के भेद क्रम में निषेध, निपातन और प्रत्याहार का भी बहुत महत्त्व है।

हमारे दादागुरु पदवाक्यप्रमाणज्ञ पंडित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी प्रथमावृत्ति के प्राक्कथन में लिखते हैं-अष्टाध्यायी का गौरव न केवल हम ही घोषित करते हैं अपितु भगवान् पतञ्जलि भी आचार्य पाणिनि का महान् गौरव मुक्तकण्ठ से प्रदर्शित करते हैं।

विदितवेदितव्य है कि ऋषिपाणिनि की कृति अष्टाध्यायी के सूत्रों में एक भी वर्ण ऐसा नहीं है जिसे अनर्थक अथवा सदोष माना जा सकता है। फिर पदों की अनर्थकता की क्या चर्चा? प्रमाणभूत आचार्यो दर्भपवित्रपाणि: शुचावकाशे प्राङ्मुख उपविश्य महता प्रयत्नेन सूत्राणि प्रणयति स्म। तत्राशक्यं वर्णेनाप्यनर्थकेन भवितव्यम्, किं पुनरियता सूत्रेण। 22 कुछ इसी तरह से अन्यत्र भी इसका समर्थन प्राप्त है- सामर्थ्ययोगानन्न हि किंचिदत्र पश्यामि शास्त्रे यदनर्थकं स्यात् ।23 शास्त्र के सामर्थ्य से मैं इस शास्त्र में कुछ भी ऐसा नहीं देखता जो अनर्थक हो।

जयादित्य “उदक् च विपाशः”24 सूत्र में कहता है-“ महती सुक्ष्मेक्षिका वर्त्तते सूत्रकारस्य” सूत्रकार पाणिनि की अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि है।

पाश्चात्य विद्वान् मोनियर विलियम अति आदर के साथ महर्षि पाणिनि के संदर्भ में कहता है-“संस्कृत का व्याकरण (अष्टाध्यायी ग्रन्थ) मानव मस्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम भाग है, जो कि मानव मस्तिष्क के सामने आया है।“

हंटर ने कहा है-“ मानव मस्तिष्क का अतीव महत्वपूर्ण आविष्कार यह अष्टाध्यायी है।“

लेनिन ग्राड के प्रो.टी.वात्सकी कहते हैं-“मानव मस्तिष्क की यह अष्टाध्यायी सर्वश्रेष्ठ रचना है।“ 

महर्षिपाणिनि की सूत्रप्रणयन शैली में मानव मस्तिष्क की सर्वोच्चता का भान पदे -पदे शब्दविदों को दृष्टिगत होता है। वैयाकरण परिवार में अर्धमात्रा के लाघव की पुत्रोत्सव जैसे महोत्सव से तुलना की जाती है। “अर्धमात्रालाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः” 25 समस्त विश्व आज भी पाणिनि के लाघव एवं सारगर्भित विश्वतोमुख सूत्रों की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहा है।

अष्टाध्यायी का कलेवर आठ अध्यायों तथा प्रत्येक अध्याय में चार -चार पादों के होने से बत्तीस पादों से अलंकृत है। अष्टाध्यायी26 में सूत्रों की संख्या 3861 है। अष्टाध्यायी का परिमाण एक सहस्र अनुष्टुप्छन्द के श्लोकों वाला है।प्रत्येक पाद में सूत्रों का प्रणयन बहुत ही वैज्ञानिकता से किया गया है। इसी वैज्ञानिक क्रम का वैशिष्ठ्य है कि ‘सूत्रों का अधिकार’ और ‘पदों की अनुवृत्ति’ ‘उत्तर सूत्रों’ में जाती है।

सूत्रव्याख्यान में कतिपय उदाहरण द्वारा इस वैज्ञानिकक्रम की कितनी महती भूमिका है? यह स्पष्ट हो जाएगी। अवलोकन कीजिए -क्रमशः “वृद्धिरादैच्“27 “आद्गुणः”28 “इको गुणवृद्धी”29 “न धातुलोप आर्धधातुके”30 “क्किङ्ति च”31 ये पांच सूत्र अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के प्रारंभ में हैं। चतुर्थ सूत्र न धातुलोप आर्द्धधातुके में तृतीय सूत्र  इको गुणवृद्धी के समस्त पदों की अनुवृत्ति आ रही है। अर्थात् चतुर्थ सूत्र के व्याख्यान के लिए तृतीय सूत्र के सभी पदों की उपस्थिति परम आवश्यक है। धातुलोपे (धातोरवयवस्य लोपे) आर्द्धधातुके परतः इकः स्थाने गुणवृद्धी न भवतः। इसी भांति पंचम सूत्र क्किङ्ति च में सम्पूर्ण तृतीय सूत्र इको गुणवृद्धी की अनुवृत्ति और चतुर्थ सूत्र से निषेधार्थक न अनुवृत्त होता है। पंचम सूत्र के व्याख्यान में पद योजना का स्वरूप अवश्य ज्ञेय है- क्किङ्ति च =क्किङ्ति ( गश्च कश्च ङश्च इति क्ङ् इतो यस्य स क्ङ्गित् तस्मिन् परतः गुणवृद्धी न भवतः।

सूत्रों के अर्थोद्घाटन में वैज्ञानिक क्रम की महत्ता के साथ सूत्रस्थ पठित पदों में विद्यमान विभक्ति की भी महती भूमिका है। विशेषतया विभक्तियां हैं पञ्चमी = उत्तरस्य, सप्तमी =तस्मिन् परतः, षष्ठी =तस्य स्थाने और प्रथमा = भवति , इन चारों विभक्तियों का यही अर्थ अधिकतर अष्टाध्यायी में घटित होता है। अष्टाध्यायी की सरलता से अर्थ विवृत्ति में यह सर्वोच्च विशेषता है। सूत्रों में अंतर्निहित अर्थ इस वैज्ञानिक क्रम के आधार पर स्वयं विवृत्त हो जाता है। इसके लिए कहीं अन्यत्र अन्वेषण की आवश्यकता नहीं है।

सूत्रेष्वेव हि तत्सर्वं यद्वृत्तौ यच्च वार्त्तिके।सूत्रयोनिरिहार्थानां सुत्रे सर्वं प्रतिष्ठितम् ।।“32

अर्थात् वृत्ति और वार्त्तिक में जो कुछ है वह सब सूत्रों में पहले से विद्यमान है। अनुवृत्ति के क्रम यह तत्त्व विशेषतया बोधनीय है कि प्रायः सूत्र की अर्थयोजना के समय सजातीय पद अनुवृत्त नहीं होते हैं । क्किङ्ति च सूत्र में क्किङ्ति के सप्तम्यन्त पद होने से धातुलोपे और आर्द्धधातुके सप्तम्यन्त पदों की उक्त सूत्र में अनुवृत्ति नहीं आती है। यदि कदाचित् किसी सूत्र में सजातीय पद की अनुवृत्ति लानी होती है तो उस सूत्र में “च” पद अवश्य पठित होगा। उदाहरणार्थ “लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्य:” 33 प्रकृत सूत्र में च पद की विद्यमानता ही कर्त्तरि की अनुवृत्ति में हेतु है। कौनसे सूत्र का अधिकार या फिर सूत्रस्थ पदों की अनुवृत्ति उत्तर के सूत्रों तक जाएगी? इसके नियमन के लिए “स्वरितेनाधिकार:” 34 इस सूत्र का आचार्य पाणिनि ने प्रणयन किया है। अर्थात् स्वरितधर्म विशिष्ट पद अथवा समस्त सूत्र की अनुवृत्ति उत्तर सूत्रों तक जाती है। स्वरितधर्मिता के अवबोधन में महाभाष्य का वचन “यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्” 35 परम सहायक है। महाभाष्यकार के प्रामाण्य में सूत्रकार और वृत्तिकार दोनों की सम्मति सम्प्राप्त है। सूत्रकार पाणिनि, वार्त्तिककार कात्यायन एवं भाष्यकार पतञ्जलि को व्याकरण शास्त्र के त्रिमुनि कहा जाता है।

प्रकृत प्रकरण में विशेषतः उल्लेखनीय है कि कहीं -कहीं सूत्रों की आवृत्ति से दो-दो अर्थ भी किए जाते हैं । तद्यथा “षष्ठी स्थानेयोगा” 36 सूत्रार्थ एक प्रकार व्याकरण शास्त्र में जिन षष्ठी का सम्बन्ध (अर्थ)कहीं नही ज्ञात होता हो वहां स्थान के साथ सम्बन्ध रूप अर्थ समझा जाए। तथा दूसरा अर्थ है यतः और सा पदों के अध्यहार से यतः षष्ठी सा स्थाने योगा , निर्दिश्यमानस्यादेशा भवन्ति ,निर्दिश्यमान का ही आदेश होते हैं । यह समस्त चर्चा इसी सूत्र के भाष्य में पतञ्जलि ने की प्रस्तुत की है।

अष्टाध्यायी के प्रथम और द्वितीय अध्याय में संज्ञा और परिभाषा सूत्रों की प्रस्तुति है। शास्त्र विशेष के अध्ययन में उन संज्ञाओं और परिभाषाओं के परिचय के बिना उस शास्त्र में प्रवेश असंभव है। संक्षिप्तता के लिए अनेक उपाय हैं। व्याकरणात्मक नियमावबोधन हेतु संज्ञा और परिभाषा की आवश्यकता होती है। प्रथम और द्वितीय अध्याय में संज्ञाप्रकरण  के अंतगर्त  प्रत्याहार, वृद्धि, गुण,संयोग , अनुनासिक, आत्मनेपद ,परस्मैपद , कारक ,विभक्ति, समास आदि है। कारकतत्त्व के अध्ययन से वाक्यार्थ का अवबोधन सुगमता से होता है। यथा ओदनं पचति प्रस्तुत वाक्य में ओदन पदार्थ की कर्म संज्ञा “कर्त्तुरीप्सिततमं कर्म” 37 सूत्र से है। सूत्रार्थ को समझने से पहले यह अवश्य ज्ञेय है कि धात्वर्थ फल और व्यापार हैं। फल( क्रिया से उत्पन्न परिणाम) का आश्रय कर्म और व्यापार (क्रिया/चेष्टा) का आश्रय कर्त्ता होता है। अतः सूत्रार्थ होगा कर्त्ता में रहने वाली क्रिया से उत्पन्न होने वाले फल के आश्रय रूप से जो विवक्षित है उसकी कर्म संज्ञा होती है। यहां पर ध्यान देने योग्य विचार यह है कि कर्त्ता और क्रिया के ज्ञान होने पर ही ही उस क्रिया से उत्पन्न फल के आश्रय का ज्ञान सम्भव है और तभी उसकी कर्म संज्ञा निष्पन्न होगी। अभी जिस ओदन की कर्म संज्ञा की जारही है वह तो अभी बना ही नहीं है। क्रियाजन्य फल के आश्रयरूप ओदन को कैसे माना जाए? अतः यह स्पष्ट है कि पाणिनि को बुद्धि में स्थित संस्कार रूप ओदन की कर्म संज्ञा अभिप्रेत है।

द्वितीय अध्याय में समाससंज्ञा प्रकरण में वृत्ति का एकभेद समास है। “परार्थाभिधानं वृत्ति:” 38  कृत्, तद्धित, समास,एकशेष और सनाद्यन्त हैं। सभी वृत्तियों में एकार्थी भाव रहता है। परन्तु समास में व्यपेक्षाभाव सामर्थ्य रहता है। परस्पर की अपेक्षा या आकांक्षा आदि से सम्बद्ध परस्पर अर्थबोधन में समर्थ व्यपेक्षाभाव कहलाता है। अव्यय लक्षण के साथ नित्य निर्विकार शब्द ब्रह्म का लक्षण भी सम्प्राप्त है। अनेकता में एकत्व की प्रवृत्ति निमित्तिका जाति का भी अवबोधन होता है।

तृतीय अध्याय के  “प्रत्यय:”39  प्रथम सूत्र का अधिकार पंचम अध्याय की परिसममाप्ति तक है। तृतीय अध्याय में धातु (प्रकृति ) से परे तिङ् और कृत् प्रत्ययों का निदर्शन है। चतुर्थ अध्याय और पंचम अध्याय में प्रातिपादिक (प्रकृति) के बाद जुड़ने वाले प्रत्ययों में स्त्री प्रत्यय और तद्धित प्रत्ययों की चर्चा है। तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायों में सब प्रकार के प्रत्ययों का विधान है। तीसरे अध्याय में धातुओं में प्रत्यय लगाकर कृदंत शब्दों का निर्वचन है और चौथे तथा पाँचवे अध्यायों में संज्ञा शब्दों में प्रत्यय जोड़कर बने नए संज्ञा शब्दों का विस्तृत व्युत्पत्तिक्रम बताया गया है। ये प्रत्यय जिन अर्थविषयों को प्रकट करते हैं उन्हें व्याकरण की परिभाषा में वृत्ति कहते हैं, जैसे वर्षा में होनेवाले इंद्रधनु को वार्षिक इंद्रधनु कहेंगे। वर्षा में होनेवाले इस विशेष अर्थ को प्रकट करनेवाला "इक" प्रत्यय तद्धित प्रत्यय है। प्रकृति से परे प्रत्ययों का विधान दार्शनिक परम्परा का अनुमोदन है। प्रत्यय (ज्ञेय) शब्दब्रह्म है। वह सर्वथा प्रकृति से परे है।

छठे, सातवें और आठवें अध्यायों में उन परिवर्तनों का उल्लेख है जो शब्द के अक्षरों में होते हैं। ये परिवर्तन या तो मूल शब्द में जुड़नेवाले प्रत्ययों के कारण या संधि के कारण होते हैं। द्वित्व, संप्रसारण, संधि, स्वर, आगम, लोप, दीर्घ आदि के विधायक सूत्र छठे अध्याय में आए हैं। षष्ठ अध्याय में द्वित्व, सन्धि और वैदिकस्वर विधायक सूत्रों का संकलन हैं। सन्धि कार्य में एक लौकिक व्यवहार के दर्शन होते हैं। सन्धि अर्थात् मित्रता । मिलकर पार जाने की भावना। सन्धि कार्य में पूर्व और पर दोनों ही वर्ण मिल कर अपने स्वरूप का त्याग कर नूतन स्वरूप धारण करते हैं। उदाहरणार्थ गण + ईश=गणेश यहां अ और ई ने अपने स्वरूप का त्याग कर ए रूप को अपनाया है।

इस अध्याय में आगे उदात्त ,अनुदात्त और स्वरित स्वरों की चर्चा प्रधानता से की गई है। स्वर प्रक्रिया सम्बन्ध वैदिक संस्कृत से है। षष्ठ अध्याय के चतुर्थ पाद में अंगाधिकार प्रारम्भ होकर सप्तम अध्याय की परिसममाप्ति तक जाता है। अंगाधिकार नामक एक विशिष्ट प्रकरण है जिसमें उन परिवर्तनों का वर्णन है, जो प्रत्यय के कारण मूल शब्दों में या मूल शब्द के कारण प्रत्यय में होते हैं। ये परिवर्तन भी दीर्घ, ह्रस्व, लोप, आगम, आदेश, गुण, वृद्धि आदि के विधान के रूप में ही देखे जाते हैं। अष्टम अध्याय में, वाक्यगत शब्दों के द्वित्वविधान, प्लुतविधान एवं षत्व और णत्वविधान का विशेषत: उपदेश है।

अष्टम अध्याय मैं भी द्वित्व-संधि, षत्व, जशत्व, कुत्व, चत्व आदि विविध कार्यों का निदर्शन है। इसी अध्याय में पदाधिका एवं तिङ्न्त स्वर का भी निरूपण है सब के। अंत में महर्षि पाणिनि ने “अ अ” सूत्र से “विवृत अ” के स्थान पर “संवृत अ“ का विधान किया है । अ परमात्मा का वाचक शब्द परमात्मा का वाचक है। अ शब्द का दो बार उच्चारण परम मंगल की सूचना है तथा पूर्व के समस्त प्रकरणों को उद्देश्य करके अ शब्दार्थ के विधेयत्व का भी संसूचक है। इस तरह संपूर्ण व्याकरण शास्त्र शब्दब्रह्म स्वरूप परमात्मा की भी सिद्धि है। आचार्य भर्तृहरि ने भी कहा है।

तस्माद्यः शब्दसंस्कारः सा सिद्धि:परमात्मनः।तस्य प्रवृत्तितत्त्वज्ञ: स ब्रह्मामृतमश्नुते ।।40

अष्टाध्यायी के कतिपय सूत्रात्मक नियमों के चमत्कारिक प्रदर्शन उल्लेखनीय है।यथा बाध्यबाधकभाव की सदृष्टान्त प्रस्तुति। सूत्रार्थ इस प्रयोग में सूत्र + अर्थ इस स्थिति में “आद्गुणः” 41 से गुण तथा “अक: सवर्णे दीर्घ:” 42से दीर्घ कार्य प्राप्त है। अब इस अवस्था में गुण कार्य हो या फिर दीर्घ। इस तरह की जिज्ञासा के समाधान के लिए आचार्यपाणिनि ने “विप्रतिषेधे परं कार्यम्”43सूत्र का नियमन किया है। अष्टाध्यायी में गुणविधायक सूत्र से दीर्घ विधायक सूत्र परत्व के कारण स्वीकार्य है। इसी तरह लक्ष्मीश: के प्रयोग में” इको यणचि” 44 से होने वाले यण् कार्य को दीर्घविधायक सूत्र बाधित कर देता है।

आचार्यपाणिनि ने अष्टाध्यायी को दो भागों में विभाजित किया है। प्रथम अध्याय से लेकर आठवें अध्याय के प्रथम पाद तक को सपादसप्ताध्यायी एवं शेष तीन पादों को त्रैपादिक कहा जाता है। “पूर्वत्रासिद्धम्”45 सूत्र भी बाध्यबाधक भाव के निर्णय में सहायक होता है। सपादसप्ताध्यायी मे विवेचित नियमों की तुलना में त्रिपादी में वर्णित नियम असिद्ध हैं। जैसे मनोरथ: इस प्रयोग मनस्+रथः इस स्थिति में सकार को “स सजुषो रु:” 46 सूत्र से रु आदेश होने पर मनस्+रथः इस स्थिति में “हशि च” 47 सूत्र से रु के स्थान पर उकार प्राप्त होता है और “रो रि” 48 सूत्र से रेफ का लोप । अब प्रश्न उठता है कि यहां पर कौनसा नियम काम करेगा? “विप्रतिषेधे परं कार्यम्” नियम से परत्व का विचार करते हुए रेफ के लोप का निर्णय मान्य हो सकता है। क्योंकि “रोरि” सूत्र “हशि च” के बाद आता है। परंतु “पूर्वत्रासिद्धम्” सूत्र ने उच्च न्यायालय की तरह विप्रतिषेधे परं कार्यम् के विपरीत निर्णय दिया है।क्योंकि सवा सात अध्याय में पठित “हशि च” सूत्र के प्रति त्रिपादी में पठित “रोरि” सूत्र असिद्ध माना जाता है। इसीलिए पूर्व निर्णय को निरस्त कर “हशि च” सूत्र से रु के स्थान पर उकार आदेश हो गया है और ”आद्गुणः” गुण होकर मनोरथ शब्द निष्पन्न होता है।

पाणिनीय व्याकरण में सर्वोच्च न्यायालय सदृश निर्णायक क्षमता वाला नियम है ”असिद्धं बहिरंगमन्तरंगे” 49 है। उदाहरणार्थ सुद्ध्युपास्य: में “संयोगान्तस्य लोपः” 50 से यकार का लोप प्राप्त है। परन्तु उपरोक्त परिभाषा ने अन्तरंग लोपशास्त्र की कर्तव्यता में बहिरंग यण् शास्त्र को असिद्ध कर दिया है। यद्यपि पूर्वत्रासिद्धम्  से विपरीत यह निर्णय है, क्योंकि यण् शास्त्र सपाद सप्त अध्याय में है। उसके प्रति त्रैपादिक लोप शास्त्र असिद्ध है। अन्तरंग के निर्णय का सम्मान पूर्वत्रासिद्धम् करना पड़ता है। भाष्यकार पतञ्जलि ने कहा है- “यण: प्रतिषेधो वाच्य: न वा झलो लोपाद् बहिरंगलक्षणत्वादिति” 51 यह परिभाषा “वाह ऊठ्” 52 सूत्र के ऊठ् ग्रहण के कारण महर्षि को अभिप्रेत ज्ञात होता है।

देवान् नमस्करोति  में “नमःस्वस्तिस्वाहास्वधालं0 53 सूत्र से चतुर्थी और “कर्त्तुरीप्सिततमं कर्म” 54 सूत्र से कर्म कारक के कारण “कर्मणि द्वितीया” 55 सूत्र से द्वितीया विभक्ति प्राप्त है। “विप्रतिषेधे परं कार्यम्” 56 नियम से चतुर्थी होनी चाहिए। परन्तु “उपपदविभक्ते: कारक- विभक्तिर्वलियसी”57 परिभाषा ने उपपद विभक्ति को बाधित कर कारकविभक्ति  अर्थात् द्वितीया विभक्ति का प्रबलता से नियमन कर दिया है।

पाणिनीय व्याकरण का हृदय है स्फोटवाद । स्फोटवाद मतलव शब्दनित्यत्ववाद। यद्यपि स्फोटवाद की अष्टाध्यायी में प्रत्यक्षतः चर्चा नहीं है तथापि अष्टाध्यायी के अनेक अंशों से यह सिद्धान्त प्रकट होता है। एक उल्लेखनीय अंश “अर्थवदधातुरप्रत्यय: प्रातिपादिकम्” 58 है। प्रातिपादिक को परिभाषित करते हुए धातु भिन्न प्रत्यय भिन्न प्रत्ययान्त भिन्न जो अर्थ बोधक है उसे प्रातिपादिकसंज्ञा कहते हैं। यहां अर्थबोधक शब्द से तात्पर्य है अर्थ निरूपित वृत्तिरूप सम्बन्ध वाला शब्द ।यथा “कृष्ण” शब्द धातु आदि से भिन्न होते हुए भी वसुदेवापत्यरूप अर्थ से निरूपित शक्ति (वृत्ति) वाला है। अतः कृष्ण की प्रातिपादिक संज्ञा हुई है। विचारणीय है कि वसुदेवापत्य रूप अर्थ से निरूपित शक्ति (सम्बन्ध) का आश्रय कौन है? यदि क्,,ष्,ण्,अ इन पांचों वर्णों से प्रत्येक वर्ण कृष्ण अर्थ का आश्रय है तो यह पक्ष सम्भव नहीं है। फिर पांच वर्णों से पांच बार कृष्ण अर्थ का बोध होने लगेगा, जोकि अनुभव जन्य नहीं है। उच्चरित होकर नष्ट होना वर्णों का धर्म है, ऐसी स्थिति में वर्णों का समुदाय कैसे बनेगा? अतः समुदाय भी शक्ति का आश्रय नहीं हो सकता है। अतः इन ककार आदि ध्वनियों से अभिव्यक्त होने वाली कोई एक नित्य वस्तु होनी चाहिए। वही शक्ति का आश्रय है। यह औपाधिक चिद्रूप आत्मा है जो स्फोट शब्द से व्याकरणज्ञों द्वारा व्यपदेश्य है। यही अनौपाधिक रूप परा शब्द से ज्ञात होता है।यही “वाग्वै ब्रह्म” 59 श्रुति का संदेश भी है। भर्तृहरि ने भी कहा है- जो भेद क्रम आदि से रहित, सूक्ष्म, अविनाशिनी केवल स्वप्रकाशरूप ज्योति, जो कि सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त है, उसे पश्यन्ती कहते हैं।

अविभागात्तु पश्यन्ती सर्वतः संहृतक्रमः ।स्वरूपज्योतिरेवान्तः सूक्ष्मा वागनपायिनी ।।60

व्याकरण के अनुसार सारे सुखों का मूल, समस्त विवादों और दुखों का समाधान समन्वय है। प्रत्येक शब्द में, प्रत्येक अणु और परमाणु में स्फोट और ध्वनि का समन्वय है, प्रकृति और प्रत्यय का समन्वय है। इसी समन्वय के आधार पर प्रत्येक अर्थ, प्रत्येक सृष्टि का कार्य होता है। जब भी दोनों में से एक भी उपेक्षित होगा, वहीं से वाद-विवाद, विरोध और संघर्ष प्रारंभ होता है। इसीलिए व्याकरण की अहम्मान्यता है- न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या नापि केवलः प्रत्ययः ।  न केवल प्रकृतिवाद को मुख्यता देनी चाहिए और न ही केवल प्रत्ययवाद को प्रमुखता देनी चाहिए। मात्र भौतिकवाद का व्यवहार या फिर मात्र अध्यात्मवाद का प्रयोग और न मात्र ज्ञानमार्ग का या केवल कर्ममार्ग का प्रयोग नितान्त अव्यावहारिक है। “न लोकाद् भिद्यते व्याकरणम्’ पतञ्जलि का यह महावचन पदे-पदे व्याकरण की प्रासंगिकता का निदर्शन है। प्रत्येक वाद, सिद्धान्त और मन्तव्य के प्रयोग में व्याकरण के समन्वयवाद की संकल्पना समाज के लिए महत्वपूर्ण योगदान है।

पाणिनीय व्याकरण नीरस होते हुए भी सबसे अधिक सरस है। इसमें निर्लेपता , निष्पक्षता और सत्यता की त्रिवेणी है। तभी तो अप्रिय होते हुए भी सर्वप्रिय है। निवार्य होते हुए भी अनिवार्य है। व्याकरण होते हुए भी दर्शन और साहित्य है। ध्वनि होते हुए भी स्फोट है। अभिधा होते हुए भी व्यञ्जना है। द्वन्द्व (विवाद) में समाहार (एकत्व)सिखाता है। व्यपेक्षाभाव (परस्परनिर्भरता) समास के साथ एकार्थीभाव (एक उद्देश्यता) समास सिखाता है। विग्रह में सन्धि सिखाता है। आकृति के साथ द्रव्य को पदार्थ मानना सिखाता है। भौतिकवाद के साथ ही आत्मवाद और ब्रह्मवाद की शिक्षा देता है।

व्याकरण शब्द और अर्थ दोनों को ब्रह्म मानता है। शब्दतत्त्व के संरक्षण हेतु अर्थतत्व है। दोनों का समन्वय करना सीखना ही ज्ञान और विज्ञान है। तभी तो कहा है महर्षि पतञ्जलि ने – “शब्दब्रह्मणि निष्णात: परं ब्रह्माधिगच्छति।“

फुट नोट्स

1-      “सर्ववेदपारिषदं हीदं शास्त्रम्, तत्र नैकः पन्थाः शक्य आस्थातुम् “ महाभाष्य 2/1/58

2-      अष्टाध्यायी 1/1

3-      महाभाष्य 1/1पस्पशाह्निक

4-      ऋग्वेद 10/71/02

5-      महाभाष्य 1/1पस्पशाह्निक

6-      अष्टाध्यायी 1/2/45

7-      अष्टाध्यायी 1/2/46

8-      निरुक्त 1/4

9-      अष्टाध्यायी 3/4/111

10-   अष्टाध्यायी 8/3/20

11-   महाभाष्य 7/1/2

12-   नंदिकेश्वर काशिका

13-   अष्टाध्यायी प्रत्याहार सूत्र-1

14-   अष्टाध्यायी 8/4/67

15-   अष्टाध्यायी 1/1/1

16-   अष्टाध्यायी 1/1/70

17-   अष्टाध्यायी 1/3/3

18-   महाभाष्य 1/1/21

19-   उणादिकोष 1/114

20-   वा0 8/4/47

21-   0 शे0/टीका/अभि.च./संज्ञाप्रकरण

22-   महाभाष्य 1/1/1

23-   महाभाष्य 6/1/77

24-   अष्टाध्यायी 4/2/74

25-   परिभाषेन्दुशेखर 3 प्रकरणान्त्या

26-   पाणिनीय: अष्टाध्यायीसूत्रपाठः श्रीरामलालकपूरट्रस्ट रेवली सोनीपत

27-   अष्टाध्यायी 1/1/1

28-   अष्टाध्यायी 1/1/2

29-   अष्टाध्यायी 1/1/3

30-   अष्टाध्यायी 1/1/4

31-   अष्टाध्यायी 1/1/5

32-   तन्त्रवार्त्तिक 2/3/11

33-   अष्टाध्यायी 3/4/69

34-   अष्टाध्यायी 1/3/11

35-   महाभाष्य 1/1/4

36-   अष्टाध्यायी 1/1/48

37-   अष्टाध्यायी 1/4/49

38-   महाभाष्य 2/1/1

39-   अष्टाध्यायी 3/1/1

40-   वाक्यपदीयम् 1/132

41-   अष्टाध्यायी 6/1/84

42-   अष्टाध्यायी 6/1/97

43-   अष्टाध्यायी 1/4/2

44-   अष्टाध्यायी 6/1/74

45-   अष्टाध्यायी 8/2/1

46-   अष्टाध्यायी 8/2/66

47-   अष्टाध्यायी 6/1/110

48-   अष्टाध्यायी 8/3/14

49-   परिभाषेन्दुशेखरपरिभाषा 51

50-   अष्टाध्यायी 8/2/33

51-   परिभाषेन्दुशेखरपरिभाषा

52-   अष्टाध्यायी 6/4/132

53-   अष्टाध्यायी 2/3/16

54-   अष्टाध्यायी 1/4/49

55-   अष्टाध्यायी 2/3/2

56-   अष्टाध्यायी 1/4/2

57-   परिभाषेन्दुशेखरपरिभाषा 103

58-   अष्टाध्यायी 1/2/45

59-   ऐतरेय ब्राह्मण 6/3, शतपथ ब्राह्मण 2/1/4/10

60-   वाक्यपदीयम् 1/144

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु

स्मृति और कल्पना

  प्रायः अतीत की स्मृतियों में वृद्ध और भविष्य की कल्पनाओं में  युवा और  बालक खोए रहते हैं।वर्तमान ही वह महाकाल है जिसे स...