अष्टाध्यायी की कतिपय विशेषताएं - डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा
महर्षि पाणिनि का विश्व
प्रसिद्ध महनीय ग्रंथ अष्टाध्यायी संस्कृतव्याकरण के नियमन में सर्वोच्च है। लौकिक
और वैदिक दोनों तरह के शब्दार्थ बोधन में अव्याहत गति से पाणिनीय व्याकरण शास्त्र
की उल्लेखनीय भूमिका यथावत विद्यमान है। अष्टाध्यायी के अर्थबोधन की महत्ता किसी
वेद विशेष तक सीमित न रहकर प्रत्युत समस्त वेदसंहिताओं के रहस्यार्थप्रकटन में परम
सहायक है। तभी तो महर्षि पतञ्जलि ने अष्टाध्यायी को सर्ववेद पारिषद शास्त्र 1 कहा है। प्रस्तुत शोधपत्र का प्रयोजन है
जनसामान्य तक पाणिनि कृत अष्टाध्यायी की कतिपय उल्लेखनीय विशेषताओं की यथामति विवेचना करना।
महर्षिपाणिनि संस्कृतव्याकरणपरम्परा के आदि आचार्य नहीं
हैं। वे व्याकरणपरम्परा के उत्कर्ष शिखरों में अन्यतम हैं। उनके भाषिकरहस्यों के
नियमन के पीछे समृद्ध भाषा के अस्तित्व की सुदीर्घ परम्परा के प्रौढ़विमर्श का बहुत
ही महनीय स्वरूप विद्यमान था।
भाषिकतत्त्वों की विश्लेषणात्मक प्रवृत्ति
का समग्र व्यापार अर्थात् भाषिकनियमों के ज्ञेय स्वरूप के समृद्ध
समाधानात्मकशास्त्र व्याकरणशास्त्र नाम से
सुधी सम्प्रदाय में समादृत है।
पाणिनि के नियमप्रणयन में प्रचलित पध्दति के सर्वथा
अस्वीकार्यता वाले मत के स्थान पर अधिक संगत और स्वयंपूर्ण पद्धति का सृजन अधिक
दृढसंकल्पित है। पाणिनि ने पूर्व आचार्यों के पारिभाषिक पदों को यथासम्मान अपने
ग्रंथ में स्थान दिया है। पाणिनि ने शाकल्य, आपिशल, गार्ग्य, गालव, भारद्वाज, कश्यप, शौनक, स्फोटायन और चक्रपाणि आदि आचार्यों का उल्लेख
करके वैयाकरणों की परम्परा के प्रति अपना आत्मिक सम्मान व्यक्त किया है। पूर्व
आचार्यों के मतोल्लेख के साथ ही अपनी विशेष शैली के अनुरूप उनकी परिभाषा के लिए
नूतन आधार देने में पूरी प्रमाणिकता बरती है।
व्याकरणशास्त्र में भाषा की शुद्धता, विकृत भाषा के पुनः निर्मिति तथा च भाषान्तर पदों का
पृथक्करण हेतु नियमविशेषों की संरचना का
मुख्यता से स्थान देना होता है।
तभी विश्लेषण को व्याकरण नाम से पुकारा जाता है। व्याक्रियन्ते निष्पाद्यन्ते
शब्दा: अनेनेति तद्व्याकरणम् या फिर व्याक्रियन्ते Sसाधुशब्देभ्यः साधुशब्दा: पृथक्क्रियन्ते येन तद्व्याकरणम् इति,परिभाषा स्वीकृत है।
पाणिनि का प्रथम प्रतिज्ञा वाक्य “अथ शब्दानुशासनम्”2 और “लक्ष्यलक्षणं
व्याकरणम्”3 में अनुशासन और लक्षण
दोनों ही पदों में प्रयुक्त करणार्थक ल्युट्प्रत्यय असाधु शब्दों से साधु शब्द अलग
किए जाने वाले अर्थ में ही व्याकरण पद का प्रयोग सम्मान्य है। ऋग्वेदीय मन्त्र
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत0 4 में तितउ (चलनी) शब्द व्याकरण के इसी अर्थ में विवेच्य है।
यथा चलनी सक्तु को स्वच्छ करके अर्थात्
भूसी का परिमार्जन करके सारभूत सत्तू को भक्षणीय बना देती है, ठीक वैसे ही व्याकरणशास्त्र भाषा से अशुद्ध
शब्दों को परिमार्जित कर शुद्ध शब्दों के प्रयोग द्वारा भाषा को बोधगम्य बनाता है।
पाणिनीय व्याकरण की इस अवधारणा में प्रमाण हैं महर्षि
पतंजलि का प्रकथन अवश्य संज्ञेय है। एकस्यैव शब्दस्य बहवोSपभ्रंशा: यथा गोशब्दस्य गावी गोणी गोता गोपितलिका
इत्येवमादयः।5
व्याकरण की विशेषताओं के संदर्भ में एक बात बहुत अधिक ध्यान
देने योग्य है कि व्याकरण प्रहरी की भांति भाषा की सुरक्षा में सदा सावधान की
भूमिका सुस्थित रहता है। व्याकरण की यह नैसर्गिक प्रकृति भाषा को विकृत होने से
एवं उसके अस्तित्व को कोई हानि न पंहुचने
में बहुत उपकारी है। इस लक्ष्य पर व्याकरण की प्रकृति विशेषतया सावधान रहती है,
ताकि भाषा के स्वरूप में कोई मिलावट न हो पाए।
यही प्रवृत्ति भाषा को अमरता प्रदान करती है। यद्यपि व्याकरण इस अपरिवर्तनीय
प्रकृति को बहुत से भाषावैज्ञानिक भाषिकप्रवाह के क्रम के विकास में अवरोधक की
भांति जटिल जकड़ वाली मजबूत पकड़ स्वीकारते हैं। उनकी यह धारणा नितान्त निर्मूल भी
नहीं कही जा सकती है। एक समय संस्कृतभाषा लोकभाषा के रूप में जनसामान्य की
अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम रही है। लेखक की संस्कृतभाषा लोकभाषा के कालखण्ड पर
सहमतिपूर्ण निष्ठा गुरूपरम्परा से अवच्छिन्न है। जनसामान्य की अभिव्यक्ति का सशक्त
माध्यम में व्याकरण की अत्यधिक निर्भरता, नियमातीत सहजबोध की स्वाभाविकप्रवृत्ति तथा व्याकरणात्मक अनुशासन की लाठी के भय से दूर संस्कृतेतर भाषा को अपनाने में
जरूर महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी। अस्तु!
व्याकरण का अन्यतम कार्य प्रकृति -प्रत्यय का व्युत्पादन
अवश्य है। पाणिनि शब्दों के अव्युत्पन्नत्व पक्ष को भी पूर्ण सहमति देते हैं।
इसीलिए प्रकृति-प्रत्यय के व्युत्पादन की विचारणा व्याकरण के परिचय कराने में तो
समर्थ है लेकिन यह विचारणा महाभाष्य में व्याकरण के लक्षणत्व में स्वीकृत नहीं है।
विविध प्रत्ययों से निष्पन्न शब्दों की संख्या अनंत है।
शब्दभण्डार की सम्पन्नता में
प्रकृतिप्रत्यय की भूमिका बहुत अधिक गरिमा पूर्ण है। महर्षि पाणिनि शब्दों के
व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न उभयविध मतों के आग्रहरहित पक्षपाती हैं। व्युत्पन्न
शब्द प्रत्ययान्त होते हैं। एक प्रकृति से विविध प्रत्यय जुड़ने पर शब्दभण्डार भी
अधिक सम्पन्न होता है। व्युत्पत्तिक्रम को आदर देने वाले आचार्य पाणिनि समस्त
शब्दों की व्युत्पन्नधर्मिता वाली मान्यता को अनुचित आग्रह मानते हैं।
“अर्थवदधातुरप्रत्यय: प्रातिपादिकम्” 6 अव्युत्पन्न शब्दों की प्रातिपादिकता के लिए पाणिनि का यह सूत्र है। परन्तु
व्युत्पन्न शब्द इस परिभाषा की परिधि में नहीं आते हैं। उनकी संज्ञा हेतु पाणिनि
ने अन्य सूत्र “कृत्तद्धितसमासाश्च”7 का प्रणयन किया है। महर्षि शाकटायन के मत में सभी सभी शब्द व्युत्पन्न हैं।
“तत्र नामानि आख्यातजानि इति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च’ 8 व्युत्पत्ति पक्ष के प्रथम आचार्य शाकटायन तथा अव्युत्पन्न
पक्ष के प्रबल समर्थक आचार्य गार्ग्य दोनों ही पाणिनि से पूर्वकालिक हैं। “लङ:
शाकटायनस्यैव” 9 और “ओतो
गार्ग्यस्य” 10। इस तरह का
वैचारिक संघर्ष पाणिनि के भी बहुत पहले से है। महर्षि पतञ्जलि भी अनेकों स्थलों पर
आचार्यपाणिनि की इस मान्यता का समर्थन करते हुए दिखाई देते
हैं-प्रातिपदिकविज्ञानाच्च भगवतः पाणिने: सिद्धम्। 11
वस्तुतः शब्दार्थ के अन्वेषण में प्रकृति और प्रत्यय के
ज्ञान के साथ ही उनके अर्थ का भान भी आवश्यक है। यथा कारक आदि शब्दों में कृ
प्रकृति तथा ण्वुल् प्रत्यय है। कृ प्रकृति का अर्थ करना और ण्वुल् प्रत्यय का
अर्थ है कर्त्ता। अब कृ और ण्वुल् का अर्थ हुआ करने का कर्त्ता अर्थात् करने वाला।
महर्षिपाणिनि ने संस्कृत भाषा के परिष्कृतस्वरूप को
सैद्धान्तिक आयाम देने के उद्देश्य से भाषिक तत्त्व के विभिन्न अवयव यथा
अक्षरसमाम्नाय, पद, क्रिया,वाक्य,लिंग आदि के
अन्तर्सम्बन्धों के संज्ञान हेतु अष्टाध्यायी की रचना की है। संस्कृत के विशाल
कलेवर का समग्र विश्लेषण अष्टाध्यायी के सूत्रों में उपलब्ध है। पाणिनि की
सूत्रशैली स्मृतिगम्य भी है। पाणिनि अपनी विश्लेषण प्रक्रिया वाली सूत्र शैली में
अपने नवीन उपकरणों के अतिरिक्त अपने से पूर्व वैयाकरणों के उपकरणों को भी प्रयोग
में लाते हैं। पाणिनि के अपने उपकरणों में शिवसूत्र महत्वपूर्ण उपकरणों में से एक
है। शिवसूत्रों को ही माहेश्वर या प्रत्याहार सूत्र कहते हैं।
नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपंच वारम् । उद्धर्त्तुकामःसनकादिसिद्धानेतद्विमर्शे
शिवसूत्रजालम्।। 12
पाणिनि ने शब्दों
के विश्लेषण हेतु लगभग चार हजार(3861)सूत्रों को वैज्ञानिकता के साथ अष्टाध्यायी में संकलन किया है। ये सूत्र
गणितीय सूत्रों की भांति जटिल एवं विस्तृत सिद्धांतों का अत्यंत सरलता से अवबोधन कराते हैं।
अष्टाध्यायी भाषा के समस्त पहलुओं की विवेचना में अत्यंत उपकारी है। चतुर्दश
माहेश्वरसूत्र (प्रत्याहारसूत्र) अष्टाध्यायी की लघुता और सरलता अध्येताओं के लिए
सिद्धिदा के रूप में सदा स्मरणीया है। अष्टाध्यायी के इन चतुर्दश सूत्रों की
प्रधान भूमिका के कारण ही पाणिनि ने शिव के आशीर्वाद से ही इनका प्रणयन अथवा
प्राप्त किया है, यह लोक में माना
जाता है। “अइउण्” 13 प्रथम
प्रत्याहार सूत्र के व्याख्यानक्रम में आचार्य की यह प्रतिज्ञा कि वेदाङ्गरूप
शिक्षा में जिस ह्रस्व अ को संवृत माना गया है उसे इस सम्पूर्ण व्याकरण शास्त्र
में विवृत मानने की प्रतिज्ञा सभी तरह के संशयों को विराम और साथ ही अष्टाध्यायी
के अन्तिम सूत्र “अ अ” 14 में पुनः
विशेषतया संस्मरण कराना कि अ के विवृतत्व की लक्ष्मणरेखा यहीं तक है। अन्यत्र उसके
संवृतत्व धर्म में कोई आपत्ति नहीं है । तभी तो ह्रस्व अ के सवर्णत्व के अतिरिक्त
दीर्घसन्धि आदि कार्य निर्वाधतया निष्पन्न होते हैं।
अष्टाध्यायी के प्रथम सूत्र “वृद्धिरादैच्” 15 में ऐच् प्रत्याहार है। प्रत्याह्रियन्ते संक्षिप्यन्ते
वर्णा: येन तत् प्रत्याहारसूत्रम्। प्रत्याहार व्याकरणशास्त्र का एक पारिभाषिक पद
है, जिसमें दो वर्णों की
उपस्थिति होती है। प्रत्यहार के दो वर्णों में अन्त्य वर्ण सदा इन चतुर्दश सूत्रों
के अंतिम वर्णों में से कोई एक अवश्य होता है। प्रत्याहार के दो वर्णों में पूर्व
वर्ण इन चौदह सूत्रों का आदि या मध्य वाला वर्ण होता है। इन दो वर्णों से ही अक्,
अण्, अच् आदि प्रत्याहार रूप बनते हैं। अक् अच् आदि प्रत्याहार अपने आदि और मध्य के
वर्णों का भी बोधन कराते हैं। अन्तिम वर्णों की इत् संज्ञा होने के कारण उनका
ग्रहण प्रत्याहारों में नहीं होता है। इस संदर्भ के नियामक हैं पाणिनीय सूत्रद्वय
“आदिरन्त्येन सहेता” 16 एवं “हलन्त्यम्
“ 17। महाभाष्यकार महर्षि
पतंजलि की निम्न कारिका इस नियमन में प्रामाणिक समर्थन है।
प्रत्याहारेष्वनुबन्धानां
कथमज्ग्रहणेषु न ।आचारादप्रधानात्वाल्लोपश्च बलवत्तरः ।। 18
अष्टाध्यायी के चतुर्दश प्रत्याहार सूत्रों में विद्यमान
वर्ण संस्कृत भाषा की दृष्टि में अत्यन्त प्रामाणिक हैं। वर्णोच्चारण शिक्षा में
इन वर्णों के जो भी उच्चारण स्थान एवं प्रयत्न नियत किए गए हैं वे नितान्त शुद्ध
तथा आग्रह रहित हैं। शिक्षा और व्याकरण की परंपरागत रीति से उच्चरित शब्दों की
साधुता में ही पाणिनि की मान्यता सर्वश्रेष्ठ है। अष्टाध्यायी के चौदह सूत्रों से
पाणिनि 41+2=43 प्रत्याहारों को
व्यवहार में लाए हैं। अष्टाध्यायी के 41 प्रत्याहारों के अतिरिक्त दो प्रत्याहारों
का भी प्रयोग होता है-एक औणादिक “ञमान्ताड्ड:” 19 से ञम् एवं द्वितीय “चयो द्वितीय: शरि पौष्करसादे:” 20 वार्त्तिक से चय् ।
सूत्र के लक्षण की मानकता पाणिनिकृत अष्टाध्यायी के सूत्रों
में पूर्णतया घटित होती है। सूत्र के
लक्षण का स्वरूप अवश्य संज्ञेय है।
अल्पाक्षरमसंदिग्धं
सारवद्विश्वतोमुखम् ।अस्तोभमनवद्यञ्च च सूत्रं सूत्रविदो विदुः।। 21
अल्पक्षरता=संक्षिप्तता अर्थात् न्यूनातिन्यून अक्षरों की
विद्यमानता, असन्दिग्धता=सन्देहहीनता
संदेहास्पद ज्ञान का नितराम् अभावता,सारतत्त्वों की सार्वभौमिकता से समादृत, नाना विद्या के अर्थों की विज्ञापिका, स्तोभतारहित=विरोधहीनता तथा सर्वथा
अनवद्य=निर्दोषता वाली शब्दराशि को सूत्र कहा जाता है।अष्टाध्यायी में सूत्रों के
प्रकार-
संज्ञा च परिभाषा च
विधिर्नियमेव च ।अतिदेशोSधिकारश्च षड्विधं सूत्रमुच्यते ।।
लेखक अष्टाध्यायी के सूत्रों के नौ प्रकार गुरुपरम्परा से
मानता है। अष्टाध्यायी के सूत्रों के भेद क्रम में निषेध, निपातन और प्रत्याहार का भी बहुत महत्त्व है।
हमारे दादागुरु पदवाक्यप्रमाणज्ञ पंडित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु
जी प्रथमावृत्ति के प्राक्कथन में लिखते हैं-अष्टाध्यायी का गौरव न केवल हम ही
घोषित करते हैं अपितु भगवान् पतञ्जलि भी आचार्य पाणिनि का महान् गौरव मुक्तकण्ठ से
प्रदर्शित करते हैं।
विदितवेदितव्य है कि ऋषिपाणिनि की कृति अष्टाध्यायी के
सूत्रों में एक भी वर्ण ऐसा नहीं है जिसे अनर्थक अथवा सदोष माना जा सकता है। फिर
पदों की अनर्थकता की क्या चर्चा? प्रमाणभूत
आचार्यो दर्भपवित्रपाणि: शुचावकाशे प्राङ्मुख उपविश्य महता प्रयत्नेन सूत्राणि
प्रणयति स्म। तत्राशक्यं वर्णेनाप्यनर्थकेन भवितव्यम्, किं पुनरियता सूत्रेण। 22 कुछ इसी तरह से अन्यत्र भी इसका समर्थन प्राप्त है-
सामर्थ्ययोगानन्न हि किंचिदत्र पश्यामि शास्त्रे यदनर्थकं स्यात् ।23 शास्त्र के सामर्थ्य से मैं इस शास्त्र में
कुछ भी ऐसा नहीं देखता जो अनर्थक हो।
जयादित्य “उदक् च विपाशः”24 सूत्र में कहता है-“ महती सुक्ष्मेक्षिका वर्त्तते
सूत्रकारस्य” सूत्रकार पाणिनि की अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि है।
पाश्चात्य विद्वान् मोनियर विलियम अति आदर के साथ महर्षि
पाणिनि के संदर्भ में कहता है-“संस्कृत का व्याकरण (अष्टाध्यायी ग्रन्थ) मानव
मस्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम भाग है, जो कि मानव मस्तिष्क के सामने आया है।“
हंटर ने कहा है-“ मानव मस्तिष्क का अतीव महत्वपूर्ण
आविष्कार यह अष्टाध्यायी है।“
लेनिन ग्राड के प्रो.टी.वात्सकी कहते हैं-“मानव मस्तिष्क की
यह अष्टाध्यायी सर्वश्रेष्ठ रचना है।“
महर्षिपाणिनि की सूत्रप्रणयन शैली में मानव मस्तिष्क की
सर्वोच्चता का भान पदे -पदे शब्दविदों को दृष्टिगत होता है। वैयाकरण परिवार में
अर्धमात्रा के लाघव की पुत्रोत्सव जैसे महोत्सव से तुलना की जाती है।
“अर्धमात्रालाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः” 25 समस्त विश्व आज भी पाणिनि के लाघव एवं सारगर्भित
विश्वतोमुख सूत्रों की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहा है।
अष्टाध्यायी का कलेवर आठ अध्यायों तथा प्रत्येक अध्याय में
चार -चार पादों के होने से बत्तीस पादों से अलंकृत है। अष्टाध्यायी26 में सूत्रों की संख्या 3861 है। अष्टाध्यायी का परिमाण एक सहस्र
अनुष्टुप्छन्द के श्लोकों वाला है।प्रत्येक पाद में सूत्रों का प्रणयन बहुत ही
वैज्ञानिकता से किया गया है। इसी वैज्ञानिक क्रम का वैशिष्ठ्य है कि ‘सूत्रों का
अधिकार’ और ‘पदों की अनुवृत्ति’ ‘उत्तर सूत्रों’ में जाती है।
सूत्रव्याख्यान में कतिपय उदाहरण द्वारा इस वैज्ञानिकक्रम
की कितनी महती भूमिका है? यह स्पष्ट हो
जाएगी। अवलोकन कीजिए -क्रमशः “वृद्धिरादैच्“27 “आद्गुणः”28 “इको गुणवृद्धी”29
“न धातुलोप आर्धधातुके”30 “क्किङ्ति च”31 ये पांच सूत्र अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद
के प्रारंभ में हैं। चतुर्थ सूत्र न धातुलोप आर्द्धधातुके में तृतीय सूत्र इको गुणवृद्धी के समस्त पदों की अनुवृत्ति आ
रही है। अर्थात् चतुर्थ सूत्र के व्याख्यान के लिए तृतीय सूत्र के सभी पदों की
उपस्थिति परम आवश्यक है। धातुलोपे (धातोरवयवस्य लोपे) आर्द्धधातुके परतः इकः
स्थाने गुणवृद्धी न भवतः। इसी भांति पंचम सूत्र क्किङ्ति च में सम्पूर्ण तृतीय
सूत्र इको गुणवृद्धी की अनुवृत्ति और चतुर्थ सूत्र से निषेधार्थक न अनुवृत्त होता
है। पंचम सूत्र के व्याख्यान में पद योजना का स्वरूप अवश्य ज्ञेय है- क्किङ्ति च
=क्किङ्ति ( गश्च कश्च ङश्च इति क्ङ् इतो यस्य स क्ङ्गित् तस्मिन् परतः गुणवृद्धी
न भवतः।
सूत्रों के अर्थोद्घाटन में वैज्ञानिक क्रम की महत्ता के
साथ सूत्रस्थ पठित पदों में विद्यमान विभक्ति की भी महती भूमिका है। विशेषतया
विभक्तियां हैं पञ्चमी = उत्तरस्य, सप्तमी =तस्मिन्
परतः, षष्ठी =तस्य स्थाने और
प्रथमा = भवति , इन चारों
विभक्तियों का यही अर्थ अधिकतर अष्टाध्यायी में घटित होता है। अष्टाध्यायी की
सरलता से अर्थ विवृत्ति में यह सर्वोच्च विशेषता है। सूत्रों में अंतर्निहित अर्थ
इस वैज्ञानिक क्रम के आधार पर स्वयं विवृत्त हो जाता है। इसके लिए कहीं अन्यत्र
अन्वेषण की आवश्यकता नहीं है।
सूत्रेष्वेव हि तत्सर्वं यद्वृत्तौ यच्च
वार्त्तिके।सूत्रयोनिरिहार्थानां सुत्रे सर्वं
प्रतिष्ठितम् ।।“32
अर्थात् वृत्ति और
वार्त्तिक में जो कुछ है वह सब सूत्रों में पहले से विद्यमान है। अनुवृत्ति के
क्रम यह तत्त्व विशेषतया बोधनीय है कि प्रायः सूत्र की अर्थयोजना के समय सजातीय पद
अनुवृत्त नहीं होते हैं । क्किङ्ति च सूत्र में क्किङ्ति के सप्तम्यन्त पद होने से
धातुलोपे और आर्द्धधातुके सप्तम्यन्त पदों की उक्त सूत्र में अनुवृत्ति नहीं आती
है। यदि कदाचित् किसी सूत्र में सजातीय पद की अनुवृत्ति लानी होती है तो उस सूत्र
में “च” पद अवश्य पठित होगा। उदाहरणार्थ “लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्य:” 33 प्रकृत सूत्र में च पद की विद्यमानता ही
कर्त्तरि की अनुवृत्ति में हेतु है। कौनसे सूत्र का अधिकार या फिर सूत्रस्थ पदों
की अनुवृत्ति उत्तर के सूत्रों तक जाएगी? इसके नियमन के लिए “स्वरितेनाधिकार:” 34 इस सूत्र का आचार्य पाणिनि ने प्रणयन किया है। अर्थात्
स्वरितधर्म विशिष्ट पद अथवा समस्त सूत्र की अनुवृत्ति उत्तर सूत्रों तक जाती है।
स्वरितधर्मिता के अवबोधन में महाभाष्य का वचन “यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्” 35 परम सहायक है। महाभाष्यकार के प्रामाण्य में
सूत्रकार और वृत्तिकार दोनों की सम्मति सम्प्राप्त है। सूत्रकार पाणिनि, वार्त्तिककार कात्यायन एवं भाष्यकार पतञ्जलि को
व्याकरण शास्त्र के त्रिमुनि कहा जाता है।
प्रकृत प्रकरण में विशेषतः उल्लेखनीय है कि कहीं -कहीं
सूत्रों की आवृत्ति से दो-दो अर्थ भी किए जाते हैं । तद्यथा “षष्ठी स्थानेयोगा” 36 सूत्रार्थ एक प्रकार व्याकरण शास्त्र में जिन
षष्ठी का सम्बन्ध (अर्थ)कहीं नही ज्ञात होता हो वहां स्थान के साथ सम्बन्ध रूप अर्थ
समझा जाए। तथा दूसरा अर्थ है यतः और सा पदों के अध्यहार से यतः षष्ठी सा स्थाने
योगा , निर्दिश्यमानस्यादेशा
भवन्ति ,निर्दिश्यमान का ही आदेश
होते हैं । यह समस्त चर्चा इसी सूत्र के भाष्य में पतञ्जलि ने की प्रस्तुत की है।
अष्टाध्यायी के प्रथम और द्वितीय अध्याय में संज्ञा और
परिभाषा सूत्रों की प्रस्तुति है। शास्त्र विशेष के अध्ययन में उन संज्ञाओं और
परिभाषाओं के परिचय के बिना उस शास्त्र में प्रवेश असंभव है। संक्षिप्तता के लिए
अनेक उपाय हैं। व्याकरणात्मक नियमावबोधन हेतु संज्ञा और परिभाषा की आवश्यकता होती
है। प्रथम और द्वितीय अध्याय में संज्ञाप्रकरण
के अंतगर्त प्रत्याहार, वृद्धि, गुण,संयोग , अनुनासिक, आत्मनेपद ,परस्मैपद ,
कारक ,विभक्ति, समास आदि है। कारकतत्त्व
के अध्ययन से वाक्यार्थ का अवबोधन सुगमता से होता है। यथा ओदनं पचति प्रस्तुत
वाक्य में ओदन पदार्थ की कर्म संज्ञा “कर्त्तुरीप्सिततमं कर्म” 37 सूत्र से है। सूत्रार्थ को समझने से पहले यह
अवश्य ज्ञेय है कि धात्वर्थ फल और व्यापार हैं। फल( क्रिया से उत्पन्न परिणाम) का
आश्रय कर्म और व्यापार (क्रिया/चेष्टा) का आश्रय कर्त्ता होता है। अतः सूत्रार्थ
होगा कर्त्ता में रहने वाली क्रिया से उत्पन्न होने वाले फल के आश्रय रूप से जो
विवक्षित है उसकी कर्म संज्ञा होती है। यहां पर ध्यान देने योग्य विचार यह है कि
कर्त्ता और क्रिया के ज्ञान होने पर ही ही उस क्रिया से उत्पन्न फल के आश्रय का
ज्ञान सम्भव है और तभी उसकी कर्म संज्ञा निष्पन्न होगी। अभी जिस ओदन की कर्म
संज्ञा की जारही है वह तो अभी बना ही नहीं है। क्रियाजन्य फल के आश्रयरूप ओदन को
कैसे माना जाए? अतः यह स्पष्ट है
कि पाणिनि को बुद्धि में स्थित संस्कार रूप ओदन की कर्म संज्ञा अभिप्रेत है।
द्वितीय अध्याय में समाससंज्ञा प्रकरण में वृत्ति का एकभेद
समास है। “परार्थाभिधानं वृत्ति:” 38 कृत्, तद्धित, समास,एकशेष और सनाद्यन्त हैं। सभी वृत्तियों में
एकार्थी भाव रहता है। परन्तु समास में व्यपेक्षाभाव सामर्थ्य रहता है। परस्पर की
अपेक्षा या आकांक्षा आदि से सम्बद्ध परस्पर अर्थबोधन में समर्थ व्यपेक्षाभाव
कहलाता है। अव्यय लक्षण के साथ नित्य निर्विकार शब्द ब्रह्म का लक्षण भी
सम्प्राप्त है। अनेकता में एकत्व की प्रवृत्ति निमित्तिका जाति का भी अवबोधन होता
है।
तृतीय अध्याय के
“प्रत्यय:”39 प्रथम सूत्र का अधिकार पंचम अध्याय की
परिसममाप्ति तक है। तृतीय अध्याय में धातु (प्रकृति ) से परे तिङ् और कृत्
प्रत्ययों का निदर्शन है। चतुर्थ अध्याय और पंचम अध्याय में प्रातिपादिक (प्रकृति)
के बाद जुड़ने वाले प्रत्ययों में स्त्री प्रत्यय और तद्धित प्रत्ययों की चर्चा है।
तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायों
में सब प्रकार के प्रत्ययों का विधान है। तीसरे अध्याय में धातुओं में प्रत्यय
लगाकर कृदंत शब्दों का निर्वचन है और चौथे तथा पाँचवे अध्यायों में संज्ञा शब्दों
में प्रत्यय जोड़कर बने नए संज्ञा शब्दों का विस्तृत व्युत्पत्तिक्रम बताया गया
है। ये प्रत्यय जिन अर्थविषयों को प्रकट करते हैं उन्हें व्याकरण की परिभाषा में
वृत्ति कहते हैं, जैसे वर्षा में
होनेवाले इंद्रधनु को वार्षिक इंद्रधनु कहेंगे। वर्षा में होनेवाले इस विशेष अर्थ
को प्रकट करनेवाला "इक" प्रत्यय तद्धित प्रत्यय है। प्रकृति से परे
प्रत्ययों का विधान दार्शनिक परम्परा का अनुमोदन है। प्रत्यय (ज्ञेय) शब्दब्रह्म
है। वह सर्वथा प्रकृति से परे है।
छठे, सातवें और आठवें
अध्यायों में उन परिवर्तनों का उल्लेख है जो शब्द के अक्षरों में होते हैं। ये
परिवर्तन या तो मूल शब्द में जुड़नेवाले प्रत्ययों के कारण या संधि के कारण होते
हैं। द्वित्व, संप्रसारण,
संधि, स्वर, आगम, लोप, दीर्घ आदि के विधायक सूत्र छठे अध्याय में आए हैं। षष्ठ अध्याय में द्वित्व,
सन्धि और वैदिकस्वर विधायक सूत्रों का संकलन
हैं। सन्धि कार्य में एक लौकिक व्यवहार के दर्शन होते हैं। सन्धि अर्थात् मित्रता
। मिलकर पार जाने की भावना। सन्धि कार्य में पूर्व और पर दोनों ही वर्ण मिल कर
अपने स्वरूप का त्याग कर नूतन स्वरूप धारण करते हैं। उदाहरणार्थ गण + ईश=गणेश यहां
अ और ई ने अपने स्वरूप का त्याग कर ए रूप को अपनाया है।
इस अध्याय में आगे उदात्त ,अनुदात्त और स्वरित स्वरों की चर्चा प्रधानता से की गई है।
स्वर प्रक्रिया सम्बन्ध वैदिक संस्कृत से है। षष्ठ अध्याय के चतुर्थ पाद में
अंगाधिकार प्रारम्भ होकर सप्तम अध्याय की परिसममाप्ति तक जाता है। अंगाधिकार नामक
एक विशिष्ट प्रकरण है जिसमें उन परिवर्तनों का वर्णन है, जो प्रत्यय के कारण मूल शब्दों में या मूल शब्द के कारण
प्रत्यय में होते हैं। ये परिवर्तन भी दीर्घ, ह्रस्व, लोप, आगम, आदेश, गुण, वृद्धि आदि के विधान के रूप में ही देखे जाते
हैं। अष्टम अध्याय में, वाक्यगत शब्दों
के द्वित्वविधान, प्लुतविधान एवं
षत्व और णत्वविधान का विशेषत: उपदेश है।
अष्टम अध्याय मैं भी द्वित्व-संधि, षत्व, जशत्व, कुत्व, चत्व आदि विविध कार्यों का निदर्शन है। इसी अध्याय में पदाधिका एवं तिङ्न्त
स्वर का भी निरूपण है सब के। अंत में महर्षि पाणिनि ने “अ अ” सूत्र से “विवृत अ”
के स्थान पर “संवृत अ“ का विधान किया है । अ परमात्मा का वाचक शब्द परमात्मा का
वाचक है। अ शब्द का दो बार उच्चारण परम मंगल की सूचना है तथा पूर्व के समस्त
प्रकरणों को उद्देश्य करके अ शब्दार्थ के विधेयत्व का भी संसूचक है। इस तरह
संपूर्ण व्याकरण शास्त्र शब्दब्रह्म स्वरूप परमात्मा की भी सिद्धि है। आचार्य
भर्तृहरि ने भी कहा है।
तस्माद्यः शब्दसंस्कारः
सा सिद्धि:परमात्मनः।तस्य प्रवृत्तितत्त्वज्ञ: स ब्रह्मामृतमश्नुते
।।40
अष्टाध्यायी के कतिपय सूत्रात्मक नियमों के चमत्कारिक
प्रदर्शन उल्लेखनीय है।यथा बाध्यबाधकभाव की सदृष्टान्त प्रस्तुति। सूत्रार्थ इस
प्रयोग में सूत्र + अर्थ इस स्थिति में “आद्गुणः” 41 से गुण तथा “अक: सवर्णे दीर्घ:” 42से दीर्घ कार्य प्राप्त है। अब इस अवस्था में गुण कार्य हो
या फिर दीर्घ। इस तरह की जिज्ञासा के समाधान के लिए आचार्यपाणिनि ने “विप्रतिषेधे
परं कार्यम्”43सूत्र का नियमन
किया है। अष्टाध्यायी में गुणविधायक सूत्र से दीर्घ विधायक सूत्र परत्व के कारण
स्वीकार्य है। इसी तरह लक्ष्मीश: के प्रयोग में” इको यणचि” 44 से होने वाले यण् कार्य को दीर्घविधायक सूत्र
बाधित कर देता है।
आचार्यपाणिनि ने अष्टाध्यायी को दो भागों में विभाजित किया
है। प्रथम अध्याय से लेकर आठवें अध्याय के प्रथम पाद तक को सपादसप्ताध्यायी एवं
शेष तीन पादों को त्रैपादिक कहा जाता है। “पूर्वत्रासिद्धम्”45 सूत्र भी बाध्यबाधक भाव के निर्णय में सहायक
होता है। सपादसप्ताध्यायी मे विवेचित नियमों की तुलना में त्रिपादी में वर्णित
नियम असिद्ध हैं। जैसे मनोरथ: इस प्रयोग मनस्+रथः इस स्थिति में सकार को “स सजुषो
रु:” 46 सूत्र से रु आदेश होने
पर मनस्+रथः इस स्थिति में “हशि च” 47 सूत्र से रु के स्थान पर उकार प्राप्त होता है और “रो रि” 48 सूत्र से रेफ का लोप । अब प्रश्न उठता है कि
यहां पर कौनसा नियम काम करेगा? “विप्रतिषेधे परं
कार्यम्” नियम से परत्व का विचार करते हुए रेफ के लोप का निर्णय मान्य हो सकता है।
क्योंकि “रोरि” सूत्र “हशि च” के बाद आता है। परंतु “पूर्वत्रासिद्धम्” सूत्र ने
उच्च न्यायालय की तरह विप्रतिषेधे परं कार्यम् के विपरीत निर्णय दिया है।क्योंकि
सवा सात अध्याय में पठित “हशि च” सूत्र के प्रति त्रिपादी में पठित “रोरि” सूत्र
असिद्ध माना जाता है। इसीलिए पूर्व निर्णय को निरस्त कर “हशि च” सूत्र से रु के
स्थान पर उकार आदेश हो गया है और ”आद्गुणः” गुण होकर मनोरथ शब्द निष्पन्न होता है।
पाणिनीय व्याकरण में सर्वोच्च न्यायालय सदृश निर्णायक
क्षमता वाला नियम है ”असिद्धं बहिरंगमन्तरंगे” 49 है। उदाहरणार्थ सुद्ध्युपास्य: में “संयोगान्तस्य लोपः” 50 से यकार का लोप प्राप्त है। परन्तु उपरोक्त
परिभाषा ने अन्तरंग लोपशास्त्र की कर्तव्यता में बहिरंग यण् शास्त्र को असिद्ध कर
दिया है। यद्यपि पूर्वत्रासिद्धम् से
विपरीत यह निर्णय है, क्योंकि यण्
शास्त्र सपाद सप्त अध्याय में है। उसके प्रति त्रैपादिक लोप शास्त्र असिद्ध है।
अन्तरंग के निर्णय का सम्मान पूर्वत्रासिद्धम् करना पड़ता है। भाष्यकार पतञ्जलि ने
कहा है- “यण: प्रतिषेधो वाच्य: न वा झलो लोपाद् बहिरंगलक्षणत्वादिति” 51 यह परिभाषा “वाह ऊठ्” 52 सूत्र के ऊठ् ग्रहण के कारण महर्षि को अभिप्रेत ज्ञात होता
है।
देवान् नमस्करोति
में “नमःस्वस्तिस्वाहास्वधालं0 53 सूत्र से चतुर्थी और “कर्त्तुरीप्सिततमं कर्म” 54 सूत्र से कर्म कारक के कारण “कर्मणि द्वितीया” 55 सूत्र से द्वितीया विभक्ति प्राप्त है।
“विप्रतिषेधे परं कार्यम्” 56 नियम से चतुर्थी
होनी चाहिए। परन्तु “उपपदविभक्ते: कारक- विभक्तिर्वलियसी”57 परिभाषा ने उपपद विभक्ति को बाधित कर कारकविभक्ति अर्थात् द्वितीया विभक्ति का प्रबलता से नियमन
कर दिया है।
पाणिनीय व्याकरण का हृदय है स्फोटवाद । स्फोटवाद मतलव
शब्दनित्यत्ववाद। यद्यपि स्फोटवाद की अष्टाध्यायी में प्रत्यक्षतः चर्चा नहीं है
तथापि अष्टाध्यायी के अनेक अंशों से यह सिद्धान्त प्रकट होता है। एक उल्लेखनीय अंश
“अर्थवदधातुरप्रत्यय: प्रातिपादिकम्” 58 है। प्रातिपादिक को परिभाषित करते हुए धातु भिन्न प्रत्यय भिन्न प्रत्ययान्त
भिन्न जो अर्थ बोधक है उसे प्रातिपादिकसंज्ञा कहते हैं। यहां अर्थबोधक शब्द से
तात्पर्य है अर्थ निरूपित वृत्तिरूप सम्बन्ध वाला शब्द ।यथा “कृष्ण” शब्द धातु आदि
से भिन्न होते हुए भी वसुदेवापत्यरूप अर्थ से निरूपित शक्ति (वृत्ति) वाला है। अतः
कृष्ण की प्रातिपादिक संज्ञा हुई है। विचारणीय है कि वसुदेवापत्य रूप अर्थ से
निरूपित शक्ति (सम्बन्ध) का आश्रय कौन है? यदि क्,ऋ,ष्,ण्,अ इन पांचों वर्णों से प्रत्येक वर्ण कृष्ण
अर्थ का आश्रय है तो यह पक्ष सम्भव नहीं है। फिर पांच वर्णों से पांच बार कृष्ण
अर्थ का बोध होने लगेगा, जोकि अनुभव जन्य
नहीं है। उच्चरित होकर नष्ट होना वर्णों का धर्म है, ऐसी स्थिति में वर्णों का समुदाय कैसे बनेगा? अतः समुदाय भी शक्ति का आश्रय नहीं हो सकता है।
अतः इन ककार आदि ध्वनियों से अभिव्यक्त होने वाली कोई एक नित्य वस्तु होनी चाहिए।
वही शक्ति का आश्रय है। यह औपाधिक चिद्रूप आत्मा है जो स्फोट शब्द से व्याकरणज्ञों
द्वारा व्यपदेश्य है। यही अनौपाधिक रूप परा शब्द से ज्ञात होता है।यही “वाग्वै
ब्रह्म” 59 श्रुति का संदेश भी है।
भर्तृहरि ने भी कहा है- जो भेद क्रम आदि से रहित, सूक्ष्म, अविनाशिनी केवल
स्वप्रकाशरूप ज्योति, जो कि सृष्टि में
सर्वत्र व्याप्त है, उसे पश्यन्ती
कहते हैं।
अविभागात्तु पश्यन्ती
सर्वतः संहृतक्रमः ।स्वरूपज्योतिरेवान्तः सूक्ष्मा वागनपायिनी ।।60
व्याकरण के अनुसार सारे सुखों का मूल, समस्त विवादों और दुखों का समाधान समन्वय है।
प्रत्येक शब्द में, प्रत्येक अणु और
परमाणु में स्फोट और ध्वनि का समन्वय है, प्रकृति और प्रत्यय का समन्वय है। इसी समन्वय के आधार पर प्रत्येक अर्थ,
प्रत्येक सृष्टि का कार्य होता है। जब भी दोनों
में से एक भी उपेक्षित होगा, वहीं से
वाद-विवाद, विरोध और संघर्ष प्रारंभ
होता है। इसीलिए व्याकरण की अहम्मान्यता है- न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या नापि
केवलः प्रत्ययः । न केवल प्रकृतिवाद को
मुख्यता देनी चाहिए और न ही केवल प्रत्ययवाद को प्रमुखता देनी चाहिए। मात्र
भौतिकवाद का व्यवहार या फिर मात्र अध्यात्मवाद का प्रयोग और न मात्र ज्ञानमार्ग का
या केवल कर्ममार्ग का प्रयोग नितान्त अव्यावहारिक है। “न लोकाद् भिद्यते
व्याकरणम्’ पतञ्जलि का यह महावचन पदे-पदे व्याकरण की प्रासंगिकता का निदर्शन है।
प्रत्येक वाद, सिद्धान्त और
मन्तव्य के प्रयोग में व्याकरण के समन्वयवाद की संकल्पना समाज के लिए महत्वपूर्ण
योगदान है।
पाणिनीय व्याकरण नीरस होते हुए भी सबसे अधिक सरस है। इसमें
निर्लेपता , निष्पक्षता और सत्यता की
त्रिवेणी है। तभी तो अप्रिय होते हुए भी सर्वप्रिय है। निवार्य होते हुए भी
अनिवार्य है। व्याकरण होते हुए भी दर्शन और साहित्य है। ध्वनि होते हुए भी स्फोट
है। अभिधा होते हुए भी व्यञ्जना है। द्वन्द्व (विवाद) में समाहार (एकत्व)सिखाता
है। व्यपेक्षाभाव (परस्परनिर्भरता) समास के साथ एकार्थीभाव (एक उद्देश्यता) समास
सिखाता है। विग्रह में सन्धि सिखाता है। आकृति के साथ द्रव्य को पदार्थ मानना
सिखाता है। भौतिकवाद के साथ ही आत्मवाद और ब्रह्मवाद की शिक्षा देता है।
व्याकरण शब्द और अर्थ दोनों को ब्रह्म मानता है। शब्दतत्त्व
के संरक्षण हेतु अर्थतत्व है। दोनों का समन्वय करना सीखना ही ज्ञान और विज्ञान है।
तभी तो कहा है महर्षि पतञ्जलि ने – “शब्दब्रह्मणि निष्णात: परं ब्रह्माधिगच्छति।“
फुट नोट्स
1-
“सर्ववेदपारिषदं
हीदं शास्त्रम्, तत्र नैकः पन्थाः शक्य आस्थातुम् “ महाभाष्य 2/1/58
2-
अष्टाध्यायी 1/1
3-
महाभाष्य 1/1पस्पशाह्निक
4-
ऋग्वेद 10/71/02
5-
महाभाष्य 1/1पस्पशाह्निक
6-
अष्टाध्यायी 1/2/45
7-
अष्टाध्यायी 1/2/46
8-
निरुक्त 1/4
9-
अष्टाध्यायी 3/4/111
10-
अष्टाध्यायी 8/3/20
11-
महाभाष्य 7/1/2
12-
नंदिकेश्वर
काशिका
13-
अष्टाध्यायी
प्रत्याहार सूत्र-1
14-
अष्टाध्यायी 8/4/67
15-
अष्टाध्यायी 1/1/1
16-
अष्टाध्यायी 1/1/70
17-
अष्टाध्यायी 1/3/3
18-
महाभाष्य 1/1/21
19-
उणादिकोष 1/114
20-
वा0 8/4/47
21-
ल0 शे0/टीका/अभि.च./संज्ञाप्रकरण
22-
महाभाष्य 1/1/1
23-
महाभाष्य 6/1/77
24-
अष्टाध्यायी 4/2/74
25-
परिभाषेन्दुशेखर 3 प्रकरणान्त्या
26-
पाणिनीय:
अष्टाध्यायीसूत्रपाठः श्रीरामलालकपूरट्रस्ट रेवली सोनीपत
27-
अष्टाध्यायी 1/1/1
28-
अष्टाध्यायी 1/1/2
29-
अष्टाध्यायी 1/1/3
30-
अष्टाध्यायी 1/1/4
31-
अष्टाध्यायी 1/1/5
32-
तन्त्रवार्त्तिक 2/3/11
33-
अष्टाध्यायी 3/4/69
34- अष्टाध्यायी 1/3/11
35-
महाभाष्य 1/1/4
36-
अष्टाध्यायी 1/1/48
37-
अष्टाध्यायी 1/4/49
38-
महाभाष्य 2/1/1
39-
अष्टाध्यायी 3/1/1
40-
वाक्यपदीयम् 1/132
41-
अष्टाध्यायी 6/1/84
42-
अष्टाध्यायी 6/1/97
43-
अष्टाध्यायी 1/4/2
44-
अष्टाध्यायी 6/1/74
45-
अष्टाध्यायी 8/2/1
46-
अष्टाध्यायी 8/2/66
47-
अष्टाध्यायी 6/1/110
48-
अष्टाध्यायी 8/3/14
49-
परिभाषेन्दुशेखरपरिभाषा
51
50-
अष्टाध्यायी 8/2/33
51-
परिभाषेन्दुशेखरपरिभाषा
52-
अष्टाध्यायी 6/4/132
53-
अष्टाध्यायी 2/3/16
54-
अष्टाध्यायी 1/4/49
55-
अष्टाध्यायी 2/3/2
56-
अष्टाध्यायी 1/4/2
57-
परिभाषेन्दुशेखरपरिभाषा
103
58-
अष्टाध्यायी 1/2/45
59-
ऐतरेय ब्राह्मण 6/3, शतपथ ब्राह्मण 2/1/4/10
60- वाक्यपदीयम् 1/144