गुरुवार, 6 मई 2021

सेवाशक्ति के आधार हैं हमारे दो चरण : पद्भ्यां शूद्रोSअजायत



पद्भ्यां शूद्रोSअजायत    
वैदिक परिभाषाएं सामान्य परिभाषाएं जैसी नहीं होती हैं।इन्हें समझने के लिए अतिरिक्त श्रम की आवश्यकता पड़ती है।द्विपद और चतुष्पद शब्द मनुष्य और पशु का संज्ञान कराते हैं।पद और पाद अंगवाची पैर के लिए प्रयुक्त होते हैं।मनुष्य को द्विपद इसलिए कहते हैं कि उसके दो पैर हैं।द्विपद में सभी तरह के मनुष्यों का अंतर्भाव है।पाद अर्थात् पैर की महत्ता अन्य शरीर के अंगों से कभी भी  कमतर नहीं आँकी जा सकती है।
पैरों की अपनी अनौखी विशेषता के कारण वैदिक परम्परा में चरणवंदना का बहुत महत्व है।शक्ति के केंद्र चरण होते हैं।रामायण युग से लेकर अद्यतन अंगद का पैर इसी शक्ति के भाव को प्रकट करता है।पैर यदि लड़खड़ाने लग जाएं तो फिर सर,हाथ आदि अंग भी शून्यता की तरफ बढ़ने लगते हैं।शरीर के संवाहक हैं हमारे दो चरण।इस संवाहकता के कारण गुरुपाद, पितृपाद, आचार्यपाद, चरणकमल, चरणारविन्द आदि पद सम्मानित माने जाते हैं।वैदिक साहित्य में अभिवादन के समय चरणस्पर्श की महत्ता बहुत अधिक है।कभी भी कोई चरणस्पर्श की जगह शिरस्पर्श नहीं करते हैं।सामाजिक व्यवहार में पाद  शब्द चतुर्थांश को भी व्यक्त करता है।
मानवसंस्कृति के एक चौथाई का प्रतिनिधित्व करते हैं  सेवाशक्ति से सम्पन्न ये चरण।शूद्र सेवाशक्ति से संपन्न है।शूद्र सेवा से अपनी जीविका चलाते हैं।चार शक्तियां हैं - एक ज्ञान की,दूसरी बल की,तीसरी संग्रह की और चौथी सेवा की।सेवा की महत्ता किसी से छुपी नहीं है-सेवाधर्म: परमगहनः।मनु ने सेवा की ओर संकेत किया है-वर्णानां शुश्रूषामनसूययायाज्ञवल्क्यस्मृति के अनुसार- शिल्पैर्वा विविधैः जीवेत् द्विजातिहितमाचरन्।शिल्पविद्या भी शूद्रों की शक्ति मानी जाती थी।
जब भी हम शुद्र को अधम मानेंगे तभी हम  मानवीयगरिमा से रहित हो जाएंगे और समाज की दुर्गति के भी कारण बनेंगे।जो यह मानते हैं कि शूद्र व्यक्तित्वविकास व अध्ययन की तरफ गतिमान नहीं होते हैं, उन्हें कुछ भी नहीं सिखाया जा सकता है।वे टस से मस नहीं होते हैं जड़ता दिखाने में।वे मूढ़ हैं, वे शूद्र कहलाते हैं।वास्तव में यह सोच बिल्कुल गलत है।जो भी शूद्र को मूर्ख और मूढ़ मानता है,वास्तव में वह मानवीय-गरिमापूर्ण व्यवहार से स्वयं को वंचित कर रहा होता है।शूद्र को मूर्ख कहना बिल्कुल गलत है,अशास्त्रीय और अमर्यादित भी।यजुर्वेद का ऋषि स्वयं इसमें प्रमाण है- यथेमां वाचं कल्याणीमावदानिजनेभ्यः। ब्राह्मणराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय।।
वेद का ज्ञान (शिक्षा)बिना किसी भेदभाव के सम्पूर्ण मानव जाति के लिए है।ऋषि शूद्र को साक्षात संबोधित कर रहा है। ज्ञान से इन्हें वंचित रखना और दुराग्रह से इन्हें मूढ़ या मूर्ख मानना मानवता पर कुत्सित प्रहार है।सत्य तो यह है कि मूर्खता तो किसी भी वर्ण के व्यक्ति में देखी जा सकती है।किंवदंती है कि एकबार एक माँ  जब अपने पुत्र को खाने के लिए थाली में गर्म खीर परोसती है तो उसका पुत्र खीर खाने के लिए जल्दी से थाली के बीच में जैसे ही अपना हाथ डालता है तो उसका हाथ जल जाता है।पास बैठी मां ने जब उसका हाथ जलता देखा तो उससे सहा नहीं गया और उसने अपने बेटे से कहा- बेटा! तू तो चाणक्य जैसी मूर्खता कर रहा है।चाणक्य भी तेरे जैसे ही जल्दी-जल्दी के चक्कर में अपने शत्रुओं के बीच में ही हमला कर रहा है। उसे किनारे से हमला शुरू करना चाहिए,वहां शत्रु निष्क्रिय होता है। बेटा! तू पहले किनारे से खाना शुरू कर।वहां  बीच की अपेक्षा  खीर जल्दी ठंडी हो जाती है।ऐसा करने से फिर न तो तेरा हाथ ही जलेगा और नहीं मुख।कहते हैं कि मां-बेटे के इस संवाद को सुनकर ही चाणक्य को योजनाबद्ध तरीकों से शत्रु को पराजित करने के लिए सफल रणनीति बनाने का ब्लूप्रिंट (रहस्य)मिला था।
सेवाशक्ति और मानवता के आधार स्तम्भ हैं शूद्र।शूद्र को वैदिक संस्कृति में निम्न नहीं समझा जाता है।मृच्छकटिकम् में तो राजा का नाम ही शूद्रक था।समाज में व्यवस्था चाहे कर्म आधारित वर्णविभाजन की हो या फिर जाति  आधारित कर्म की।जब भी कोई शब्द सामाजिक तानेबाने को ध्वस्त कर अस्पृश्यता बढ़ावा देता है तो समाज उससे स्वतः दूरी बनाने लगता है।
आज के समय में शूद्र शब्द बहुत ही गर्हित अर्थ में माना जाने लगा है।आज 
शायद ही कोई व्यक्ति स्वयं को शूद्र कहलाना पसंद करे।आधुनिक समाजवैज्ञानिकों ने तभी तो वर्तमान संदर्भ के मद्देनजर दलित शब्द को गढ़ा है। यद्यपि दलित शब्द से शोषित व  वंचितवर्ग का अवगाहन होता है।इस वर्ग के हुए शोषण को कदापि विस्मृत नहीं किया जा सकता है।लेकिन शोषण और वंचितसमुदायों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ग न स्वीकारना भी अनुचित है।
वस्तुतः वैदिकपरम्परा में पुष्पदल और तुलसीदल बहुत ही सम्मानित प्रयोग है। जो दल पुष्पों से बिछुड़ गया हो ,टूट गया हो।ठीक, इसी तरह से जिस समूह को सामाजिक समरसता से वंचित कर दिया गया हो,उसे ही आधुनिककाल में दलितरूप में परिभाषित किया गया है।दलितविमर्श के साथ ही स्वयं को आभिजात्यवर्ग से सम्मानित मनाने वाले लेखकों और विचारकों के लिए निम्नप्रदत्त अवधारणा अवश्य विवेचनीय है-नाविशेषोSस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्।ब्रह्मणा पूर्वसृष्टा हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ।।
ईश्वर ने सभी मनुष्यों को ब्राह्मण के समान ही उत्पन्न किया है।लेकिन अपने भिन्न-भिन्न कर्मो ने ही वे विभिन्न वर्णों में विभाजित हुए हैं।साहस कर्म वाले लोग ब्राह्मणवर्ण से क्षत्रिय,व्यापार के प्रति झुकाव वाले ब्राह्मणवर्ण से वैश्य तथा सेवा में रुचि रखने लोग ब्राह्मणवर्ण से ही शूद्र  बने हैं।शायद इसीलिए अत्रि स्मृति में कहा गया है- जन्मन: जायते विप्र: संस्काराद्द्विज उच्यते।
                                                                                                                         -डॉ. कमलाकान्त बहुगुणा



बुधवार, 5 मई 2021

धरना समाधान नहीं, नौटंकी है



जब शत्रु सारी मर्यादाएं लांघ जाए तो फिर युद्ध नैतिकता के साथ नहीं लड़ा जा सकता है।इतिहास  पृथ्वीराज जैसी मूर्खताओं को  कब तक स्मरण  करता रहेगा। भगवान श्रीकृष्ण ,आचार्य चाणक्य और वीर शिवाजी जैसी नीतियां ही ऐसे समय में अनुकरणीय होनी चाहिए।इस समय धरना-प्रदर्शन समाधान  नहीं हो सकता है। इन TMC के गुंडों को जमकर धरना पड़ेगा ,यही एक मात्र समाधान है। आपने उनका  नामक खाया है। धरने देने से नमक का कर्ज नहीं चुकता साहब ,उनकी रक्षा के लिए  लिये चाहे  अपने प्राणों की आहुति क्यों  देनी पड़े तो भी उनके साथ वहां खड़े होइए । धरने से आपकी कजरी जैसी नोटंकी लग रही है। माफ करना अगर बुरा लग रहा हो तो। पर सच तो कहना  भी पड़ेगा और आपको सुनना तथा सहन  भी करना होगा।
कार्यकर्ता के लिए प्रशंसा के बोल तभी तक मायने रखते हैं, जब तक वह अंतर्मन को आह्लादित करते हैं। लेकिन जब उनके प्राण संकट में हो तब प्रशंसा के बोल जहर जैसे चुभते हैं।काश !TMC के गुंडो द्वारा मारे जा रहे कार्यकर्ताओं को सुरक्षा दे पाते। गरीबों के घर तो  खाना खाने की फोटो BJP के बड़े-बड़े नेता खूब खिंचवा रहे थे लेकिन वह समय कब  आएगा जब ये बड़े-बड़े नेता उन गरीबों को अपने महल में खाना खिलाते हुए फोटो खिंचवाएँगे? क्या कभी ऐसे दिन आएंगे।बेचारे बंगाल के कार्यकर्ताओं की जान की सुध लेगा कोई?
TMCवालों ने तो खेला शुरू भी कर दिया है। 43 BJP आफिस को आग लगा दी गई।सौ BJP बूथ वर्कर के घर जला दिए गए ।BJP समर्थकों के बड़े बड़े शोरूम, कलकत्ता पुलिस के सहयोग से लूट लिए गए ।बहुत  से  लोग असम के लिए पलायन कर चुके हैं।सुवेन्दु अधिकारी  पर  हमला किया गया।देवदत्ता के घर को जला दिया गया।BJP के  कार्यकर्ताओं को मार दिया गया।तभी तो ममता दीदी कहती रही कि खेला खेलबो उसका यही तो खेला था ।कार्यकर्ताओं के मरने और  बलात्कार के बाद भी खून नहीं खोल रहा है मोदी और शाह का तो क्या अर्थ निकालें इससे? यदि यही सब  मोदी और शाह की बेटियों के साथ होता तो भी इसी तरह धरना देने की नौटंकी करते क्या?ऐसा लग रहा है कि साहब नोबेल पुरस्कार की दौड़ में शामिल होना चाहते हैं।
सच बात तो यह है कि BJP को अपने कार्यकर्ताओं की जान की परवाह कभी  नहीं रही है। सबको पता था चुनाव  के बाद TMC के गुंडे यही करेंगे। जब कार्यकर्ता ही मर जाएंगे तो फिर ऐसी पार्टी को सपोर्ट ही क्यों कोई करे ,जो हमारे जानमाल  की परवाह ही न कर सके, उस पार्टी को वोट क्यों दें?मोदी और शाह भगवान नहीं हैं।इन्हें चेतावनी देकर जगाना जरूरी है। 
जो पार्टी अपने कार्यकर्ताओं को मरने के लिए छोड़ दे उसे मौन होकर सहने से क्या लाभ। लोकसभा में प्रचंड बहुमत के बाद भी कुछ न कर सके तो फिर उसे फटकारना भी जरूरी है। मोदी और शाह को भी जबाब देना  होगा कि आखिर बंगाल के लोगों ने  अपनी जान हथेली पर रखकर आपके भरोसे ही वोट दिया था , लेकिन अब BJP वाले धरना-धरना खेल रहे हैं । धिक्कार है ऐसे छप्पन इंच की छाती वाले को।हमारा इतिहास गवाह है कि बलि बकरे की ही दी जाती है ,शेर की  कभी नहीं।इसलिए सिंह बनो सिंह। बकरी जैसे मिमियाते रहोगे तो बलि के बकरे  ही समझे जाओगे।
                                                                                                        -डॉ. कमलाकान्त बहुगुणा

मंगलवार, 4 मई 2021

धारणा नहीं संभावना को तलाशें



बहुत सालों तक शिक्षण प्रोफेशन से जुड़ा रहा हूं।उस समय की एक घटना  का ज़िक्र करना जरूरी समझ रहा हूं।विद्यालय में एक डांस टीचर के साथ कुछ ऐसा घटित होता हैजो कभी भी किसी भी टीचर के साथ घटित नहीं होना चाहिए।एकदिन जब वह किसी कॉम्पटीशन के लिए बच्चों की तैयारी करा रहे थे तो विद्यालय के कुछ बच्चे खिड़कियों के पीछे छिपकर लड़कियों का डांस देख रहे थे।अब विद्यालय में अनुशासन बनाए रखना हर शिक्षक की जिम्मेदारी होती  है।यूं तो लड़कियों का डांस देखने में कुछ भी गलत नहीं है।क्योंकि वे आज डांस सीख रही हैं तो कल अपनी प्रस्तुति देंगी ही।लेकिन हर चीज का एक खास समय होता है और एक खास स्थान भी।इस तरह की समग्र अवस्था का सचेतन बोध कराता है मर्यादा शब्द ।मर्यादा को ही लक्ष्मण रेखा कहते हैं।यदि मर्यादा टूटेंगी तो उससे मिलने वाले परिणाम दर्द भरे घाव जरूर देंगे।

कई बार हम यथार्थ की बजाय वही देखते हैंजो हम देखना चाहते हैं।यही धारणा कहलाती है।जैसे ही डांसटीचर ने डांसरूम का गेट खोला तो वहां से तभी एक सीनियर क्लास का छात्र गुजर रहा था।वह डांस देखने वालों में शामिल था भी यह नहीं ,इसकी विवेचना किए बिना डांसटीचर ने उसे देखते ही कुछ पूछे बिना ही उसके कॉलर पकड़कर क्लासरूम के अंदर ले आए और लड़कियों के सामने ही उसे दो-चार थप्पड़ जड़ दिए।आकस्मिक पिटाई से व्यथित उस लड़के ने पूछा- सर मुझे क्यों पीटा है आपने?उसके प्रश्न करने पर डांसटीचर ने उसे दुबारा पीटना शुरू कर दिया।अब लड़कियों के सामने इस अकारण पिटाई से व्याकुल छात्र ने भी डांसटीचर के हाथ पकड़ लिए।इस पकड़म्पकड़ाई में डांसटीचर जमीन पर गिर जाते हैं।जैसे कुछ बड़े छात्रों को यह पता लगता है तो उनमें से कोई ए..ऑफिस से माइक से अनाउसमेंट कर देता है कि डांस सर की पिटाई हो गई है।पूरे विद्यालय में यह बात आग की तरह फैल गई।

विद्यालय की महिला प्रिंसीपल ने नियमों का हवाला देते हुए उन डांस टीचर से क्षमा याचना के लिए कहा।प्रिंसीपल भी नियम के अनुसार ही यह कह रही थी।अब उस छात्र के पैरेंट्स को स्कूल में बुलाया गया।उसके पिता ने स्कूलऑफिस में पंहुचते ही हंगामा खड़ा करना शुरू कर दिया।अपशब्दों के साथ ही टीचर को जेल भेजने की धमकी भी देने लगे।

नियम भी यही है।पिता के इस व्यवहार से उस छात्र का हौंसला भी बढने लगा।मेरे पिता की हैसियत के सामने स्कूल नाकाफ़ी है।डांसटीचर को न चाहते हुए भी समय की हकीकत को भांपते  हुए उन पैरेंट्स से अन्ततः क्षमा मांगनी ही पड़ी।बसअब कुछ सालों के बाद पिता को पछताते हुए देखा है हमने।अगर इस पूरे घटनाक्रम का सिल-सिलेबार विवेचना की जाए तो एक बात साफ समझ में आरही है कि कोई भी अपनी भूमिका से समाधान के हिस्से  नहीं बन पाए थे।सब के सब रेडीमेड  समाधान की स्क्रिप्ट लिए अपनी-अपनी भूमिका अनुसार डटे हुए थे।

डांसटीचर स्मृति में पड़े तरीकों द्वारा संचालित मानस से धारणा गढ़ कर ही सबक सिखाने वाली प्रवृत्ति के साथ बच्चे से उलझे थे।छात्र भी लड़कियों के सामने अपनी पिटाई से अपमान के अहसास से ही टीचर से उलझा था।प्रिंसीपल ने भी नेतृत्व वाले गुणों की बजाय प्रबंधन पर ज्यादा फोकस किया था।पिता भी उत्तेजना में आकर बालक को सर चढ़ा गया।और आज वह छात्र भी पछता रहा है और उसके मां-बाप भी।किसी ने भी अपने अनौखपन के साथ मानवीय गरिमा की संभावना पर फोकस नहीं किया था।आखिर करते भी कैसे?भय ने सबको जड़ जो कर दिया था।शिक्षा के केंद्र में चेतना का सर्वथा अभाव भविष्य निर्माण की प्रक्रिया में सबसे अधिक चुनौती है।।हर कोई अपनी जिम्मेदारी से बचकर दूसरे के अपराध के मूल्यांकन के समय स्वयं के लिए वकील जैसा रवैया और दूसरों के लिए जज बन कर खड़े हो जाते हैं।

दो योग्यताएं विकसित करना बहुत अनिवार्य है।एक लीडरशिप की योग्यता और दूसरी मैनेजमेंट की योग्यता।ये दोनों कलाएं एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी हमेशा एक-दूसरे के पूरक हैं।इनमें अंतर समझना बहुत जरूरी है।नेतृत्व के मायने सही काम करने से है और प्रबंधन से तात्पर्य है सही से काम करना।दरअसल जब तक सही काम का निश्चय नहीं होगातब तक सही से काम करना केवल ऊर्जा की बर्बादी के अलावा और कुछ भी नहीं है।

लीडरशिप करुणा से भरपूर होनी चाहिए, तभी सृजन श्रेष्ठ होगा।विनम्रता और वात्सल्यता लीडरशिप की शक्ति भी है और पहचान भी।यदि नाविक ही पतवार खेने की अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश करेगा तो फिर नाव पर सवार लोगों का भविष्य खतरे में पड़ने से कौन रोक सकेगा? लीडर डर दिखाकर नहीं बल्कि प्यार लुटा कर ही टीम में सबको जोड़े रख सकता है।टीम का हर सदस्य उसके परिवार का सदस्य है। परिवार के किसी भी सदस्य पर आई विपत्ति से भला  वह मुंह कैसे मोड़ सकता है?जब उनका दर्द उसे अपना लगेगा और कोशिश करेगा कि  इस दर्द से उन्हें बाहर निकाला जाए,तभी वह सही अर्थों में लीडर कहलाता है। लीक से हटकर सोचने की योग्यता ही अच्छे लीडर पैदा करती है।जब भी सिस्टम पर कॉपी पेस्ट की स्क्रिप्टिड सोच वाले लोग बैठे होंगे तो नतीजे भी स्क्रिप्टिड जैसे ही  मिलेंगे।

-डॉ. कमलाकान्त बहुगुणा



लीडरशिप और मैनेजमेंट

दो योग्यताएं विकसित करना बहुत अनिवार्य है।एक लीडरशिप की योग्यता और दूसरी मैनेजमेंट की योग्यता।ये दोनों कलाएं एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी हमेशा एक-दूसरे के पूरक हैं।इनमें अंतर समझना बहुत जरूरी है।नेतृत्व के मायने सही काम करने से है और प्रबंधन से तात्पर्य है सही से काम करना।दरअसल जब तक सही काम का निश्चय नहीं होगा, तब तक सही से काम करना केवल ऊर्जा की बर्बादी के अलावा और कुछ भी नहीं है।

लीडरशिप करुणा से भरपूर होनी चाहिए।तभी सृजन श्रेष्ठ होगा।विनम्रता और वात्सल्यता लीडरशिप की शक्ति भी है और पहचान भी।लीडर किस भी विकट समस्या में क्यों न हो उसे अपनी टीम के प्रति नकारात्मक  रवैया निर्मित नहीं करना चाहिए।यदि नाविक ही पतवार खेने की अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश करेगा तो फिर नाव पर सवार लोगों का भविष्य खतरे में पड़ने से कौन रोक सकेगा? लीडर डर दिखाकर नहीं बल्कि प्यार लुटा कर ही टीम में सबको जोड़े रख सकता है।टीम का हर सदस्य उसके परिवार का सदस्य है। परिवार के किसी भी सदस्य पर आई विपत्ति से भला  वह मुंह कैसे मोड़ सकता है?उसका दर्द उसे अपना ही लगेगा।कोशिश करेगा कि कैसे इस दर्द से उसे बाहर निकाला जाए।
अफ़सोस है कि अधिकांश लोग आज वात्सल्यता की जगह मैनेजमेंट वाले गुण अर्थात् दूसरों पर नियंत्रण में अधिक अपनी ऊर्जा खपत कर रहे हैं।आज बड़ी से बड़ी लीडरशिप को आपा खोते हुए बहुत आसानी से देखा जा सकता है।लेकिन लीक से हटकर सोचने की योग्यता ही अच्छे लीडर पैदा करती है।जब भी सिस्टम पर कॉपी पेस्ट की स्क्रिप्टिड सोच वाले बैठे होंगे तो नतीजे भी स्क्रिप्ट जैसी ही मिलेंगे।कईबार बड़ी-बड़ी इमारतों के बनाने में मस्त और व्यस्त रहने वाले लोग इतने बेफिक्र नजर आते हैं कि नींव की परवाह ही नहीं करते हैं।जबकि हर इमारत की उम्र का रहस्य उसकी नींव में छिपा रहता है।बहुत बार लंबे समय से बीज बोए बिना फसल काटने के कारण शायद हम भूल ही चुके हैं कि बोना भी जरूरी है।
इमर्सन ने कहा था था-कि आप क्या हैं इसकी आवाज आवाज मेरे कानों इतनी तेजी से सुनाई देती है कि आप क्या कहते हैं मुझे सुनाई ही नहीं देता है।शब्दों और व्यवहार की अपेक्षा चरित्र की उच्चता को पैरेडाइम कहते हैं।दिल और दिमाग की सहभागिता जब चरित्र से प्रवाहित होती है तो भले ही कोई इंसान संवाद में कुशल और मानवीय सम्बन्धों की तकनीकी को न समझता हो लेकिन उसकी विश्वसनीयता में जीवन के सभी मूल्य प्रतिभासित होते हैं।क्योंकि चरित्र की आवाज ऊंचे स्वर में होती है।
-डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा



 
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रविवार, 2 मई 2021

समाधान की खोज में



बात बहुत बचपन की है।तब शायद मैं दूसरी या तीसरी क्लास में पढ़ने वाला छात्र रहा होऊंगा।मेरी और मुझसे बड़े भाई की प्रारंभिक शिक्षा पिताजी की देख-रेख में हुई थी।पिताजी तब के अखंड  उत्तरप्रदेश और आज के  उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के सरकारी स्कूल में  हैडमास्टर  थे।पिताजी का वर्चस्व विद्यालय और घर दोनों ही जगहों पर पूरी हनक के साथ विद्यमान था।मैं और मुझसे बड़ा भाई परिवार से अलग पिताजी के साथ ही रहते थे।हम दोनों भाइयों की सारी जिम्मेदारी पिताजी की ही थी।मां दादी के साथ गांव में खेतीबाड़ी के साथ-साथ गाय-बेलों और घर की देखभाल भी किया करती थी।

एकबार की बात है कि रोजाना की तरह दूधिया सुबह-सुबह हमारे क्वार्टर के दरवाजे पर रखे  बड़े-से लोटे में दूध डाल कर चला गया था।उसके जाने के कुछ समय के बाद मैं जैसे ही सुबह -सुबह अपने बिस्तर से  सोकर उठा तो वैसे ही अपनी अधखुली आंखों को अपने दोनों हाथों से मलता हुआ दरवाजे  की तरफ जाने लगा।जैसे ही मैं दरवाजे पर पंहुचा तो वैसे ही फ़र्श पर  रखे दूध से भरे लोटे पर मेरा पैर लग गया । मेरे पैर के लगते ही दूध का लोटा जमीन पर लुढ़क गया और सारा का सारा  दूध जमीन पर फैल गया।अब पिताजी द्वारा मेरी बहुत  पिटाई होगी, इस डर से मुझ में अंदर ही अंदर बहुत कंपकंपी छूटने लगी थी।मुझे तब कुछ सूझ भी नहीं रहा था कि आखिर मैं अब करूं तो करूं क्या? इसी डर   से  मैं अपने बचने के उपायों पर गौर करता हुआ दुबारा से अपने बिस्तर पर सो गया ।नींद तो अब आनी ही कहां से  थी। लेकिन अपनी  सांसें  थामे सोने का नाटक जरूर  करने लगा।

बस,कुछ ही देर के बाद  मुझे पिताजी  के घर के अंदर प्रवेश करने की आहट  सुनाई दी। वे जमीन पर दूध के लोटे को लुढ़का हुआ देखकर  गुस्से में तिलमिलाते हुए बोलने लगे कि तुम देर तक सोते रहते हो, इसलिए बिल्ली दूध पी गई और बचे हुए दूध को फैलाकर भी चली गई है।मैं भी अनजान-सा भाव लिए तथा अंदर ही अंदर पिटाई से बच गया हूँ इस आंतरिक आश्वासन के साथ राहत भरी सांस लेने लगा था।यद्यपि उस समय की मेरी समग्र प्रतिक्रिया का उद्दीपन भय ही रहा था और अभीष्ट उद्देश्य भी था गैरइरादतन अपराध के दंड से मुक्ति पाने का उपाय ढूंढना।परंतु कईबार हमारे दिलोदिमाग में सामाजिक दर्पण से प्रतिबिम्बित प्रतिक्रिया परिस्थितियों के अनुसार प्रकट हो जाया करती हैं।उस समय  मानस में प्रकट हुई नादानियों ने अपनी समझ व स्तर के अनुरूप निदान ढूंढ लिया था।आज भले ही वह निदान जीवनमूल्यों से किसी भी तरह से मेल खाता न दिखे ,लेकिन उस समय उसने मुझे और मेरे अंतर्मन को बहुत अधिक राहत का अहसास तो कराया ही था।

आज भी जब वह स्मृति मेरे मानस में उभरती है तो एक बात अवश्य स्पष्ट हो जाती है कि जीवन में चाहे कैसी भी समस्या क्यों न आ जाए,लेकिन उनसे न तो घबराना चाहिए और नहीं उनसे पलायन करना चाहिए।उनका सामना करने का अर्थ है,स्वयं उनके समाधान की खोज में निकल पड़ना।समाधान के प्रति हमारी तीव्रतम व्याकुलता हमारे अस्तित्व की परम पहचान है।हमारी व्याकुलता सचेतन प्रयास की उद्गमस्थली है।अंदर से यह अनुभूति चरम पर हो कि मैं हूँ न।मैं हूँ न का यह आत्मिक संवाद हमें समाधान का सारथी बनाकर ही छोड़ेगा।यही संवाद आत्मजागृति (Self Awareness) के बीज भी अंकुरित करता है।                                                      

                                                                   डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा 



शनिवार, 1 मई 2021

रत्ती भर की चींटी का पहाड़ जैसा साहस




मनुष्य का जीवन सदा गतिमान है।हमारे जीवन की राह चाहे आसान हो या फिर कठिन।इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है । अंतर लाने के लिए हमें हमेशा आगे बढ़ते रहना होगा।हमारे पास सबसे अच्छा विकल्प भी यही है।दृढ़ आत्मविश्वास से भरपूर होने पर ही हमारी राह आसानी से मंजिल तक पंहुच पाती है।प्रसिद्ध अमेरिकी फुटबॉलर जो नामक ने कहा था जब आपके अंदर आत्मविश्वास होता है तब आप जीवन का खूब आनंद उठा सकते हैं और फिर आप अद्भुत निर्माण कर सकते हैं। 
आत्मविश्वास और उम्मीद हमारी आंतरिक सुरक्षा के कवच हैं।उत्साह-उमंग से जीवन जीने की भावना का अर्थ है कि गतिमान जीवन को अंतर्मन से स्वीकार करना है।स्वामी विवेकानंदजी ने कहा था कि किसी दिन जब आपके सामने कोई समस्या न आए तो आप सुनिश्चित हो सकते हैं कि अब आप गलत मार्ग पर चल रहे हैं।परिस्थिति चाहे कितने भी कठिन क्यों न हो,लेकिन उससे घबराना कभी समाधान नहीं हो सकता है।समस्या से भागने की कोशिश बताती है कि आप में आत्मविश्वास और आशा का अभाव है।समस्या का डटकर मुकाबले के लिए खुद पर भरोसा होना बहुत आवश्यक है।स्वयं पर विश्वास मात्र से आपके अंदर सकारात्मक परिवर्तन आने लगता है।आप पॉजिटिव एनर्जी से भर जाते हैं। 
जीवन में सदा स्वस्थ,उत्साहित और ऊर्जावान बने रहने के लिए उम्मीदों का साथ होना अनिवार्य है।मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा है हमें सीमित निराशा को तो स्वीकार करना चाहिए परंतु अनंत उम्मीदों का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए।जीवन में कुंठा उत्पन्न होने के पीछे है हमारी अपेक्षाएं।हमारी अपेक्षाएं जब जीवनमूल्यों और प्राथमिकताओं के बजाय सामाजिकदर्पण से प्रतिबिंबित होती हैं।रत्ती भर की चींटी का पहाड़ जैसा साहस हम सबके मनोबल को बढ़ाता है।
कभी समय मिले तो चींटी को जरूर देखें।उनसे जीवन के रहस्य को सुलझाने वाले महत्वपूर्ण सूत्रों से परिचय मिलता है।चींटियां कभी किसी परिस्थिति की गुलाम नहीं होती हैं।हर परिस्थिति में स्वयं को निखारती है।किसी भी तरह की रुकावट उसके लिए अवरोध नहीं बन सकती है।वह उन रूकावटों को घूमकर, नीचे से या ऊपर से पार जरूर करती है।वह कभी परिस्थितियों का रोना लेकर नहीं बैठती है।हार न मानने का स्वभाव होता है चींटियों का।लक्ष्य पर नजर सदा गड़ाए रखती है । 
विजेता के लिए अनिवार्य शर्त है युद्ध के मैदान से पलायन न करना।मैदान छोड़कर भागने वाले कभी जीत नहीं सकते हैं।चींटियों में योजना को क्रियान्वित करने की अनोखी कला होती है।गर्मियों में सर्दियों की योजना बनाना उनकी विलक्षण प्रतिभा की पहचान है।धैर्य की अद्भुत खजाना है ये चीटियां।जब सर्दी होती है तो वह धैर्यता से गर्मी की प्रतीक्षा करती है।चीटियां परिणाम के प्रति सदा प्रयत्नशील रहती हैं। वे अपने काम को पूरा करने के लिए सदा कटिबद्ध रहती हैं।पूरे मनोयोग से अपने कार्य को अंतिम अंजाम तक पहुंचाती हैं।वे कभी भी व्यर्थ में अपनी ऊर्जा व्यय नहीं करती हैं। 
चीटियां सदा समूह में काम करती हैं।समूह यानी साझा शक्ति।साझा शक्ति का उपयोग यानी अधिक अच्छे परिणाम को हासिल करने की कला यह ।परस्परनिर्भरता के महत्व का सम्यक ज्ञान।समूह में मिलकर बांबिया बना लेती हैं।चींटियों की ये बांबिया इंजीनियरिंग के अद्भुत उदाहरण हैं।इन बाँबियों के अंदर हवा आने-जाने तक का विशेष ख्याल रखा जाता है।चींटियों की विशेष पहचान होती है कि वे अपने नेता द्वारा बताए गए रास्ते पर विनम्रता से चलती हैं।विनम्रता शक्ति है अपने अस्तित्व की प्रकृति से परिचित होने में। 
चीटियां श्रृंखलाबद्ध होकर चलती हैं। चींटियों की शृंखला परस्पर तालमेल का अद्भुत नजारा है।वे सदैव एक-दूसरे के मार्गदर्शक की भूमिका में रहती हैं।यह बेहतरीन नेटवर्किंग का शानदार उदाहरण है।चीटियों से हमें सीख मिलती है कि हम परिस्थितियों के गुलाम नहीं बनें।लक्ष्य पर हमारी सदा दृष्टि हो।हम युद्ध से पलायन नहींकरें, योजना का क्रियान्वयन की अनोखी कला होती है।परिणाम के प्रति हम अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते हैं।व्यर्थ में हमें अपनी ऊर्जा का क्षय नहीं करना चाहिए। हम समूह में विनम्रतापूर्वक नेतृत्व का अनुसरण करते हुए अपने काम को अंजाम तक पँहुचना चाहिए।                                                       
                                         -डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा



सोमवार, 19 अप्रैल 2021

हर किसी की लालू जैसी किस्मत कहाँ

चारा घोटाले में 23 दिसंबर 2017 को जेल जाने के बाद कोर्ट द्वारा लालू प्रसाद यादव को मिली जमानत ने एक बार फिर से आम और खास के बीच में एक बड़ी खाई पैदा कर दी है।आम आदमी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।उसे लालू की जमानत से न तो खुशी है और न ही गम है।बस, तकलीफ़ इतनी जरूर है कि जैसे चारा घोटाले में अपराध सिद्ध होने पर लालू को सात-सात वर्ष की मिलाकर चौदह साल की सजा मिली थी।चौदह साल की सजा के साढ़े तीन साल काटने के बाद ही अठारह अप्रैल को लालू को जमानत मिल जाती है।जमानत से जहां उनके परिवार और  उनकी पार्टी में दिवाली जैसी खुशी है तो वहीं विरोधियों के हलक सूखते नजर आरहे हैं।इतने बड़े अपराध पर न्यायालय उन्हें जमानत देता है तो क्या अन्य जो दबे-कुचले, शोषित गरीब मुजरिम भी कोर्ट में जमानत ले पाते हैं कभी।वे कपिल सिब्बल जैसे वकीलों की फीस भर सकेंगे कभी?

हमारी कोर्ट के फैसलों पर प्रश्न चिन्ह लगाने की न तो कोई मंशा है और नहीं यह हमारी फितरत है।बस, इतनी जिज्ञासा जरूर है कि स्वतन्त्र भारत में दबे-कुचले,शोषितों तथा सुख-सुविधाओं से वंचित , किसी तरह से जीवन यापन के निचले पायदान पर स्थित जीवन बसर करने वालों के लिए भी लालू जैसी किस्मत के दरवाजे खुल सकेंगे कभी?न्याय की देवी के मंदिर में उनके कराहने की चीखें इतनी इत्मीनान से सुनी जाएंगी ?न्याय की देवी के तो आंखों और कानों पर काली पट्टी बंधी है,इसलिए कानून की देवी को न तो स्वयं कुछ दिखता है और न ही कुछ सुनता है।इसके मंदिर के पुजारी जैसा बताएंगे और जैसा दिखाएंगे उसीके आकलन से न्याय का भविष्य सुनिश्चित होता है।भारतीय पूजापद्धति में मूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा की जाती है।उसकी चेतनामय उपस्थिति हेतु यह अद्भुत अनुष्ठान है।यद्यपि यह सारा अनुष्ठान श्रद्धा जन्य है।इसके पक्ष-विपक्ष हैं।हिन्दूसमाज में यह लंबे समय से परम्परा में है। अस्तु, जिस भगवती के आंख और कान पर पट्टी बंधी हो वहां कोई तो हो जो उस देवी को कन्विंस कर सके जो उस न्याय स्वरूपादेवी को संतुष्ट कर सके।यद्यपि कई स्थितियों में इस देवी के अन्तःचक्षु इतने पैने होते हैं कि स्वतः संज्ञान भी ले लेती है।परंतु ये स्थितियां सर्वत्र नहीं हुआ करती हैं।अब पीड़ित और अपराधी के नियमन और व्यवस्था के लिए न्यायालयों में वकीलों की कानून की बारीकियों की दक्षता के साथ वाक्पटुता का बहुत महत्व है।वकीलों में यह महत्ता जितनी  अधिक होगी,उतनी ही अधिक उनकी कीमत तय होगी।

आज के समय में न्याय बहुत महंगा हो गया है।आम आदमी को न्याय मिल पाना आसान नहीं है।न्याय उन्हींको मिल पाता जो इसकी अच्छी-खासी कीमत चुका पाते हैं।अन्यथा बहुत से गरीब अपराध सिध्द हुए बिना बीस-बीस सालों तक सलाखों के पीछे घुट-घुट कर सड़ने को मजबूर होते है।अभी पिछले दिनों ही एक गरीब बेचारे युवक की बीस-बाइस साल की जिंदगी इस कीमत को न चुकाने के कारण ही बरबाद हो गई थी।

स्वर्गीय राजीव दीक्षित एक बात कहा करते थे कि भारत में अंग्रेजों ने जो कानून बनाए थे।वे न्याय के लिए नहीं थे।ये सब निरंकुश सत्ता के अहं किरदार थे। वे कहते हैं कि उस कानून को न्याय समझना सबसे बड़ी भूल है।वे न्याय की बात नहीं लॉ की की बात करते थे। वर्तमान सीजीआई  बोवड़े साहब ने भारत के न्यायदर्शन की प्रशंसा की है।।अंग्रेजों ने भारत की न्यायव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था को समझने में बहुत समय लगाया था।उनके बहुत से पत्रव्यवहार इस बात के साक्षी हैं कि भारत में गुरुकुलो की ख्याति सत्तरह सौ की सदी तक विद्यार्थियों में  बहुत अधिक  थी। गुरुकुलों में आचार्य एक और पढ़ने वाले छात्र सैकड़ों में होते थे।अंग्रेजों की छानबीन में जब यह निकल कर आया कि बड़ा आचार्य भले ही एक है ,लेकिन वहां पठन-पाठन में कोई व्यतिक्रम नहीं होता है।बड़े छात्र छोटों को पढ़ाते हैं।अंग्रेज अपने शासन को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए भारतीय राजाओं को डरा धमकाकर गुरुकुलों में मारकाट मचाने लगे और गुरुकुलों बन्द करने के लिए भारतीय राजाओं को विवश करने लगे।उस समय गुरुकुलों को राजाओं का सहयोग प्राप्त होता था।इस षड्यंत्र को आगे जाकर मैकाले ने अमलीजामा पहनाया था।

दूसरा महत्त्वपूर्ण बिंदु था भारत की न्याय प्रणाली उसे भी उन्होंने ध्वस्त कर दिया, ताकि यहां के लोगों को कभी न्याय मिल ही न पाए। पंच परमेश्वर की न्याय पद्धति से अंग्रेज अचंभित होने लगे।दोनों पक्ष पंचों को परमेश्वर मानते थे।इस निष्पक्ष न्याय प्रक्रिया को अंग्रेज कैसे पचा सकते थे।पुनः एकबार यह बात और अधिक प्रामाणिकता से स्पष्ट हो रही है कि स्वतंत्रता के बाद भारत की महंगी  शिक्षाव्यवस्था और न्यायव्यवस्था के बोझ में दबा-कुचला,शोषित गरीब कब तक पिसता रहेगा?क्या कोई सरकार इस पर बिना आंकड़ों के खेल से स्वस्थ विमर्श हेतु विश्वसनीय योजना बनाने के लिए संकल्पित होंगी?आज शिक्षासंस्थाएं और न्याय की संस्थाएं चालाकियों से नियमों की व्याख्याएं करने में सिद्धहस्त हो चुकी हैं।इन संस्थानों में किस तरह से  खेल खेले जाएं जिससे अपने स्वार्थ अधिक पूरे हों,कैसे न्याय की देवी और ज्ञान की देवी को पर्दे में डालकर अपनी कुटिल चालों की निपुणता से दोहन किया जा सके।बस, एक उम्मीद है कभी तो अंधेरा छटेगा , कभी तो सबेरा होगा।

डॉ कमलाकान्त बहुगुणा

Chairman: Varenyam Journey to the Bliss

 

 

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

घिसटती पिसती पहाड़ की नारियां



उत्तराखंड भी दूसरा बिहार बन सकता है ।यदि समय रहते  सही रणनीति और नेतृत्व  का अनुसन्धान नहीं किया गया। वैसे भी पहाड़ की संस्कृति में ख और ब का महत्त्व बहुत ज्यादा है। अस्पृश्यता तो वहां भयानक बीमारी है इसके विरोध में तो कोई  पहाड़ में उतर ही नहीं सकता।साथ ही नए नए नौजवानों की राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाओं का  मुकाम AAP  भी हो सकती है। पहाड़ के युवक या तो फौज में या फिर होटल में ज्यादा सरीख होते हैं।
उच्चशिक्षा का आकर्षण  नशे की लत में बौना ही है।कोई बिरले ही अपने माँ बाप की तपस्या का सुपरिणाम दे पाते हैं।वैसे भी पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम आती ही कितनी है।पलायन तो होगा ही जब रोजगार नहीं मिलेंगे।युवा अवस्था में ही बुढ़ापा  झलकता है चहरे पर।कभी जो ईमानदारी थी पहाड़ों में वो भी रफूचक्कर।आज भी जो नहीं बदला पहाड़ में वह पहाड़ की महिलाओं के संघर्ष की जीवन गाथा।वंदनीय तो पहाड़ों की नारियां हैं जो घिसटती पिसती रहती हैं फिर भी उप्फ तक नहीं करती।





मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

भारत बनेगा विश्वगुरु?



भारत को पुनः विश्वगुरु के पद पर प्रतिष्ठापित करने में शिक्षा प्रमुख भी है और अनिवार्य भी। पुनर्स्थापना की इस प्रक्रिया में भारत और विश्वगुरु इन दो शब्दों की अर्थ प्रकृति का अवगाहन  ही प्रवेश द्वार है। प्रवेश द्वार का होना  उत्साह को द्विगुणित कर देता है। भारत शब्द में एक पूरी फिलॉस्फी अंतर्निहित है। भारत यह शब्द चाहे कितना ही पुराना क्यों न हो , लेकिन अर्थ की प्रकृति से यह सदा नवनीत सदृश नित नूतन अर्थ की अभिव्यंजना करता है।

भारत = भा और रत इन दो शब्दों से मिलकर बना है। भा का अर्थ  प्रकाश होता है और सच्चा प्रकाश ज्ञान के सिवा कुछ भी नहीं है।ऋते ज्ञानान्न मुक्ति:’ का भी यही संकेत है। रत का अर्थ है रम गया ।जो रम गया वही राम है, वही तल्लीनता है, वही सच्चा राग भी कहलाता है। सदैव ज्ञान की अनुरक्ति ही मात्र  ऐसा आदर्श है जो भारत को प्राचीनतम और आधुनिकतम दो विशेषताओं से निरूपित करता है। भारत वैदिक काल से लेकर आज के कॉरोना काल तक ज्ञान का पिपासु ही है। सदा से यही  ज्ञान की पिपासा जिज्ञासा में उद्दीपन का कारण रही है।

विश्वगुरु = विश्व और गुरु इन दो शब्दों से मिल कर बना है।विश्व का अर्थ है संसार और गुरु का अर्थ है अंधकार दूर करने वाला अर्थात् प्रकाश का कारक प्रकाश अर्थात् ज्ञान का आलोक   विश्वगुरु का एक अर्थ है संसार का गुरु। जो यहां स्पष्ट समझ में आरहा है। यह हमारी मंजिल भी है।परन्तु मंजिल तक पंहुचाने वाली राह का अवलोकन भी अनिवार्य है।विश्वगुरु मंजिल की राह का रहस्य भी विश्वगुरु शब्द में ही छिपा है। अब विश्वगुरु का अर्थ थोड़ा लीक से हटकर परन्तु लक्ष्मण रेखा के अंदर ही विवेचनीय है।  विश्व का अर्थ सारे और गुरु का अर्थ शिक्षकविश्वगुरु से तात्पर्य है - सारे गुरु। विश्वगुरु यदि मंजिल है तो उसकी राह भी विश्वगुरु से ही निकलती है।

भारत में सदा से ज्ञान के आदान - प्रदान की महान् परंपरा रही है। जब भी इस महान् परंपरा का अनादर या विस्मरण हुआ है तो कोई कोई गुरु जरूर प्रकट हुआ है। यदि धृतराष्ट्र ने पुत्रमोहवश इस प्रक्रिया में अवरोध खड़े करने में अनेकों षड्यंत्रों का जाल बुना था तो श्रीकृष्ण सदृश गुरु भी धृतराष्ट्र के सभी तरह के कुकर्मों के प्रतिकार हेतु अदम्य पराक्रम और अपरिमेय विवेक के साथ विद्यमान थे। मगध नरेश नंद की अकर्मण्यता और निरंकुशता का मानमर्दन का बीड़ा आचार्य चाणक्य ने उठाकर भारत को पुनः एक सूत्र में पिरोने वाले सम्राट चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक भी करवाया था।महर्षि वशिष्ठ और ऋषि विश्वामित्र आदि गुरुओं की कर्मस्थली रही है यह भारतभूमि।

वर्त्तमान परिदृश्य में जिनके भी पास ज्ञानवितरण की  महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है, उन्हें इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का स्वतः ही विश्लेषण करने की आवश्यकता है।इस जिम्मेदारी का संवाहक है शिक्षकवर्ग।जिम्मेदारी को इंग्लिश में responsibility कहते हैं। response + ability -The ability to choose your response. प्रतिक्रिया चुनने की योग्यता को responsibility कहते हैं।सामान्यतया प्रतिक्रिया के चयन में दो तरह की मानवीय प्रवृत्तियों का बोलबाला होता है। एक प्रवृत्ति है-अपने या दूसरे के व्यवहार के लिए स्थिति-परिस्थितियों या फिर कंडीशनिंग को दोष मढना। इस प्रवृत्ति में ब्लेमगेम और विक्टिम कार्ड खेले जाते हैं।दूसरी प्रवृत्ति वाले अपनी जिम्मेदारी को अच्छी तरह से समझते हैं , वे भावनाओं बहने की बजाय जीवनमूल्य आधारित अपनी चेतना द्वारा परिणाम परक प्रतिक्रिया का चुनाव करते हैं। वे किसी भी व्यवहार के लिए परिस्थितियों को दोषी नहीं मानते हैं।आचार्य चाणक्य हों या फिर आदि शंकराचार्य,अरस्तू हों या सुकरात,कबीर हों या गुरुनानक,समर्थ गुरुरामदास हों या फिर रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानन्द हों या फिर स्वामी विवेकानंद अथवा यहूदी मनो वैज्ञानिक फ्रेंकल हों या फिर इमर्सन - इन सबके पास भी मौका था परिस्थितियों के नाम पर रोने का लेकिन इन्होंने अपनी समग्र चेतना के अनुप्रयोग से प्रतिक्रिया करने में अपनी योग्यता का परिचय देकर विश्व के लिए सतत प्रेरक की पदवी में विराजमान हो गए।

यदि भारत को विश्व का मार्गदर्शन करना है तो उसे आधुनिक गुरुजनों की मनोदशा का विश्लेषण करना ही पड़ेगा।यद्यपि शिक्षा के क्षेत्र में भारतसरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले बहुत गैरसरकारी संगठन जैसे डीएवी, सरस्वती शिशु मंदिर, डीपीएस, बालभारती, शिवनादर, बीजीएस तथा पतंजलि आदि अनेकों ट्रस्ट और सोसायटी इस आंदोलन में बढ़चढ़ कर भाग ले रहे हैं। समय समय पर सरकार  उनके इस कार्य की प्रशंसा हेतु उन्हें सम्मानित करती है।

ये सब कार्य आवश्यक तो हैं परंतु विश्वगुरु के रूप में पर्याप्त नहीं है।आचार्य चाणक्य ने कहा है कि शिक्षक की गोद में सृजन और प्रलय दोनों पलते हैं। इस वाक्य को गहराई से समझने के लिए हमें यह जरूर विचारना होगा कि सृजन और प्रलय का ब्लूप्रिंट तैयार करना होगा। भविष्य को वर्तमान में लाने की क्षमता का नाम है ब्लूप्रिंट है।आचार्य चाणक्य जंगल मे गाय-भैंस चराने वालों लड़कों में से भारत का भावी सम्राट ढूंढ लेते हैं। इसे कहते हैं सृजनयही यथार्थ में ब्लूप्रिंट की प्रासंगिकता भी।

कक्षा में प्रवेश वाले शिक्षक यदि छात्रों के तात्कालीन अभद्र व्यवहार से मूल्यांकन करता है तो फिर सृजन की गारंटी कैसे कोई ले सकेगा? सृजन की अनिवार्यता में प्रथम संकल्प है प्रत्येक विद्यार्थी को अनौखा स्वीकारना। संसार मे जन्मने वाला प्रत्येक मानव अद्वितीय है। इस धरती में कोई भी किसीका डुप्लीकेट नहीं है।धारणा को छोड़ कर संभावना पर नजर रखनी होगी ।

छात्र की गरिमा और अस्तित्व का ख्याल हर पल रखना होगा। शिक्षक को खुद भी मैनेजमेंट के समक्ष निर्भय रहना होगा और छात्रों को निर्भयता का वातावरण देना होगा।इस बात की सदा मन में गांठ बांधनी होगी की excellence act नहीं habit है। और आदत बनाने के लिए शॉर्टकट रास्तों से नहीं गुजरना होता है, पूरी प्रक्रिया को महत्व देना ही पड़ेगा। ज्ञान, योग्यता और इच्छा का समन्वय नई आदत को निर्मित करने में प्रबल उद्दीपन हैं।ज्ञान बतायेगा कि क्या करना है और क्यों करना है। जबकि योग्यता कैसे करना है का उत्तर है। बिना इच्छा के ज्ञान और योग्यता का कोई अर्थ ही नहीं रहता है।पढ़ने और सीखने के बुनियादी फर्क को भी समझना होगा। दोनों ही क्रिया है।सीखने का अर्थ है हाथ धोकर पीछे पड़ना।लोग क्या कहेंगे यह सोचने की फुर्सत ही कहाँ है? साइकिल से लेकर कार सीखने की प्रक्रिया इसी दौर से गुजरती है।सीखने में शॉर्टकट का महत्व नहीं हो सकता है।

भारत की अर्थवत्ता में पोषक है जड़ों से जुड़ना और पंखों को भी मजबूती देना। परम्परा यदि प्रासंगिकता खो दे तो उसे म्यूजियम में रखा जाना चाहिए।चाहे वह अपने समय में कितनी ही प्रतिष्ठित क्यों न रही हो?आज असहमति को आदर देने की प्रवृत्ति की बहुत अधिक आवश्यकता है।मानवीय गरिमा सर्वोपरि है। सफाई कार्मिक का कर्म निम्न नहीं आंका जाना चाहिए।स्वच्छता के बिना कोई बड़ा अधिकारी भला अपनी योजना को अंजाम दे सकता है क्या? क्या डिलीट करना है और क्या डाउनलॉड करना है,इसका विवेक होना आवश्यक है।ऊंचाइयों को संस्पर्श के बाद भी सेवा और योगदान का आदर्श अनिवार्य होना चाहिए।सुधार से पहले स्वीकार्यता को उद्बुद्ध करना आवश्यक है। एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति तभी तो कहा गया है। हमारी कुंठाओं का कारण हमारी अपेक्षाएं होती हैं।जब भी अपेक्षाएं जीवनमूल्य और प्राथमिकताओं के बजाय सामाजिक दर्पण से प्रतिबिंबित होंगी तो वे कुंठाओं को पैदा करेंगी ही।अतः जीवन मूल्य की सीख बहुत महत्वपूर्ण है।

दो अक्षरों वाला गुरुतत्व अंधेरा दूर करने वाला होता है।ज्ञान, उपदेश तक ही जिम्मेदारी नहीं है गुरु की। जीवन के नए आयाम को उजागर करने वाला होता है गुरु। अपने अस्तित्व का नहीं शिष्य के अस्तित्व बोध की प्रकृति से परिचय कराता है।अहंकार और अवसाद से ऊपर उठाता है गुरु।अपनी थोपने की बजाय खुले आसमान में उड़ने वाले पंख देता है ताकि अपनी सृष्टि निर्माता बन सके।अपनी नई स्क्रिप्ट लिख सके। तभी विश्वगुरु का सपना भी सार्थक होगा।अन्यथा जैसे एक इंजीनियर की गलती ईंट और चूने दब जाती है, एक डॉक्टर की गलती कब्र में दब जाती है, एक वकील की गलती फाइल में दब जाती है,लेकिन एक शिक्षक की गलती सदा राष्ट्र में झलकती रहती है।

वस्तुतः ज्ञान की शक्ति और प्रकृति की समझ ही  इम्पैथी को प्रगाढ़ करती है।तब सिम्पैथी के बजाय समनानुभूति महत्वपूर्ण होती है।यह समत्व का भाव ही निर्भयता प्रदान करता है।सह नाववतु...मंत्र से इसी सह-अस्तित्व का अवबोधन होता है।भारत की ज्ञानसम्पदा ही विश्वगुरु बनने का माध्यम है।

                                                          -डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा



 

 

 

 

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

अस्तित्वबोध और विवेक



उपसर्ग पूर्वक विच्लृ पृथग्भावे धातु से विवेक शब्द बना है। विवेक वह दिव्य तत्त्व है जो व्यक्ति को सही-गलत,अच्छे-बुरे, सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय तथा यश-अपयश आदि द्वंद्वों से मुक्त कर स्वयं के अस्तित्व बोध की प्रकृति से परिचय कराता है। अपने अस्तित्व की अनुभूति का अर्थ है स्वयं की सत्ता को स्वीकारना । बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि आज के  सारे  धार्मिक क्रियाकलापों में ईश्वरीय सत्ता का उपदेश हद से ज्यादा सुनने को मिलता है, भले ही ईश्वर उनसे कोसों दूर क्यों न हो ? लेकिन ईश्वरीय सत्ता से पहले क्या स्वयं के अस्तित्व का बोध अनिवार्य नहीं है। गायत्री मंत्र में भूर्भुवः स्व: में भू: का अर्थ अस्तित्व ही है।यह अस्तित्व किसका? अगर छोटे बच्चे को असली कार गिफ्ट  में देंगे तो उसका परिणाम क्या होगा यह बताने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है। बिना नर्सरी व प्राइमरी तथा दसवीं आदि  क्लास पास किए पीएच.डी कैसे कर सकता हैं कोई ?  ठीक ऐसे ही अपने अस्तित्व को जाने बिना ईश्वर का अस्तित्व कैसे जान सकते हैं।

विवेक ही वह श्रेष्ठ संपदा है जो इंसान को अपने अस्तित्व की सही झलक दिखा सकता है। विवेक अर्थात् विवेचना । सही और गलत का बोध विवेक कहलाता है। हंस के पास दूध और और पानी को अलग करने की प्रतिभा है। इसे ही विवेक कहते हैं। अपने व्यवहार को नियंत्रित करने की अद्भुत क्षमता है विवेक में।अंतरात्मा की आवाज को सुनने के लिए विवेक बहुत अनिवार्य है। विवेक ही हमारे विचारों के पीछे छिपे मनोभावों का सही से विश्लेषण कर पाता है।

मैडम डे स्टेल ने कहा था – अंतरात्मा की आवाज इतनी धीमी है कि इसे दबाना आसान है । परंतु यह इतनी स्पष्ट है कि इसे पहचानने में गलती करना असंभव है।

जैसे शरीरविज्ञान के सभी आयामों की सही शिक्षा एक अच्छे खिलाड़ी बनने के आवश्यक है, जैसे मन के सभी आयामों का ज्ञान कुशाग्र विद्यार्थी के लिए आवश्यक है, वैसे ही अपने अस्तित्व बोध की प्रकृति से परिचित होने के लिए विवेक की सही शिक्षा अनिवार्य है।

विवेक के शिक्षण-प्रशिक्षण क्रम में बहुत अधिक एकाग्रता, संतुलित अनुशासन तथा सतत ईमानदार जीवन की आवश्यकता होती है।साथ ही नियमित रूप से प्रेरित करने वाले आलेख व साहित्य पढ़ना, उत्तम विचार और विशेषतः अंदर की धीमी आवाज को सुनना और उसके अनुरूप जीना शामिल है।

यह जरूर याद रखना होगा कि जिस तरह से व्यायाम का अभाव और फ़ास्ट फ़ूड किसी भी खिलाड़ी की क्षमता को बर्बाद कर सकता है, उसी तरह घटिया , अश्लील या पोर्नोग्राफिक चीजें अंतर में अंधेरा ला सकती है, जो हमारी उच्चतर अनुभूतियों को सुन्न कर देती है।

क्या सही है और क्या गलत है? इस विवेक के स्थान पर क्या मैं पकड़ा जाऊंगा यह सामाजिक अवधारणा अधिक प्रबल होती है। किसी पाश्चात्य विचारक ने कहा है कि पशु बने बिना आप अपने भीतर के पशु के साथ नहीं खेल सकते हैं,सच के अधिकार को जब्त किए बिना झूठ के साथ नहीं खेल सकते हैं और अपने मस्तिष्क की संवेदनशीलता को खोए बिना क्रूरता के साथ नहीं खेल सकते हैं। जो व्यक्ति अपने बगीचे को साफ-सुथरा रखना चाहता है, वह खर पतवार के लिए किसी क्यारी को सुरक्षित नहीं रख सकता है।

विवेक के अभाव में हम रेंगने वाले जानवरों की भांति  जीते हैं। फिर हम सिर्फ जिंदा रहने के लिए और संतति पैदा करने के लिए जीते हैं। तब हम जी नहीं  रहे  होते हैं अपितु हमारे द्वारा जिया जा रहा होता है। विवेक हमें सदा सक्रिय, जागृत और  विकसित करता है। तभी हम व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आस्वादन करते हैं और अंदर से  सुरक्षा, बुद्धि , साहस , ऊर्जा और मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं। यही हमारे अस्तित्व बोध की प्रकृति भी है। 

-डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा

Chairman: Varenyam journey to the bliss

 

सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु

स्मृति और कल्पना

  प्रायः अतीत की स्मृतियों में वृद्ध और भविष्य की कल्पनाओं में  युवा और  बालक खोए रहते हैं।वर्तमान ही वह महाकाल है जिसे स...