ज्ञान, विज्ञान और उद्बोधन इन्हें मात्र शब्द समझना उचित नहीं है। यह तीनों शब्द महामंत्र हैं।ये त्रिवेणी के पवित्र संगम की तरह पावन करते हैं। इस त्रिवेणी की पहली धारा है ज्ञान की धारा। ज्ञान का मतलब नॉलेज। क्या और क्यों का समाधान है ज्ञान। जब तक मानस में क्या और क्यों की जिज्ञासा उत्पन्न नहीं तब तक विज्ञान प्रकट हो ही नहीं सकता है? अगर मुझे चाय पीनी है तो मुझे पता है चाय क्या है? और मुझे यह भी पता है कि चाय क्यों पीनी है? क्या,क्यों, कब, कौन और कहां - ये 5 प्रश्न हर पल हमारे मानस को जिज्ञासु के स्वभाव में परिवर्तित करने में हेतु है ज्ञान । परंतु कैसे बनाए जाए अथवा निर्मित करें इसका उत्तर विज्ञान से मिलता है।विज्ञान मतलब प्रयोग। कथनी में करनी के शामिल होने का नाम है विज्ञान ।
हाइड्रोजन के दो कण जब ऑक्सीजन के संपर्क में आते हैं तो वह पानी बन जाता है, इसी प्रक्रिया को विज्ञान कहते हैं। लेकिन इस पानी से संसार के सभी जीव-जंतुओं की प्यास बुझती है इसे ज्ञान कहते हैं।
ज्ञान की प्राचीन परंपरा में वैदिक ऋषियों और दार्शनिकों के अलावा यूरोप के अरस्तु, प्लेटो इमर्सन आदि की एक सुदीर्घ परंपरा है। ठीक इसी तरह विज्ञान की भी एक लंबी श्रृंखला है। ज्ञान और विज्ञान मानवता के लिए सदा वरदान रहे, इसके लिए आवश्यक है उद्बोधन। अर्थात् जागना अवेयर होना किसका अवेयर होना स्वयं का । सेल्फ अवेयरनेस को आत्मजागरण कहते हैं? स्वयं का उद्बुद्ध होने का अर्थ है हम स्वयं को यूनिक समझें। स्वयं के लिए स्वयं ही स्क्रिप्ट तैयार करना। स्वयं क्रिएटर बनें, रचयिता बनें। यूनिक क्रिएटर बनें, कॉपी-पेस्ट और रेडीमेड जैसे क्विकफिक्स साधनों से बचकर जीवन की इस महायात्रा में धैर्य और प्रसन्नता के साथ अपनी सभी भूमिकाओं में तालमेल बैठाकर (रेस्पॉन्स+एबिलिटी) रेस्पोंसिबिलिटी को पूरा करना ही उद्बोधन का परम उद्देश्य है।विक्टिमकार्ड और ब्लेमगेम जैसे बहानों का परित्याग ही अस्तित्वबोध की प्रकृति के संज्ञान में परम सहयोगी हैं।यही इस त्रिवेणी का माहात्म्य भी है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें