भारत को पुनः विश्वगुरु के पद पर प्रतिष्ठापित करने में शिक्षा प्रमुख भी है और अनिवार्य भी। पुनर्स्थापना की इस प्रक्रिया में भारत और विश्वगुरु इन दो शब्दों की अर्थ प्रकृति का अवगाहन ही प्रवेश द्वार है। प्रवेश द्वार का होना उत्साह को द्विगुणित कर देता है। भारत शब्द में एक पूरी फिलॉस्फी अंतर्निहित है। भारत यह शब्द चाहे कितना ही पुराना क्यों न हो , लेकिन अर्थ की प्रकृति से यह सदा नवनीत सदृश नित नूतन अर्थ की अभिव्यंजना करता है।
भारत = भा
और रत इन दो शब्दों
से मिलकर बना
है। भा का अर्थ
प्रकाश होता है
और सच्चा प्रकाश
ज्ञान के सिवा कुछ भी
नहीं है। ‘ऋते
ज्ञानान्न मुक्ति:’ का भी
यही संकेत है।
रत का अर्थ है
रम गया ।जो
रम गया वही राम
है, वही तल्लीनता
है, वही सच्चा
राग भी कहलाता
है। सदैव ज्ञान
की अनुरक्ति ही
मात्र ऐसा
आदर्श है जो भारत को
प्राचीनतम और आधुनिकतम
दो विशेषताओं से
निरूपित करता है।
भारत वैदिक काल
से लेकर आज के कॉरोना
काल तक ज्ञान
का पिपासु ही है। सदा से यही ज्ञान
की पिपासा जिज्ञासा
में उद्दीपन का
कारण रही है।
विश्वगुरु = विश्व और
गुरु इन दो शब्दों से
मिल कर बना है।विश्व का अर्थ है संसार
और गुरु का अर्थ है
अंधकार दूर करने
वाला अर्थात् प्रकाश
का कारक । प्रकाश अर्थात् ज्ञान का आलोक
। विश्वगुरु
का एक अर्थ है संसार
का गुरु। जो यहां स्पष्ट समझ में
आरहा है। यह हमारी मंजिल
भी है।परन्तु मंजिल
तक पंहुचाने वाली राह का अवलोकन भी अनिवार्य है।विश्वगुरु मंजिल की राह का रहस्य भी विश्वगुरु शब्द में ही छिपा है। अब
विश्वगुरु का अर्थ
थोड़ा लीक से हटकर परन्तु
लक्ष्मण रेखा के अंदर ही
विवेचनीय है।
विश्व का अर्थ
सारे और गुरु का अर्थ
शिक्षक – विश्वगुरु से तात्पर्य
है - सारे गुरु।
विश्वगुरु यदि मंजिल
है तो उसकी राह भी
विश्वगुरु से
ही निकलती है।
भारत में
सदा से ज्ञान
के आदान - प्रदान
की महान् परंपरा
रही है। जब भी इस
महान् परंपरा का
अनादर या विस्मरण
हुआ है तो कोई न
कोई गुरु जरूर
प्रकट हुआ है। यदि धृतराष्ट्र
ने पुत्रमोहवश इस
प्रक्रिया में अवरोध
खड़े करने में
अनेकों षड्यंत्रों का
जाल बुना था तो श्रीकृष्ण
सदृश गुरु भी धृतराष्ट्र के सभी तरह के
कुकर्मों के प्रतिकार
हेतु अदम्य पराक्रम
और अपरिमेय विवेक
के साथ विद्यमान
थे। मगध नरेश नंद की अकर्मण्यता और निरंकुशता का मानमर्दन का बीड़ा आचार्य चाणक्य ने उठाकर भारत को पुनः
एक सूत्र में पिरोने वाले सम्राट चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक भी करवाया था।महर्षि वशिष्ठ
और ऋषि विश्वामित्र आदि गुरुओं की कर्मस्थली रही है यह भारतभूमि।
वर्त्तमान परिदृश्य में
जिनके भी पास ज्ञानवितरण की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है,
उन्हें इस महत्वपूर्ण
जिम्मेदारी का स्वतः
ही विश्लेषण करने
की आवश्यकता है।इस
जिम्मेदारी का संवाहक
है शिक्षकवर्ग।जिम्मेदारी को
इंग्लिश में responsibility कहते
हैं। response + ability -The
ability to choose your response. प्रतिक्रिया
चुनने की योग्यता
को responsibility कहते हैं।सामान्यतया
प्रतिक्रिया के चयन
में दो तरह की मानवीय
प्रवृत्तियों का बोलबाला
होता है। एक प्रवृत्ति है-अपने या दूसरे के
व्यवहार के लिए स्थिति-परिस्थितियों या फिर कंडीशनिंग को दोष मढना। इस प्रवृत्ति
में ब्लेमगेम और विक्टिम कार्ड खेले जाते हैं।दूसरी प्रवृत्ति वाले अपनी जिम्मेदारी
को अच्छी तरह से समझते हैं , वे भावनाओं बहने की बजाय जीवनमूल्य आधारित अपनी चेतना द्वारा परिणाम परक प्रतिक्रिया
का चुनाव करते हैं। वे किसी भी व्यवहार के लिए परिस्थितियों को दोषी नहीं मानते हैं।आचार्य
चाणक्य हों या फिर आदि शंकराचार्य,अरस्तू हों या सुकरात,कबीर हों या गुरुनानक,समर्थ गुरुरामदास हों या फिर रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानन्द हों या फिर स्वामी विवेकानंद अथवा यहूदी
मनो वैज्ञानिक फ्रेंकल हों या फिर इमर्सन - इन सबके पास भी मौका था परिस्थितियों के नाम पर रोने का
लेकिन इन्होंने अपनी समग्र चेतना के अनुप्रयोग से प्रतिक्रिया करने में अपनी योग्यता
का परिचय देकर विश्व के लिए सतत प्रेरक की पदवी में विराजमान हो गए।
यदि भारत को विश्व का मार्गदर्शन करना है तो उसे आधुनिक गुरुजनों की मनोदशा का
विश्लेषण करना ही पड़ेगा।यद्यपि शिक्षा के क्षेत्र में भारतसरकार के साथ कंधे से कंधा
मिलाकर चलने वाले बहुत गैरसरकारी संगठन जैसे डीएवी, सरस्वती शिशु मंदिर, डीपीएस, बालभारती, शिवनादर, बीजीएस तथा पतंजलि आदि अनेकों ट्रस्ट और सोसायटी इस आंदोलन में बढ़चढ़ कर भाग ले
रहे हैं। समय समय पर सरकार उनके इस कार्य की
प्रशंसा हेतु उन्हें सम्मानित करती है।
ये सब कार्य आवश्यक तो हैं परंतु विश्वगुरु के रूप में पर्याप्त नहीं है।आचार्य
चाणक्य ने कहा है कि शिक्षक की गोद में सृजन और प्रलय दोनों पलते हैं। इस वाक्य को
गहराई से समझने के लिए हमें यह जरूर विचारना होगा कि सृजन और प्रलय का ब्लूप्रिंट तैयार
करना होगा। भविष्य को वर्तमान में लाने की क्षमता का नाम है ब्लूप्रिंट है।आचार्य चाणक्य
जंगल मे गाय-भैंस चराने वालों लड़कों में से भारत का भावी सम्राट ढूंढ लेते हैं। इसे कहते हैं
सृजन। यही यथार्थ में ब्लूप्रिंट की प्रासंगिकता
भी।
कक्षा में प्रवेश वाले शिक्षक यदि छात्रों के तात्कालीन अभद्र व्यवहार से मूल्यांकन
करता है तो फिर सृजन की गारंटी कैसे कोई ले सकेगा? सृजन की अनिवार्यता में प्रथम संकल्प
है प्रत्येक विद्यार्थी को अनौखा स्वीकारना। संसार मे जन्मने वाला प्रत्येक मानव अद्वितीय
है। इस धरती में कोई भी किसीका डुप्लीकेट नहीं है।धारणा को छोड़ कर संभावना पर नजर रखनी
होगी ।
छात्र की गरिमा और अस्तित्व का ख्याल हर पल रखना होगा। शिक्षक को खुद भी मैनेजमेंट
के समक्ष निर्भय रहना होगा और छात्रों को निर्भयता का वातावरण देना होगा।इस बात की
सदा मन में गांठ बांधनी होगी की excellence act नहीं habit है। और आदत बनाने के लिए शॉर्टकट रास्तों
से नहीं गुजरना होता है, पूरी प्रक्रिया को महत्व देना ही पड़ेगा। ज्ञान, योग्यता और इच्छा का समन्वय नई आदत को निर्मित करने में
प्रबल उद्दीपन हैं।ज्ञान बतायेगा कि क्या करना है और क्यों करना है। जबकि योग्यता कैसे
करना है का उत्तर है। बिना इच्छा के ज्ञान और योग्यता का कोई अर्थ ही नहीं रहता है।पढ़ने
और सीखने के बुनियादी फर्क को भी समझना होगा। दोनों ही क्रिया है।सीखने का अर्थ है
हाथ धोकर पीछे पड़ना।लोग क्या कहेंगे यह सोचने की फुर्सत ही कहाँ है? साइकिल से लेकर
कार सीखने की प्रक्रिया इसी दौर से गुजरती है।सीखने में शॉर्टकट का महत्व नहीं हो सकता
है।
भारत की अर्थवत्ता में पोषक है जड़ों से जुड़ना और पंखों को भी मजबूती देना। परम्परा
यदि प्रासंगिकता खो दे तो उसे म्यूजियम में रखा जाना चाहिए।चाहे वह अपने समय में कितनी
ही प्रतिष्ठित क्यों न रही हो?आज असहमति को आदर देने की प्रवृत्ति की बहुत अधिक आवश्यकता
है।मानवीय गरिमा सर्वोपरि है। सफाई कार्मिक का कर्म निम्न नहीं आंका जाना चाहिए।स्वच्छता
के बिना कोई बड़ा अधिकारी भला अपनी योजना को अंजाम दे सकता है क्या? क्या डिलीट करना
है और क्या डाउनलॉड करना है,इसका विवेक होना आवश्यक है।ऊंचाइयों को संस्पर्श के बाद भी सेवा और योगदान का आदर्श
अनिवार्य होना चाहिए।सुधार से पहले स्वीकार्यता को उद्बुद्ध करना आवश्यक है। एकं सद्
विप्रा बहुधा वदन्ति तभी तो कहा गया है। हमारी कुंठाओं का कारण हमारी अपेक्षाएं होती
हैं।जब भी अपेक्षाएं जीवनमूल्य और प्राथमिकताओं के बजाय सामाजिक दर्पण से प्रतिबिंबित
होंगी तो वे कुंठाओं को पैदा करेंगी ही।अतः जीवन मूल्य की सीख बहुत महत्वपूर्ण है।
दो अक्षरों वाला गुरुतत्व अंधेरा दूर करने वाला होता है।ज्ञान, उपदेश तक ही जिम्मेदारी नहीं है गुरु
की। जीवन के नए आयाम को उजागर करने वाला होता है गुरु। अपने अस्तित्व का नहीं शिष्य
के अस्तित्व बोध की प्रकृति से परिचय कराता है।अहंकार और अवसाद से ऊपर उठाता है गुरु।अपनी
थोपने की बजाय खुले आसमान में उड़ने वाले पंख देता है ताकि अपनी सृष्टि निर्माता बन
सके।अपनी नई स्क्रिप्ट लिख सके। तभी विश्वगुरु का सपना भी सार्थक होगा।अन्यथा जैसे
एक इंजीनियर की गलती ईंट और चूने दब जाती है, एक डॉक्टर की गलती कब्र में दब जाती है, एक वकील की गलती फाइल में दब जाती है,लेकिन एक शिक्षक की गलती सदा राष्ट्र
में झलकती रहती है।
वस्तुतः ज्ञान की शक्ति और प्रकृति की समझ ही इम्पैथी को प्रगाढ़ करती है।तब सिम्पैथी के बजाय समनानुभूति
महत्वपूर्ण होती है।यह समत्व का भाव ही निर्भयता प्रदान करता है।सह नाववतु...मंत्र से इसी सह-अस्तित्व का अवबोधन होता है।भारत की ज्ञानसम्पदा ही विश्वगुरु
बनने का माध्यम है।
-डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा
उत्तम विचार गुरुदेव।
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