सोमवार, 19 अप्रैल 2021

हर किसी की लालू जैसी किस्मत कहाँ

चारा घोटाले में 23 दिसंबर 2017 को जेल जाने के बाद कोर्ट द्वारा लालू प्रसाद यादव को मिली जमानत ने एक बार फिर से आम और खास के बीच में एक बड़ी खाई पैदा कर दी है।आम आदमी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।उसे लालू की जमानत से न तो खुशी है और न ही गम है।बस, तकलीफ़ इतनी जरूर है कि जैसे चारा घोटाले में अपराध सिद्ध होने पर लालू को सात-सात वर्ष की मिलाकर चौदह साल की सजा मिली थी।चौदह साल की सजा के साढ़े तीन साल काटने के बाद ही अठारह अप्रैल को लालू को जमानत मिल जाती है।जमानत से जहां उनके परिवार और  उनकी पार्टी में दिवाली जैसी खुशी है तो वहीं विरोधियों के हलक सूखते नजर आरहे हैं।इतने बड़े अपराध पर न्यायालय उन्हें जमानत देता है तो क्या अन्य जो दबे-कुचले, शोषित गरीब मुजरिम भी कोर्ट में जमानत ले पाते हैं कभी।वे कपिल सिब्बल जैसे वकीलों की फीस भर सकेंगे कभी?

हमारी कोर्ट के फैसलों पर प्रश्न चिन्ह लगाने की न तो कोई मंशा है और नहीं यह हमारी फितरत है।बस, इतनी जिज्ञासा जरूर है कि स्वतन्त्र भारत में दबे-कुचले,शोषितों तथा सुख-सुविधाओं से वंचित , किसी तरह से जीवन यापन के निचले पायदान पर स्थित जीवन बसर करने वालों के लिए भी लालू जैसी किस्मत के दरवाजे खुल सकेंगे कभी?न्याय की देवी के मंदिर में उनके कराहने की चीखें इतनी इत्मीनान से सुनी जाएंगी ?न्याय की देवी के तो आंखों और कानों पर काली पट्टी बंधी है,इसलिए कानून की देवी को न तो स्वयं कुछ दिखता है और न ही कुछ सुनता है।इसके मंदिर के पुजारी जैसा बताएंगे और जैसा दिखाएंगे उसीके आकलन से न्याय का भविष्य सुनिश्चित होता है।भारतीय पूजापद्धति में मूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा की जाती है।उसकी चेतनामय उपस्थिति हेतु यह अद्भुत अनुष्ठान है।यद्यपि यह सारा अनुष्ठान श्रद्धा जन्य है।इसके पक्ष-विपक्ष हैं।हिन्दूसमाज में यह लंबे समय से परम्परा में है। अस्तु, जिस भगवती के आंख और कान पर पट्टी बंधी हो वहां कोई तो हो जो उस देवी को कन्विंस कर सके जो उस न्याय स्वरूपादेवी को संतुष्ट कर सके।यद्यपि कई स्थितियों में इस देवी के अन्तःचक्षु इतने पैने होते हैं कि स्वतः संज्ञान भी ले लेती है।परंतु ये स्थितियां सर्वत्र नहीं हुआ करती हैं।अब पीड़ित और अपराधी के नियमन और व्यवस्था के लिए न्यायालयों में वकीलों की कानून की बारीकियों की दक्षता के साथ वाक्पटुता का बहुत महत्व है।वकीलों में यह महत्ता जितनी  अधिक होगी,उतनी ही अधिक उनकी कीमत तय होगी।

आज के समय में न्याय बहुत महंगा हो गया है।आम आदमी को न्याय मिल पाना आसान नहीं है।न्याय उन्हींको मिल पाता जो इसकी अच्छी-खासी कीमत चुका पाते हैं।अन्यथा बहुत से गरीब अपराध सिध्द हुए बिना बीस-बीस सालों तक सलाखों के पीछे घुट-घुट कर सड़ने को मजबूर होते है।अभी पिछले दिनों ही एक गरीब बेचारे युवक की बीस-बाइस साल की जिंदगी इस कीमत को न चुकाने के कारण ही बरबाद हो गई थी।

स्वर्गीय राजीव दीक्षित एक बात कहा करते थे कि भारत में अंग्रेजों ने जो कानून बनाए थे।वे न्याय के लिए नहीं थे।ये सब निरंकुश सत्ता के अहं किरदार थे। वे कहते हैं कि उस कानून को न्याय समझना सबसे बड़ी भूल है।वे न्याय की बात नहीं लॉ की की बात करते थे। वर्तमान सीजीआई  बोवड़े साहब ने भारत के न्यायदर्शन की प्रशंसा की है।।अंग्रेजों ने भारत की न्यायव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था को समझने में बहुत समय लगाया था।उनके बहुत से पत्रव्यवहार इस बात के साक्षी हैं कि भारत में गुरुकुलो की ख्याति सत्तरह सौ की सदी तक विद्यार्थियों में  बहुत अधिक  थी। गुरुकुलों में आचार्य एक और पढ़ने वाले छात्र सैकड़ों में होते थे।अंग्रेजों की छानबीन में जब यह निकल कर आया कि बड़ा आचार्य भले ही एक है ,लेकिन वहां पठन-पाठन में कोई व्यतिक्रम नहीं होता है।बड़े छात्र छोटों को पढ़ाते हैं।अंग्रेज अपने शासन को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए भारतीय राजाओं को डरा धमकाकर गुरुकुलों में मारकाट मचाने लगे और गुरुकुलों बन्द करने के लिए भारतीय राजाओं को विवश करने लगे।उस समय गुरुकुलों को राजाओं का सहयोग प्राप्त होता था।इस षड्यंत्र को आगे जाकर मैकाले ने अमलीजामा पहनाया था।

दूसरा महत्त्वपूर्ण बिंदु था भारत की न्याय प्रणाली उसे भी उन्होंने ध्वस्त कर दिया, ताकि यहां के लोगों को कभी न्याय मिल ही न पाए। पंच परमेश्वर की न्याय पद्धति से अंग्रेज अचंभित होने लगे।दोनों पक्ष पंचों को परमेश्वर मानते थे।इस निष्पक्ष न्याय प्रक्रिया को अंग्रेज कैसे पचा सकते थे।पुनः एकबार यह बात और अधिक प्रामाणिकता से स्पष्ट हो रही है कि स्वतंत्रता के बाद भारत की महंगी  शिक्षाव्यवस्था और न्यायव्यवस्था के बोझ में दबा-कुचला,शोषित गरीब कब तक पिसता रहेगा?क्या कोई सरकार इस पर बिना आंकड़ों के खेल से स्वस्थ विमर्श हेतु विश्वसनीय योजना बनाने के लिए संकल्पित होंगी?आज शिक्षासंस्थाएं और न्याय की संस्थाएं चालाकियों से नियमों की व्याख्याएं करने में सिद्धहस्त हो चुकी हैं।इन संस्थानों में किस तरह से  खेल खेले जाएं जिससे अपने स्वार्थ अधिक पूरे हों,कैसे न्याय की देवी और ज्ञान की देवी को पर्दे में डालकर अपनी कुटिल चालों की निपुणता से दोहन किया जा सके।बस, एक उम्मीद है कभी तो अंधेरा छटेगा , कभी तो सबेरा होगा।

डॉ कमलाकान्त बहुगुणा

Chairman: Varenyam Journey to the Bliss

 

 

2 टिप्‍पणियां:

  1. न्याय सबके लिए समान कहां होता हैै।
    न्यायालय सबके लिए कहां समान खुलता है।
    ये तो सब कहने पढ़ने भर की बातें हैं
    यहां हर व्यक्ति समान कहां होता है।।
    ये दुर्भाग्य भारत का है।

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