बुधवार, 19 मई 2021

बहुत अधिक गतिमान है समय का पहिया

 


समय उड़ता जा रहा है।समय का पहिया बहुत अधिक गतिमान है।समय पर किसी का वश नहीं चलता है।जब भी हम समय को पीछे से पकड़ने व रोकने का असफल प्रयास करते हैं तो हमें मात्र निराशा या बेचैनी मिलती है।समय को पकड़ने की बजाए हमें उसका चालक अथवा पायलट बनना होगा।हमें अपने विचारों को पंख देकर समय के साथ कदम मिलाने में तालमेल बैठाना होगा।हमारे विचार तय करते हैं कि हम क्या कर रहे हैं,क्या करेंगे और हमने क्या किया है। हमने क्या किया है यह तय करेगा कि लोग हमारे साथ कैसा व्यवहार करें।हमारा व्यवहार मूल्यांकन के लिए कितना प्रामाणिक है?क्योंकि व्यवहार प्रायः धारणा से बनता है।कई बार नाटकीय भी होता है।नाटकीयता और धारणा यथार्थ के जानने व समझने में पूर्ण समर्थ नहीं है।

विवेचना के दौरान बहुत बार हम अपनी अनुभूति की विशद व्याख्या कर रहे होते हैं।उसी बीच जब किसी का असहमति में स्वर उठता है तो हम स्वयं को सही से अवलोकन के लिए तैयार कर लेते हैं।पर इसकी कसौटी सेल्फ अवेयरनेस ही है।अलग-अलग राय रखने का अर्थ है कि हर व्यक्ति की अनुभूति का तल अलग-अलग है।तथ्य को जुटाने के लिए संवाद में शान्ति और सम्मान बहुत ही महत्वपूर्ण नींव है।हार और जीत के नजरिए में शान्ति और सम्मान की मर्यादा भंग हो जाती है।

बात उन्नीस सौ तिरानवे की होगी।गुरुकुल में अध्ययन के दौरान घटित प्रसंग है।गुरुकुल में एक बड़ी उम्र के छात्र थे।वे मुझसे उम्र में बड़े तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक भी थे।हम सब उन्हें भ्राता जी बोलते थे।बहुत ही सरल,सहज स्वाभाविक व्यवहार के धनी थे।मुझे तो उनका स्नेह सगे भाई से भी बढ़कर मिलता था।छात्रावास में स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण उन्होंने अपने रहने की व्यवस्था बाहर करनी पड़ी थी,और वे पढ़ने के लिए पाणिनि महाविद्यालय में आया करते थे।

एकदिन की बात है ।वे बहुत ही व्यथित और घबराए हुए लग रहे थे।उनके चेहरे को देखकर लग भी रहा था कि मानो जैसे वे किसी बड़ी परेशानी में हों।मुझसे उनकी वह अवस्था कुछ अटपटी-सी लग रही थी।यह सब देख मुझसे रहा नहीं गया और मैं पूछ बैठा भ्राताजी आप आज बहुत परेशान नजर आरहे हैं। सब कुशल तो है न।वे प्रायः सबको महाराजजी ही संबोधित करते थे।वे बोले- महाराजजी आज तो मैं मरते-मरते बच गया हूं।और फिर जो उनके साथ घटा उसे उन्होंने सिल-सिलेबार बताना शुरू कर दिया।मैं उनकी हर बात को बहुत ही गौर से सुन रहा था।

उन्होंने बताया कि आज जब मैं पढ़ने के लिए कमरे से पैदल-पैदल आरहा था तो रास्ते में मुझे फन फैलाए हुए काला सांप दिखा।आज तो उसने मुझे डस लिया होता।यह समझो कि मैं बाल-बाल बच गया हूं।मुझे तो आज अपनी साक्षात मौत नजर आरही थी।वह तो अच्छा हुआ सांप को देखते ही मैं सरपट दौड़ पड़ा।मेरी हिम्मत पीछे मुड़कर देखने की भी नहीं हुई।अगर मैं भागता नहीं तो आज वह सांप मुझे बिना काटे नहीं छोड़ता।

खैर, अब वे पहले से मुझे बेहतर दिखने लगे।फिर दूसरे दिन जब वे आए तो मैंने पूछा-भ्राता जी आज तो आपको सांप नहीं दिखा होगा रास्ते में।मेरे बोलते ही वे बड़े ही कातर भाव से बोले कि लगता है वह सांप मुझे डसकर ही मानेगा।आज भी मुझे सांप उसी जगह पर दिखा।मैं भी हैरान था कि ऐसा कैसे होसकता है।उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था, मानो जैसे उन्हें अपनी मौत साक्षात नजर आरही हो।वे बहुत ही घबराए हुए नजर आरहे थे।खैर,शाम को वापिस अपने कमरे पर चले गए और जब फिर मुझे अगले दिन अर्थात् तीसरे दिन मिले तो मैंने उनसे पूछा-भ्राता जी!सब ठीक-ठाक?अब तो वह हंसते हुए बोले-महाराज! वहां सांप-वांप कुछ नहीं था।मैं तो उससे  बेकार ही डर रहा था,वह तो सड़क के किनारे फन फैलाए सांप के आकार वाला लोहा गड़ा था।जिसे मैं सांप समझ बैठा था।फिर क्या था?हम दोनों मिलकर बहुत देर तक हंसते रहे।

-डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा 





गुरुवार, 13 मई 2021

लाशों में अवसर ढूंढते गिद्ध




कहने को तो मनुष्य मरणधर्मा है।लेकिन अपनी हरकतों से तो ऐसा लगता है,मानो वह स्वयं को अमर मान चुका है।तभी तो उसे किसी का भी भय नहीं है।ऐसा अमरकाया वाला इंसान कभी दस रुपये तक के नमक को भी पांच सौ में बेचकर लाखों रुपये कमाने में सफल हो जाता है तो कभी ऑक्सीजन के सिलेंडर को ब्लैक करके करोड़ों रुपये के वारे-न्यारे करने में लग जाता है।और कभी रेमिडिसिविर के इंजेक्शन की जमाखोरी से अरबपति बनने के सपने सजोए हुए होता है।

यह बिरादरी आज ही इस कॉरोना आपदा को अवसर में नहीं बदल रही है, बल्कि जब भी जहाँ आपदा आती है तो इन गिद्धों के झुंड के झुंड जल्दी से जल्दी वहाँ मंडराने लग जाते हैं।गिद्धों  का काम ही है लाशों पर मंडराना।लेकिन आबकी बार दिल्ली में ये गिद्ध बहुतायत में मंडरा रहे हैं,जिससे इन पर सबकी नजर पड़ने लगी है।हद तो देखिए आज जब सबको संक्रमण से बचाव की बहुत ज्यादा जरूरत है तब भी कुछ मुर्दाखोरों द्वारा कॉरोना से मृत व्यक्तियों की लाशों पर चढ़ाई गई महंगी-महंगी शालें भी मार्केट में बेची जा रही हैं।मानवता को तारतार करने में ये थोड़ी भी कसर नहीं छोड़ रहे हैं।जीवन रक्षक दवाइयों  की जमाखोरी से लेकर आवश्यक खाद्य सामग्री की बढ़ती महंगाई आम आदमी की  बिना कॉरोना के ही जान लेकर मानेगी।

बहुत पुरानी बात नहीं है।बस, सात-आठ साल पुरानी है केदारनाथ की त्रासदी।उस महाविपदा में भी इसी बिरादरी के लोगों ने आपदा में अवसर पहचानते  हुए भोजन और पानी की मनमानी कीमत फंसे यात्रियों से बसूली थी।आपदा में अवसर ढूंढने वालों का इतिहास बहुत पुराना है।यूं तो एक अच्छे अवसर की तलाश में सभी प्रोफेशन वाले  चाहे पत्रकार हो,अध्यापक हो, डॉक्टर हो,इंजीनियर हो , बिजनिसमैन हो, प्रोपर्टी डीलर हो, वकील हो या फिर टैक्सी ड्राइवर या कोई और  सबके सब  रहते हैं।

अच्छे अवसर की तलाश कोई गुनाह नहीं है।लेकिन गुनाह तब जरूर बन  जाता है जब आप दूसरे की मजबूरी में अपने लिए अच्छे अवसर की तलाश करते हैं।इसी वजह से जब कोई दूसरे की जान का सौदा करने लगता है फिर हर किसी की आत्मा रुदन करने लगती है,हर किसी की आत्मा दर्द से कराहने लगती हैं।ऐसे घृणित कृत्यों  के कारण कोई कैसे मानवता को शर्मसार होने से बचा सकता है

यह सामाजिक सत्यता है कि कोई भी व्यक्ति ईमानदार तभी तक है,जब तक वह बेईमानी करते हुए नहीं पकड़ा जाता है या फिर उसे बेईमानी का अवसर ही उपलब्ध नहीं होता है।अवसरप्राप्त व्यक्ति के चरित्र का ही मूल्यांकन किया जा सकता है।सभी तरह की काला बाजारी में सरकारी दफ्तरों की भी भूमिका कम नहीं होती है।अगर यह सब नहीं होता तो फिर नकली माल का व्यापार धड़ल्ले से कैसे  पूरे देश में होतागौर करने वाली बात यह है कि इस देश में तो पांच साल तक मुख्यमंत्री पद रहने वाला व्यक्ति भी अपने पद से हटते ही टोंटी तक को उखाड़कर अपने साथ ले चलता है।फिर भला आम आदमी से हम किस आदर्श की उम्मीद कर सकते हैं ?विशेष कर तब जब इस देश के किसी प्रदेश का व्यक्ति गृहमंत्री रहते हुए अपने मातहत अधिकारी को सौ करोड़ का टारगेट सौंप देता हो।मंत्री हो या संतरी हर कोई रात-दिन अपनी आमदनी बढ़ाने की फिराक में हैं।अपनी आमदनी बढ़ाने का  सपना देखने की किसी को कोई मनाही तो है नहीं। 

अब रही बात कमाई के वैध और अवैध तरीकों की,तो भाईसाहब!वैध और अवैध का स्थान आता है पकड़े जाने के बाद।इस देश में एक हजार करोड़ का चारा घोटाला नब्बे के  दशक में होता है और कोर्ट में प्रूफ भी हो जाता है और सजा मिलती है चौदह साल की।साढ़े तीन साल में ही अपराधी को जमानत भी मिल जाती है।अब कर लीजिए वैध और अवैध तरीकों की जांच-पड़ताल। इसे कोई इतने बड़े अपराध की कठोर सजा कह सकेगा क्या?क्या इस जाँच-पड़ताल और न्याय ने भ्रष्टाचारियों की  चेहरे पर मुस्कराहट नहीं बढ़ाई  है?

आज भी बहुत से पत्रकार ऐसा नेरेटिव सैट करने में लगे हुए हैं मानो वे खाए नामक का फर्ज अदा कर रहे हों।आपदा में अवसर ढूंढती बिरादरी में लेफ़्ट लिबरल,गिद्ध गिरोह, लुटियंसग्रुप, खनमार्केटगैंग आदि  न जाने कितने रंगीले सियार हमारे बीच में घूम रहे हैं।मोदी सरकार के सात सालों में इन्हें तवज्जो न मिलने के कारण ये कुछ ज्यादा ही तिमिलाये हुए हैं।पहले इन्हें कांग्रेस और कम्युनिस्टों से ऊर्जा मिला करती थी।अब जब वह रसदखाद उन्हें नहीं मिल पा रही है,तो फिर इन्हें लगना ही पड़ेगा मोदी को बदनाम करने की नाकाम कोशिश में।इनका एजंडा सैट करना तो बनता है।अब चाहे उसके लिए अपने भारतदेश की गरिमा को ही आंच क्यों न  पंहुचाई जाए।
-डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा 



   



मंगलवार, 11 मई 2021

मानवीय प्रवृत्ति के कतिपय सुनहरे नियम





हम अपने व्यवहार और नजरिए को बदलने के लिए अथक परिश्रम करते हैं।बहुत परिश्रम के बाद भी हम उस अनुभूति के करीब भी नहीं पहुंच पाते हैं,जहां हम स्वयं से परिचित हो सकें।आदतन इस तरह के बड़े परिवर्तन की तरफ हम कम ही आकर्षित हो पाते हैं,जो हमें हमारी प्रकृति से मिला सके।स्वयं से मिलना छोटा उद्देश्य कदापि नहीं हो सकता है।स्वयं के अस्तित्व को जानना बड़े उद्देश्यों में से एक नहीं बल्कि अकेला ही है।इस बृहद उद्देश्य को पाने के लिए  हमें अपने मूलभूत पैराडाइम में परिवर्तन के साथ श्रम और तप की बहुत अधिक आवश्यकता पड़ती है।हमें पत्तों और टहनियों की अपेक्षा जड़ों पर ज्यादा फोकस करना करना होता है।इस बृहद परिवर्तन के लिए हमें स्वयं भी अलग तरह से बनने हेतु संकल्पित होना  होगा।

अस्तित्वबोध के लिए हमारे चरित्र में विनम्रता और वात्सल्यता बहुत आवश्यक है।अहंकार और अवसाद से ऊपर उठकर हमें अपनी आत्मिक अग्नि को उद्बुद्ध करना होगा।इस अग्नि में ताप भी है और प्रकाश भी।इस तरह से बनने के लिए हमें पूरी शिद्दत चाहिए।हम जो बने हुए हैं,वही हम देखते हैं।हम क्या देख पाते हैं?यह हमारे बनने पर निर्भर करता है।यह कभी नहीं हो सकता है कि हम देखने में तो बदल जाएं,लेकिन बनने के लिए हमें बदलना स्वीकार ही न हो।

प्रकृति के सुनहरे नियम संरक्षण और संवर्धन के साथ ही हमें स्वयं से परिचित होने का भी समुचित अवसर देते हैं।इन नियमों को आत्मसात करें ,अन्यथा इनका अभाव विघटन और विनाश को भी आमंत्रित करते सकता है।चेतना की अधिकतम गहराई संरक्षण और संवर्धन की आधारभूमि है।यदि हमारे द्वारा इस भूमि को उर्वरा नहीं किया गया तो फिर हमें विघटित और विनष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता है।चेतना की गहराई में उतरने पर ही हमें मालूम होता है कि ये सभी प्राकृतिक नियम प्रत्येक मानव की अंतरात्मा में विद्यमान हैं।भले ही उनमें कोई इन नियमों के प्रति निष्ठावान हो या न हो। लेकिन ये प्रकृति के सुनहरे नियम हम सबके अंतर्मन होते जरूर हैं।चाहे वे थोड़े धूमिल ही क्यों न हों।आस्थाहीनता से ये नियम दफन भी हो जाते हैं।

मानव गरिमा प्रकृति के नियमों में सर्वोपरि है।मानवीय गरिमा को सभी धर्म,सभी देशों के संविधान तथा सभी संस्कृतियाँ सम्मान देती हैं।संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के पीछे मानवीय गरिमा की यही उच्च भावना छिपी है।मानवीय गरिमा का अर्थ है कि मानवमात्र की गरिमा का ख्याल रखना।समाज के अंतिम पायदान पर खड़ा इंसान भी प्रथम पायदान पर खड़े इंसान जैसा ही गरिमामयी है। कर्म के आधार पर उच्चता और निम्नता का आकलन मानवता पर बहुत बड़ा कलंक है।प्रधानमंत्री नरेंद्रमोदी द्वारा सफाई कर्मचारियों के पादप्रक्षालन भी इसी भाव के जागृति हेतु यह महान संदेश है।

ईमानदारी और अखंडता ये दोनों भी मानव विश्वास की गहरी नींव है।कोई भी व्यक्ति,परिवार,समाज और राष्ट्र इन्हें धारण किए  बिना उन्नति नहीं कर सकता है।निष्पक्षता स्वाभाविक होते हुए भी जब यह ओढ़ी या थोपी जाती है तो फिर यह हमें अस्तित्व बोध की प्रकृति से भी बहुत दूर करती जाती है।हमें बालसुलभ निष्पक्षता ही धारण करनी होगी।इन आवश्यक तत्वों के साथ ही सुरक्षा, मार्गदर्शन, बुद्धि, शक्ति, सेवा, योगदान, उत्कृष्टता, धैर्य, पोषण, ज्ञान,इच्छा, योग्यता तथा प्रोत्साहन आदि प्राकृतिक  नियमों के प्रति भी संकल्पित होना होगा।





कॅरोना से प्रकृति की महत्ता का बोध




कॅरोना काल में ऑक्सीजन की कीमत से आम आदमी भी परिचित हो चुका है।प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन साढ़े पांच सौ लीटर ऑक्सीजन ग्रहण करता है।यह ऑक्सीजन हमें पेड़ो से मिलती है।जीवन के आधार हैं ये वृक्ष।वृक्ष हमारे जीवन के लिए अनिवार्य होने पर भी हमें वृक्षारोपण के लिए विज्ञापन का सहारा लेना पड़ता है।कितनी शर्म की बात है ।वृक्षारोपण के विज्ञापन देना मानवता के लिए बहुत अधिक लज्जा की बात है।वृक्ष मतलव प्राणतत्व के स्रष्टा।
आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम इस तरह से शामिल हो गए हैं कि स्वयं को भारतीय मूल्यों से वंचित करते चले गए।प्रकृति से प्रेम भारतीय ज्ञानपरंपरा की नींव है।वृक्षों और नदियों को इस देश में भगवत्ता के सदृश पूजनीय माना जाता रहा है।वैदिकपरंपरा में वृक्ष की महिमा का अतिशयता से वर्णन मिलता है।वृक्षपूजा की सुदीर्घपरंपरा वैदिक साहित्य के साथ ही बौद्ध और जैन साहित्य तक विद्यमान है।बुद्ध और तीर्थंकर की दृष्टि में पृथ्वी का पवित्र वृक्ष बोधिवृक्ष का बहुत अधिक महत्त्व रहा है।हिंदू धर्म में कल्पवृक्ष का देवता और असुरों के समुद्र मंथन से जन्म हुआ था।वृक्षों और पौधों को भगवान मानकर पूजने की परंपरा सामान्य बात नहीं है।भारत में पीपल,वट और तुलसी की पूजा का इतिहास बहुत पुराना है।वृक्षपूजा के पीछे छिपे रहस्य को जानने के बजाय आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल लोग इसे जड़ता सिद्ध करने में अधिक आतुर रहे हैं।प्रकृतिपूजा का मजाक बनाना उनके चरित्र का अहं हिस्सों में से एक हो गया था।लेकिन एक बार फिर से कॅरोना महामारी ने हमें पुनः अपनी जड़ों की ओर लौटने का भी संकेत दे दिया है।
यद्यपि हमने प्रकृति का जो नुकसान पंहुचाया है,उसे पाटना बहुत मुश्किल होगा।लेकिन फिर भी यदि हम पूर्व पितरों की प्रदत्त प्रविधियों को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाते हुए संकल्पित होते हैं तो समझो हम बहुत हद तक प्रकृति संरक्षण के लिए समर्पित हो गए हैं।वृक्षों और नदियों के प्रति प्रेमपूर्ण प्रवृत्ति को बढ़ावा देना ही हमारे लिए अब एक मात्र विकल्प है ।


सोमवार, 10 मई 2021

किसान आंदोलन और बलात्कार




कृषि कानून विरोधी आंदोलन में युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म की खबर सुनकर बहुत से लोग हैरान होंगे, लेकिन जिन्हें भी इस आंदोलन की असलियत पता है ,वे बिल्कुल भी हैरान नहीं होंगे।यहाँ जितनी जमात जमा है, सबके सब प्रायोजित एजेंडा को सफल बनाने में दिन-रात लगे हुए हैं ।सबका एक ही मकसद है सत्ता से मोदी को हटाना । उसके लिए वे किसी भी हद तक जाने के लिए तत्पतर नजर आरहे हैं। मोदी के विरोध में अब ये खालिस्तानी बहु-बेटियों की आबरू का भी सौदा करने लगे हैं।दंडित करने के साथ धिक्कारना जरूरी है इनको इस निंदनीय कृत्य के लिए।

राकेश टिकैत सरीखे लोग किसान नेता कम और सत्ता के दलाल ज्यादा हैं,इनक लिए यह किसानआंदोलन अपनी छवि चमकाने के लिए सुनहरा अवसर है। इस अवसर को हथियाने के लिए ये आन्दोलनजीवी हर हथकंडा अपनाने को तैयार हैं ।हैरानगी तब और हो जाती है जब जाट समुदाय के बहुत से लोगों  को भी टिकैत में अपना मसीहा नजर आरहा है।जाति के कारण जिन्हें टिकैत के प्रति सहानुभूति है वे भी कम जिम्मेदार नहीं है, इस दुष्कृत्य के लिए।इनका मौन इनके लिए सहमति ही है।जैसे इन्होंने गणतंत्र पर्व से अपना पल्ला झाड़ दिया था।ठीक, इस बार भी वैसी रणनीति को यहाँ भी दोहरा रहे हैं। 

दिल्ली और हरियाणा को जोड़ने वाले टिकरी बॉर्डर पर चल रहे कृषिसुधार कानून के विरोध में आंदोलन में शामिल हुई बंगाल की युवती की मौत हुई है।अब पता चला है कि कई लोगों ने आंदोलन की जगह पर बने टेंट में उसके साथ दुष्कर्म किया था ।वह 12 अप्रैल को टिकरी बॉर्डर पर धरना देने में शामिल होने आई थी।युवती के पिता की शिकायत पर बहादुरगढ़ सिटी थाने की पुलिस ने 6 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है। जिनमें दो महिलाएं भी है।जिन पर दुष्कर्म का आरोप है वे स्वयं को किसान सोशल आर्मी के नेता बताते हैं ।एफआईआर में सामूहिक दुष्कर्म के अलावा अपहरण ,ब्लैक मेलिंग,बंधक बनाने,और धमकी देने की धाराएं दर्ज की की गई है।

अब भी अगर कुछ लोग इन आंदोलन जीवियों का समर्थन कर रहे हैं तो समझो ये वे लोग हैं,जिनकी आत्मा मर चुकी है।बलात्कार में किसान आंदोलन के बड़े नेता कम जिम्मेदार नहीं है।अब कहाँ मर गए वो पट्टलकार,अरविन्द केजरीवाल सरीखे राजनेता ,जो आंदोलनजीवियों का पक्ष ले रहे थे। कहाँ  है  अब वे योगेंद्र यादव जैसे फ़सली किसान ..... 

-डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा 



संघर्ष एक प्राकृतिक प्रक्रिया





एकबार तितली का एक शावक ककून (खोल) से बाहर आने के लिए संघर्ष कर रहा था।नन्ही तितली के इस संघर्ष को वहीं पास बैठा व्यक्ति भी देख रहा था।नन्हीं तितली का प्रयास निरंतर जारी था।पास बैठे व्यक्ति से उस नन्ही तितली का यह कष्ट नहीं देखा जा रहा था।उसे नन्ही तितली पर दया आगई और उसने बिना देर लगाए जल्दी से खोल के बाकी बचे हिस्से को काटकर उस नन्ही तितली को उस खोल से बाहर निकाल दिया ।वह नहीं तितली की मदद करने से बहुत खुश भी हो रहा था।बाहर आई तितली के पंख अभी विकसित नहीं हुए थे।उसका शरीर भी सूझा हुआ लग रहा था। 

दरअसल तितली को जिस अनिवार्य संघर्ष से जूझने की जरूरत थी,उस संघर्ष से नहीं जूझने के कारण उस तितली के पंख विकसित नहीं हो सके थे।शीघ्र ही उस व्यक्ति को भी समझ में आ गया था कि तितली को खोल से बाहर निकाल कर उसने बहुत बड़ी गलती कर दी है। तितली का संघर्ष तितली के पंखों के विकास के लिए अनिवार्य प्रक्रिया है।संघर्ष की इस अनिवार्य प्रक्रिया को पूरी न होने के कारण तितली ताउम्र उड़ नहीं सकी।

विकास के लिए संघर्ष जरूरी है।दुरूह संघर्ष से हमारी शक्तियां विकसित होती है।इसलिए जीवन में बाधा और चुनौतियों के आने का अर्थ है स्वयं पर विश्वास को जगाना।संघर्ष एक ऐसी प्राकृतिक प्रक्रिया है जिससे जूझे बिना अपनी मंजिल, अपना लक्ष्य पाना नामुमकिन है।बिना संघर्ष के किसी भी क्षेत्र में कामयाबी मिलना असंभव है।यह सच है कि संघर्ष हम बहुत कटु अनुभव देता है

कई बार तो ये संघर्ष हमें इतनी पीड़ा पंहुचाते हैं कि हमें स्वयं का अस्तित्व ही खत्म होते हुए साफ नजर आने लगता है। लेकिन एक समय के बाद हम देखते हैं कि इन संघर्षों से गुजरने पर यह यह हमें बहुत अच्छे से तराशता है, निखरता है और सँवारता भी है।संघर्ष हमें अद्भुत सांचे में गढ़ कर एक नई पहचान देता है।यदि हम इस संघर्ष से पीछा छुड़ाते हैं तो फिर हम कई  तरह की नई समस्याओं को अनजाने में आमंत्रित कर देते हैं।तब हम समाधान के बजाय समस्या के गहरे दलदल में फंसते चले जाते हैं।

सफलता  की प्रत्येक राह संघर्षों से गुजर कर ही मंजिल  तक पंहुचती है।संघर्ष के समय स्वयं को शांत रखना बहुत बड़ी चुनौती होती है।संघर्ष के क्षणों में संयतभाव सफलता को सुनिश्चित कर देता है।कठिनता के दौर में आशा की किरण जगाए रखना अति आवश्यक होता है।आशावान ही संघर्षों में विजेता बनते हैं।

 -डॉ कमलाकान्त बहुगुणा 

 



 

रविवार, 9 मई 2021

स्मृति और कल्पना

 


प्रायः अतीत की स्मृतियों में वृद्ध और भविष्य की कल्पनाओं में युवा और बालक खोए रहते हैं।वर्तमान ही वह महाकाल है जिसे साधे बिना और जिसमें समाहित हुए बिना यथार्थ के दर्शन नहीं हो सकते हैं। वर्त्तमान में रहना और वर्त्तमान को जीना ही अच्छे स्वास्थ्य और आत्मजागृति की निशानी है।प्रायः हम देखते हैं कि अधिकतर लोग स्मृतियों में गोते लगा रहे होते हैं।मैं ऐसा था, मैं वैसा था।मेरे साथ ऐसा हुआ, वैसा हुआ अगैरह वगैरह।और कुछ ऐसे भी होते हैं जो सदा स्वप्निल दुनिया में डूबे रहते हैं।मैं यह बनूंगा तो मैं वह बनूंगा।जो वृध्द होगए हैं,वे अपने अतीत की स्मृतियों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं।हमारे समय में ऐसा होता था।हमने कितने कष्ट सहे हैं, कितने दुख भोगे हैं तुम कल्पना भी नहीं कर सकते हो।स्मृति और कल्पना से पार हुए बिना वर्त्तमान में समावेश पाना असंभव है। समस्त आध्यात्मिक प्रक्रिया में वर्तमान की महत्ता सर्वाधिक है।वर्तमान की स्वीकार्यता से ही अस्तित्व बोध होता है।

यह सच है कि स्मृति और कल्पना ऐसे दो तत्व हैं जो हमें वर्त्तमान में उपस्थित ही नहीं होने देते हैं।लेकिन स्मृति और कल्पना से पूर्व यदि हम सेल्फ़ अवेयरनेस को प्राथमिकता दे दें तो स्मृति और कल्पना हमारे लिए संजीवनी बूटी का काम कर सकती हैं।आत्मजगरुकता का अर्थ है अपने अनौखे अस्तित्व को स्वीकारना ।अस्तित्व की प्रकृति कभी भी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं रहती है।अस्तित्व का अर्थ है सत्ता का भाव।किसकी सत्ता?चेतना की सत्ता।जहां भी संकल्प है,पुरुषार्थ है, परिणाम की अभिलाषा है, वहां-वहां चेतना है, जीवन का प्रवाह है।

जीवन के प्रवाह को सतत गतिमान बनाए रखने के लिए आवश्यक है अपनी कल्पनाशीलता के पंखों को उड़ान भरने में चेतनापूर्ण प्रयासों को भरपूर् आदर देना।।धरा पर कोई भी सुप्रसिद्ध रचना हकीकत में आने से पहले कल्पना में ही प्रस्फुटित होती है। कल्पना को पंख मिलते हैं स्वयं पर भरोसे करने से।स्वयं पर विश्वास के उदित होने में कल्पना की ऊर्जा प्रवाहित होती है।विश्वास भी तुरंत फुरन्त वाली प्रक्रिया नहीं है।कई अड़चनों और अवरोधों से गुजरने पर ही विश्वास की मरुभूमि उर्वरा हो पाती है।कल्पना का अर्थ है मानसिक रचना।इस मानसिक रचना को ही आज ब्लूप्रिंट कहा जाता है।किसी मूवी की डायरेक्टर हो या फिर किसी पुल का इंजीनियर, किसी दवा के बनाने वाले वैज्ञानिक हों या फिर कथा-उपन्यास के लेखक, कोर्ट में पैरवी करने वाले वकील हों या फिर बिल्डिंग का नक्शा तैयार करने वाले आर्किटेक्चर हों, चाहे फैशन डिजाइनर हों या फिर बड़े-बड़े स्पीकर,टीचर, प्रोफेसर,आर्टिस्ट- सभी को इमेजिनेशन की पॉवर पता है।

वस्तुतः कल्पनाशीलता ऐसी जादुई छड़ी है, जो हमें दुख में सुखी और सुख में दुःखी रखने की क्षमता रखती है।कल्पनाशीलता का अर्थ है भविष्य को वर्तमान की आंखों से तराशने की क्षमता।कल्पना भी एक तरह की प्रतिभा ही।कल्पना के पीछे स्मृतियों के संस्कार भी मौजूद रहते हैं।अतीत की अनुभूति की अपनी अहमियत है।अतीत की स्मृति भी कल्पना को पंख देती है।स्मृति में आपकी कल्पना के उदाहरणों की भरमार से यह मूल्यांकन तो हो गया होगा कि कैसे अपनी इस अनौखी शक्ति के बदौलत कई अनेकों मुश्किलों से मुक्ति मिली है।स्मृति स्वयं पर विश्वास का कारण सकती है।इसके विवेक की बहुत आवश्यकता है।

विवेक का मतलव है (Conscienc) अन्तरात्मा की आवाज ।जो आपको अंदर से सदा जागृत रखे ,आपका मार्गदर्शन करें।व्यक्ति सही-गलत,अच्छे-बुरे, सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय तथा यश-अपयश आदि द्वंद्वों से मुक्त कर स्वयं के अस्तित्व बोध की प्रकृति से परिचित हो सके। अपने अस्तित्व की अनुभूति का अर्थ है स्वयं की सत्ता को स्वीकारना

आज के धार्मिक क्रियाकलापों में ईश्वरीय सत्ता का उपदेश हद से ज्यादा सुनने को मिलता है, भले ही ईश्वर उन उपदेशकों से ईश्वर कोसों दूर क्यों हो ?ईश्वरीय सत्ता से पहले यदि स्वयं के अस्तित्व का बोध नहीं हैतो फिर यह सब एक नशे जैसे ही है।वह सब पर थोपना चाहता है। जो मैं करता हूं ,वही ठीक है।अपने सिवा कोई भी उसे कोई भी ठीक नहीं जंचता है। सब में उसे खामियां ही खामियां नजर आती है।सबको सुधारने में लग जाता है।भूल जाता है कि उसके इस सुधारने के क्रम में वह टोंट कस रहा होता है।इसे लोगों को ठेस भी पंहुच रही है।सुधार से पहले वह स्वीकार हो। स्वीकार्यता का अर्थ है मानवीय गरिमा सर्वोपरि

-डॉ. कमलाकान्त बहुगुणा 




 

 

सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु

स्मृति और कल्पना

  प्रायः अतीत की स्मृतियों में वृद्ध और भविष्य की कल्पनाओं में  युवा और  बालक खोए रहते हैं।वर्तमान ही वह महाकाल है जिसे स...