रविवार, 14 नवंबर 2021

Remove the evils and Give us goodness.

 Om vishvani deva savitar duritani para suva । Yad bhadram tan na aa suva ।। 

-yajurveda 30/3


Paraphrase-

savitah  = O Procreator and Impeller of all,

deva      = Self radiant God! .paraa suva = dispel . visvaani = all. duritaani = vices and afflictions from us .Aa suva = Bestow 

nah = upon us .tat = that .yat = what. bhadram = is beneficial.


Purport -

O Self-luminous God! thou art the producer of the universe.Every creature receives inspiration from there. we beseech thee to dispel our evils and miseries. May we acquire all the virtues through  thy Greece.


Give what is good and take away what is bad.


One does not become virtuous by removing evil.

duritani  plural

bhadram singular 


vishvani duritani


The words Dev and Savita have been kept with a special meaning.


Whether he has the item from which he is asking or not. Because even a fool does not buy a mobile by going to the confectionery shop.


And even if the thing is his, but will he give it by asking.


The word Deva tells that God has everything.


The meaning of the word Savita is that even if I do not have a single quality, but you are my father and I am your son /daughter, therefore I can ask from you. A father cannot say to an unworthy child that you are not my child.  No one hesitates while daring to ask the father.



The Other Secret of the Singularity in Bhadra.


Second sense of the word Dev and Savita


The word Savita means to inspire, to push, to eject, to drive away.famous meaning of  the word Deva is the sense of giving.


1- Remove the evils 2- Give us goodness.  There is a prayer to give away in half a mantra and a prayer to give something in a mantra. Therefore, both types of names of God are in this mantra.









शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

शिक्षा एक सतत प्रक्रिया

आज हम मानवीय विकास की यात्रा पर कुछ परिचर्चा करते हैं।इस परिचर्चा  से जहां हम इतिहास के पन्नों को पलट सकेंगे वहीं हम स्वयं के जीवन को दिशा देने वाली प्रेरणा से भी रूबरू हो सकेंगे। यूं तो हमने आकाश में पक्षियों की तरह उड़ना सीख लिया है।सूर्य, चंद्र आदि सौरमंडल की वास्तविकता का मापन भी हमने कर लिया है और साथ ही मछलियों की तरह समुद्र में तैरना भी हमें आगया है। हमने समुद्र की गहराई का मापन और उसके अंदर के रत्नों को भी पहचान लिया है।भले ही हमने पक्षियों के जैसे  उड़ना और मछलियों के जैसे तैरना सीख लिया है ,फिर भी हमें इंसानों की तरह चलना सीखना ही होगा।हम मनुष्यों की प्रकृति उड़ना या तैरना नहीं है।हमारा सच्चा स्वभाव है धरती पर चलना।यह हमारे अस्तित्वबोध की प्रकृति भी।धरती है ही रत्नों की खान । इसलिए धरती को रत्नगर्भा कहा जाता है।रत्नगर्भा धरा में असंख्य रत्न हैं।उन अमूल्य रत्नों की पहचान के लिए हमें आखिर  किस योग्यता की आवश्यकता है? क्या केवल योग्यता से इन अमूल्य रत्नों की पहचान होने वाली है।वास्तव में इसके लिए ज्ञान ,योग्यता और इच्छा का संतुलन अनिवार्य है।

ज्ञान (क्या-क्यों)योग्यता (कैसे) इच्छा (चाहना)।इसी प्रक्रिया को विद्वान शिक्षा कहते हैं।शिक्षा का अर्थ  है जो जीवन में आने वाली समस्याओं से पार कराने में सक्षम हो।ऐसी शिक्षा के ब्लूप्रिंट पर  विमर्श आवश्यक है।शिक्षा के ब्लूप्रिंट पर विमर्श के लिए उन्नीसवीं सदी के महान आचार्य महर्षि दयानंद सरस्वती जी की अमर कृति सत्यार्थ प्रकाश का दूसरा समुल्लास ही आज का मुख्य उपकरण है।

महर्षि दयानंद सरस्वती ने कहा था कि अगर कोई मेरी उंगलियों को मोमबत्ती तरह जला भी दे तो भी मैं सत्य को सत्य ही कहूंगा। ऐसे दिव्य संत द्वारा प्रदत्त शिक्षा की प्रक्रिया हमारे लिए प्रेरणाप्रद भी है और मानवता के लिए उनकी देशना  महामन्त्र की तरह अनुष्ठान योग्य भी। 

महर्षि दयानंद सरस्वती जी शतपथ ब्राह्मण के वचन से अपनी बात रखते हैं-मातृमान् पितृमानाचार्यवान् पुरुषो वेद अर्थात् मनुष्य के ज्ञानवान् होने में तीन उत्तम शिक्षकों का बहुत बड़ा योगदान है। वह कुल धन्य है,वह संतान बहुत भाग्यवान् है,जिसके माता और पिता धार्मिक और विद्वान हैं।

महर्षि दयानंद सरस्वती जी माता निर्माता भवति अर्थात् प्रथम गुरु माता को मानते हैं। वर्णोच्चारण की शिक्षा माता द्वारा दी जानी चाहिए।माता के बाद दूसरा गुरु पिता है।महर्षि दयानंद सरस्वती उस मां को शत्रु और उस पिता को संतान का वैरी मानते हैं जो अपनी संतान को शिक्षा नहीं दिलाते हैं।

सच में शिक्षा वह साधन है जिससे व्यक्ति सही अर्थों में मनुष्य बनता है और एक सुंदर ,स्वस्थ ,सरल और सहज समाज के निर्माण में अपनी सर्वोत्तम भूमिका तय करता है।महर्षि दयानंद सरस्वती जी के सत्यार्थ प्रकाश के दूसरे और तीसरे समुल्लास हमें अवश्य पढ़ने चाहिए।


 

ज्ञान,विज्ञान और उद्बोधन

ज्ञान, विज्ञान और उद्बोधन इन्हें मात्र शब्द समझना उचित नहीं है। यह तीनों शब्द  महामंत्र हैं।ये त्रिवेणी के पवित्र संगम की तरह पावन करते हैं। इस त्रिवेणी की पहली धारा है ज्ञान की धारा। ज्ञान का मतलब नॉलेज। क्या और क्यों का समाधान है  ज्ञान।  जब तक मानस में क्या और क्यों की जिज्ञासा उत्पन्न नहीं तब तक विज्ञान प्रकट हो ही नहीं  सकता है? अगर मुझे चाय पीनी है तो मुझे पता है चाय क्या है? और मुझे यह भी पता है कि चाय क्यों पीनी है? क्या,क्यों, कब, कौन और कहां - ये 5 प्रश्न हर पल हमारे मानस को जिज्ञासु के स्वभाव में परिवर्तित करने में हेतु है ज्ञान । परंतु  कैसे बनाए जाए अथवा निर्मित करें इसका उत्तर विज्ञान से मिलता है।विज्ञान मतलब प्रयोग। कथनी में  करनी  के शामिल होने का नाम है विज्ञान ।

हाइड्रोजन के दो कण जब ऑक्सीजन के संपर्क में आते हैं तो वह पानी बन जाता है, इसी प्रक्रिया को विज्ञान कहते हैं। लेकिन इस पानी से संसार के सभी जीव-जंतुओं की प्यास बुझती है इसे ज्ञान कहते हैं। 

ज्ञान की  प्राचीन परंपरा में वैदिक ऋषियों और दार्शनिकों के अलावा यूरोप के अरस्तु, प्लेटो इमर्सन आदि की एक सुदीर्घ परंपरा है। ठीक इसी तरह विज्ञान की भी एक लंबी श्रृंखला है। ज्ञान और विज्ञान मानवता के लिए सदा  वरदान रहे, इसके लिए आवश्यक है उद्बोधन। अर्थात् जागना अवेयर होना किसका अवेयर होना स्वयं का । सेल्फ अवेयरनेस को आत्मजागरण कहते हैं? स्वयं का उद्बुद्ध होने का अर्थ है हम स्वयं को यूनिक समझें। स्वयं के लिए स्वयं ही स्क्रिप्ट  तैयार करना। स्वयं क्रिएटर बनें, रचयिता बनें।  यूनिक क्रिएटर बनें, कॉपी-पेस्ट और रेडीमेड जैसे क्विकफिक्स साधनों से बचकर  जीवन की इस महायात्रा में धैर्य और  प्रसन्नता के साथ अपनी सभी भूमिकाओं में तालमेल बैठाकर (रेस्पॉन्स+एबिलिटी) रेस्पोंसिबिलिटी को पूरा करना ही उद्बोधन का परम उद्देश्य है।विक्टिमकार्ड और ब्लेमगेम जैसे बहानों का परित्याग ही अस्तित्वबोध की प्रकृति के संज्ञान में परम सहयोगी हैं।यही इस त्रिवेणी का माहात्म्य भी है।



रविवार, 24 अक्तूबर 2021

Mahamrityunjaya mantra

VEDIC CHANTING - 03


ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।

उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

Om tryambakam yajamahe 

sugandhim pushti vardhanam ।

Urvarukamiv bandhanan

 mrityormukshiya maamritat  ।।

ॐ Om = a sacred syllable.

त्र्यम्बकं tryambakam = who has three eyes/ There are three mothers whose name is Tryambak.

यजामहे yajamahe = One who is prayed or worshipped

सुगन्धिम् sugandhim =  fragrance

पुष्टि pushti = Prosperous, fulfilled

वर्धनम् vardhanam = One who nourishes, strengthens, increases health, wealth, well-being.

उर्वारुकमिव urvarukam iva- = like a ripe melon.

diseases, obstacles in life, resulting depression

बन्धनान् bandhanan = attachment which can bind down

मृत्योर्मुक्षीय mrityormukshiya = Free or liberate from death

माऽमृतात् maamritat = Free me from death but not from immortality.

Mahamrityunjaya Mantra Meaning:

Om. We pray to The Three-Eyed Lord Shiva who is fragrant and who increasingly nourishes the devotees. Worshipping him may we be liberated from death to attain immortality just as the ripe cucumber easily separates itself from the binding stalk.

Mahamrityunjaya Mantra Importance/Benifits:

It is the collection of high-energy words when chanted in proper rhythm creates positive and divine vibrations around the body of the chanter which acts as a protective shield for the devotee.

Mahamrityunjaya Mantra is the life-saving mantra from untimely death or any fear.

This is the most powerful healing mantra which has been adopted from ancient times till now.

It has the power to give health, wealth, peace, prosperity, or salvation by first eliminating all the problems.

It has been tested on patients when all medical treatments failed and chanting or playing the mantra around the patient has done wonders in their lives.

The divine vibrations of this mantra are not only for treating diseases but also removes any fear, anxiety, or mental illness and keeps away from any negative energy.

This mantra brings happiness, peace, calmness, and consciousness in the mind of a chanter.

It will work in subtle ways, not necessarily it will affect directly in materialism. but it will give you enough mental strength, power, and virtues of Lord Shiva.

This is also called Moksha Mantra where one can connect with the highest supreme with the help of this mantra. Understand the meaning of the last line of the mantra which says freedom from the cycle of life-death and attain salvation.

Devotee receives blessings of Lord Shiva which is the most beautiful thing.This mantra is self-sufficient in every aspect.





बुधवार, 6 अक्तूबर 2021

The Prayer for Virtuous Intellect




Famous Gayatri or Guru mantra

ॐ भूर्भुवःस्वः । तत्  सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।।
Om bhur bhuvah swah.Tat savitur varenyam bhargo devasya dhimahi.Dhiyo yo nah prachodayat .

               -यजु0 36/3, -ऋग् 3/63/10, साम0 उ0 6/3

Many names of this Gayatri Mantra

1.Gayatri- It belongs to the Gayatri class of metres ( composed of 23 or 24 syllables excluding the vyahritis)., this mantra is called Gayatri Mantra.  
2.Savitri- The devata of this mantra is Savita, hence this mantra is called Savitri Mantra.  
3.Gurumantra- In Vedarambha Sanskar ,the guru preaches this mantra to his disciple, so this mantra is called Gurumantra.  
4.Vedmata- In Atharvaveda this mantra has been called Vedmata.  
5.Mantraraj-This mantra is the best among all the mantras.  In some places this mantra is called Mantraraj.  
6.Vedamukh- Gayatri Mantra being the main mantra in the Vedas, this mantra is called Vedamukh.  
7.Kamdhenu- Gayatri Mantra fulfills all desires, hence this mantra is called Kamdhenu.
The mantra is preceded by three sacred expressions, the Mahavyahritis - The great utterances. It is called Guru mantra , because , firstly ,it convey a great sance , secondly, it is employed by the preceptor to initiate a pupil. It is also named as Gayatri mantra, because firstly ,it protects the reciter from ill-intentions and secondly , it belongs to the Gayatri class of metres ( composed of 23 or 24 syllables excluding the vyahritis). According to subject matter of the mantra it has been given the name of Savitri.
Paraphrase - संक्षिप्त व्याख्या
Om = the Almighty God          
bhuh = the lifebreath of all creatures,dearer than even the life itself,                                               
bhuvah = the remover  of all evils and pains,                                    svah = and the motivator of the universe.
Dhimahi = May we perceive, reflect, tat = that ,varenyam = excellent, bhargah = splendour
savituh = of the impeller and the creator of the universe
devasya = the divine enlightenet of all and the besower of bliss
yah = may he who holds the excellent splendour, prachodayat = direct ,nah = our
dhiyah = intellectual faculties to follow the virtuous path.
Purport = भावार्थ 
O omnipotent God! Thou art our dearest life-breath.Keep us away from evil intentions and physical suffering. May we ever thy pure vision in over mind. O Divine Englihtener ! Lead kindly light to us. May the splendour-nature direct our minds towards the righteous path. May we attain not only physical progress but also ultimate emancipation.

सोमवार, 4 अक्तूबर 2021

सह नाववतु May It protect the both of us



Om  also known  as (ॐकार , एकाक्षरम्, प्रणव) प्रणव is the Source  and Controller of life as we know it, and therefore, is also known as the Sound of the Divine or the Divinity itself.
Om is eternal sound of the source of creation,that reverberates within the human body, and across all creation. Should it be changed as OM, or as a combination of अ+उ+म्.
Let me ask you something what is your definition of GOD? Different  people might have different beliefs as to the shape,form and name of GOD, but all of them, have a single founding  principle.

We know that the most obvious signal of life within the body,is the breath.The Sanskrit name is प्राणवायु.Prana can be roughly translated as life.The source of life Prana is pranava.This life force manifests itself ,as the aspects of creation, maintenance and destruction within the human body.T he sound attached with these aspects are अ, उ and म्.

These sounds are manifest inside the human body,just below the naval,at the chest and above the throat.

One need not go so far as to have an experience realization of these sound  inside the body.just uttering these sounds out loud enough will create a reverberation at these very specific body parts.

The word नौ in sanskrit is used as an alternate form of आवाम्, which is द्विवचन पदम् - Both of us or the dual form of word , which means both of us.

So whenever we chant this, there are two parties involved. The chant sets the ambience in which  interaction should take place between these two parties.

The two entities could be

A teacher and a student

A provider and a receiver

or just two people performing a task together.

Coming to the actual meaning of verse, Let's look at it line by line.The individual words in it are: सह नाववतु - saha , nau and avatu.सह - Together, नौ - Both of us अवतु - Protect.May who protect the both of us? That is not explicitly mentioned in the verse, because the gender of the doer does not affect the verb in sanskrit.It could as well be understood as “May It protect the both of us.”So the meaning of the first line सह नौ अवतु  is May the knowledge of the divine, protect  both of us. Now comes the 2nd line: सह नौ भुनक्तु  saha means together ,nau is the both of us ,bhunaktu is nourish. (Bhunaktu has similar origins as the word bhojanam, which means nourishment.) The meaning of the second line is: May it nourish both of us together.

We see that the first two lines have addressed the basic survival aspects of existence. May the both of us be protected and nourished together. Only after these two aspects are taken care of, we go towards activity.

The third line says - सह वीर्यं करवावहै , वीर्यम् in Sanskrit has multiple meanings.The literal meaning of it is energy. करवावहै - do together करवावहै means  let us generate.The line सह वीर्यं करवावहै says let us generate energy together.The energy is result of action, which could be at various levels. It could either be physical , emotional, intellectual or at an even subtler level.

The next line directs the nature of this energy, that is generated. The words are split asतेजस्वि नौ अधीतम् अस्तु  The word tejasvi can be thought of as bright and brilliant, nau is again together, adheetam is that which has been attained,astu which means may it be .The literal meaning of तेजस्वि नौ अधीतम् अस्तु is May what we attained be bright and brilliant.So far, we have set the ambience for protection, nourishment, activity, and attainment of the result.Once the result is obtained, there comes a possibility of conflict.

The next line addresses it saying मा विद्विषावहै ,मा -  not ,विद्विषावहै - means have conflict among the both of us.May we not quarrel, and not have a conflict among the both of us.



रविवार, 3 अक्तूबर 2021

मार्जनक्रिया की कतिपय विशेषताएं

 

 


मार्जनक्रिया की कतिपय विशेषताएं 

स्वयं के अस्तित्व को अच्छी तरह से समझने,स्वयं के लिए संभावनाओं को तलाशने तथा स्वयं की कल्पनाशीलता को विवेक द्वारा नियंत्रित करने की प्रक्रिया का नाम मार्जनक्रिया है ।जीवन की गहनतम चिंताओं का अनौा समाधान है मार्जनक्रिया। चिंताएं चाहे संगठन की हो, व्यक्ति की हो परिवार की हो फिर खुद की ही क्यों हों,ार्जनक्रिया हमारे मस्तिष्क के द्वार को स्थायी चीजों की तरफ अर्थात् जीवनमूल्य,परिवार,संबंधों तथा संप्रेषण की ओर उत्प्रेरित करती है।यह क्रिया सिद्धांतों का सजीव दर्शन कराती है। मार्जनक्रिया शक्ति,विश्वास और अनुभूति को उच्च स्तर पर ले जाने की सीख देती है।प्रभावकारी संप्रेषण की मजबूत नींव भी है।

मार्जनक्रिया अवसर प्रदान करती है खुद को खोजने, दूसरों पर स्वयं के प्रभाव को समझने और उनकी गहरी अंतर्दृष्टिओं का लाभ लेकर स्वयं के प्रभाव को बढ़ाने में। जिंदगी बदलने का नाम है मार्जन किया।यह क्रिया सिर्फ व्यवसाय में सफल होने का तरीका नहीं सिखाती है बल्कि सफल मानवीय संबंधों के लिए नैतिकता के आधार पर जीने के तरीकों को परिभाषित कर प्रशिक्षित करती है।इस क्रिया में संगठन के हर स्तर पर कर्मचारियों को ऊर्जावान तथा नेतृत्व पैदा करने की विशेष क्षमता विद्यमान है।इस क्रिया में बुद्धि,करुणा और व्यावहारिक अनुभव का आदर्श मिश्रण है।

मार्जनक्रिया कोई चमक-दमक वाला मनोविज्ञान अथवा फैशनेबल self-help नहीं है। इस क्रिया में सुदृढ़ बुद्धिमत्ता भी है और सुदृढ सिद्धांत भी।इसमें समाहित सिद्धांत शाश्वत हैं।ये सिद्धांत जीवन के हर पहलू पर लागू होते हैं।मार्जनक्रिया के सिद्धांत ऑपेरा की तरह हैं आसानी से तबक प्रदर्शित नहीं हो सकते हैं जबतक कि उनका अच्छी तरह से अभ्यास ना कर लिया जाए। मार्जनक्रिया प्रेरणादायक विचारोत्तेजक प्रक्रिया है। सच तो यह है कि मार्जन क्रिया बार-बार प्रयोग की जाने वाली प्रक्रिया है।

जीतना भी एक आदत है और हारना भी एक आदत है।मार्जनक्रिया के  सातों सोपान सुखी ,स्वस्थ और सफल व्यक्तियों को उनसे पूरी तरह से अलग कर देते हैं जो संकुचित अर्थ में सफलता पाने के लिए जीवन के अर्थ और सुख की बलि दे देते हैं। मार्जनक्रिया एक अद्भुत प्रक्रिया है।यह अंतर्दृष्टि करती है।परवाह योग्यता विकसित करती है।्यक्ति को अंदर से आमूलचूल परिवर्तन करती है।मार्जनक्रिया के सात सोपान जीवन के सभी क्षेत्रों के लिए सफलता की कुंजी है।

मार्जनक्रिया परिवार,बिजनेस और समाजसंबंधी स्थायी सच्चाइयों का समर्थन करती है।यह हमें उस मनोवैज्ञानिक बकवास से बचाती है ,जिसने मानवीय संबंधों को वर्तमान समय में बहुत अधिक दूषित कर दिया है। मार्जनक्रिया न तो  आशावादिता से व्याप्त है और नही निराशावाद से व्याकुल है।यह पूरी तरह से संभावनावाद की पक्षपाती है।इस प्रक्रिया में बदलने के लिए हम और सिर्फ हम ही अपने अंदर का द्वार खोल सकते हैं जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता पाने के लिए ज्ञान सबसे तेज और सुरक्षित रास्ता है मार्जन क्रिया में उन शाश्वत सिद्धांतों का समावेश किया गया है जिनका प्रयोग सभी अति प्रभावकारी लोग करते हैं सफलता को प्रशिक्षण द्वारा सीखा जा सकता है।मार्जनक्रिया सफलता सीखने की अति प्रभावकारी प्रक्रिया है

मार्जनक्रिया नेतृत्वक्षमता तथा आत्मप्रबंधन में महत्वपूर्ण योगदान देती हैसमाज का कोई भी व्यक्ति मार्जनक्रिया के द्वारा शाश्वत सिद्धांतों को अपनाकर आत्मलाभ उठा सकता है।मार्जनक्रिया के महानतम सिद्धांतों में हैं आदत का व्याकरण। बुद्धिमत्ता से सीखना और विवेकपूर्वक अमल करना। जो जाना ,जो समझा, उसके अनुरूप अमल करना जरूरी है। मार्जनक्रिया स्थायीरूप से सार्वजनिक विजय हेतु प्रबल सहयोगी है।

प्रतिस्पर्धात्मक दुनिया में जब हम पर अनगिनत जिम्मेदारियां हैं तो हमें मार्गदर्शन की बहुत ज्यादा जरूरत होती है।यह सात व्यंजनों वाला भोजन है।यह जीवन का नियंत्रण अपने हाथों में लेना सिखाती है।ंतुष्टिदायक,ऊर्जावान और कदम दर कदम मार्गदर्शन करती है यह मार्जिन किया जीवन और सिद्धांत का सचेतन एकीकरण अर्थात् आंतरिकविचार और बाहरी व्यवहार को एक समान करने की प्रक्रिया है, जिसके परिणामस्वरूप हमें व्यक्तिगत और सार्वजनिक अखंडता हासिल होती है।

                                                                                                                             - डॉ. कमलाकान्त  बहुगुणा 



 


शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

महाराजजी आज तो मैं मरते-मरते बच गया

 


बात उन्नीस सौ तिरानवे के समय की होगी।गुरुकुल में अध्ययन के दौरान का यह घटित प्रसंग है।गुरुकुल में एक बड़ी उम्र के छात्र भी पढ़ने के लिए आए थे।वे उम्र में हमसे दस वर्ष बड़े होंगे।वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक भी थे।हम सब उन्हें भ्राता जी बोलते थे।वे बहुत ही सरल,सहज स्वाभाविक व्यवहार के धनी थे।मुझे तो उनका स्नेह सगे भाई से भी बढ़कर मिलता था।छात्रावास में स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण उन्होंने अपने रहने की व्यवस्था बाहर कर दी थी और पढ़ने महाविद्यालय में आया करते थे।

एकदिन की बात थी।वे बहुत ही व्यथित और घबराए हुए लग रहे थे।उनके चेहरे को देखकर लग भी रहा था कि मानो जैसे वे किसी बड़ी परेशानी में हों।मुझसे उनकी वह अवस्था कुछ अटपटी-सी लग रही थी।यह सब देख मुझसे रहा नहीं गया और मैं पूछ बैठा भ्राताजी आप आज बहुत परेशान नजर आरहे हैं। सब कुशल तो है न।वे प्रायः सबको महाराजजी ही संबोधित करते थे।वे बोले- महाराजजी आज तो मैं मरते-मरते बच गया।और फिर जो उनके साथ घटा उसे उन्होंने सिल-सिलेबार बताना शुरू कर दिया।मैं उनकी हर बात को बहुत ही गौर से सुन रहा था।उन्होंने बताया कि आज जब मैं पढ़ने के लिए कमरे से पैदल-पैदल आरहा था तो रास्ते में मुझे फन फैलाए हुए काला सांप दिखा।आज तो उसने मुझे डस लिया होता।यह समझो कि मैं बाल-बाल बच गया हूं।मुझे तो आज अपनी साक्षात मौत नजर आरही थी।वह तो अच्छा हुआ सांप को देखते ही मैं दौड़ पड़ा।मेरी हिम्मत पीछे मुड़कर देखने की भी नहीं हुई।अगर मैं भागता नहीं तो आज वह सांप मुझे बिना काटे नहीं छोड़ता।

खैर, अब वे पहले से मुझे बेहतर दिखने लगे।फिर दूसरे दिन जब वे आए तो मैंने पूछा-भ्राता जी आज तो आपको  सांप नहीं दिखा होगा रास्ते में।मेरे बोलते ही वे बड़े ही कातर भाव से बोले कि लगता है वह सांप मुझे डसकर ही मानेगा।आज भी मुझे सांप उसी जगह पर दिखा।मैं भी हैरान था कि ऐसा कैसे होसकता है।उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था, मानो जैसे उन्हें अपनी मौत साक्षात नजर आरही हो।वे बहुत ही घबराए हुए नजर आरहे थे।खैर,शाम को वापिस अपने कमरे पर चले गए और जब फिर मुझे अगले दिन अर्थात् तीसरे दिन मिले तो मैंने उनसे पूछा-भ्राता जी!सब ठीक-ठाक?अब तो वह हंसते हुए बोले-महाराज! वहां सांप-वांप कुछ नहीं था।मैं तो उससे  बेकार ही डर रहा था,वह तो सड़क के किनारे फन फैलाए सांप के आकार वाला लोहा गड़ा था।जिसे मैं सांप समझ बैठा था।फिर क्या था?हम दोनों मिलकर बहुत देर तक हंसते रहे।

गुरुवार, 20 मई 2021

शिक्षक और अभिभावकों के मध्य रिश्ता


शिक्षक और अभिभावकों के मध्य रिश्ता 

स्वयं शिक्षक हूँ अतः इस विषय का आकलन भी शिक्षकधर्म की परंपरा के अनुकूल ही करने की भरसक कोशिश करूंगा। मेरा मानना है कि शिक्षक-अभिभावक का रिश्ता अन्य रिश्तों से जैसे पति-पत्नी,गुरु-शिष्य,भाई-बहन,पिता-पुत्र,मां-बेटी आदि से नितांत भिन्न है।इस रिश्ते के लिए कमजोर या मजबूत विशेषण देने की अपेक्षा परस्पर संवादपूर्ण विश्लेषणात्मक नजरिये को विकसित करना बहुत जरूरी है।पल-प्रतिपल विमर्श ही परस्पर आकर्षण का एकमात्र आधार है इस रिश्ते में।इस रिश्ते में मौन का अर्थ है मृत्यु। यहाँ मौन का मतलव अपनी जिम्मेदारियों को कमतर आंकना या उनसे भागना है।
संवाद ही एक मात्र ऐसी शैली है,जो अभिभावक और शिक्षक के मध्य में बनी अकारण-सकारण दूरी,असहमति और असंतोष के भावों को अंकुरण होने से पहले  सदा-सदा के लिए नष्ट कर परस्पर आत्मिक सद्भाव और सौहार्द को जन्म देती है।संवाद ही विवाद के रोकथाम में कारगर उपाय है।संवाद के लिए प्रथम शर्त है मन में   किसी तरह की कोई आग्रह की पोटली न हो।शांत मन निष्पक्ष समन्वय की भावना के साथ परस्पर चर्चा के लिए सहमत होना ।
शिक्षक और अभिभावक दोनों के केंद्र में विद्यार्थी है। दोनों के विमर्श का मकसद भी विद्यार्थी ही है।विद्यार्थी मतलव भारत का भविष्य और भविष्य के निर्माण में नींव की मजबूती का ख्याल हमेशा रखना चाहिए।भावी विराट,भव्य,दिव्य व्यक्तित्व रूपी इमारत के निर्माण के लिए शिक्षक-अभिभावक के लिए सत्परामर्श है कि वे परस्परसंवाद को अहमियत दें।साथ हीं उन्हें सावधान भी किया जाना चाहिए कि देश के निर्माण में अपने गैर आवश्यक मिथ्या अभिमान को कभी भी संवाद में आड़े न आने दें,ज्ञान,धन,मान,पद और प्रतिष्ठा के अभिमान से बचने की पूरी कोशिश करें।
वर्तमान के विद्यार्थी ही देश के भावी कर्णधार होतेहैं।भविष्य में देश का भार उनके कंधों पर होगा।अतः शिक्षक और अभिभावक दोनों को मिल कर उनकी भुजाओं और कंधों  को मजबूत करना होगा। उन्हें इस तरह से प्रशिक्षित करना होगा ताकि उनका सिर कभी झुके नहीं।छाती चौड़ी और मस्तक सदैव ऊंचा रहे उनका भी और अपने देश का भी।क्योंकि भविष्य उनके निर्माण की गुणात्मक परीक्षा जरूर करेगा।
आचार्य चाणक्य ने भी कहा है- शिक्षक की गोद में निर्माण और प्रलय दोनों निवास करते हैं। अतः शिक्षक को भी यह निश्चय करना जरूरी है कि निर्माण और प्रलय में किसे महत्व दे? 
शिक्षक और अभिभावक कि सूझ-बूझ भरी संवादशैली ही उनके आपसी रिश्तों को आजन्म  सजीव और अमर कर सकती है।विद्या ददाति विनयं का सूत्र उन्हें उनके बढ़ते ज्ञान के अनुभव को हकीकत के धरातल पर विनम्रता के संचार के साथ तीव्ररूप में प्रवाहित करता है। यही इस रिश्ते की सुगंध भी है।


वैदिकसंस्कृति की कतिपय विशेषताएं

वैदिकसंस्कृति की कतिपय विशेषताएं -डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा

वेद का ज्ञान सदा से सम्पूर्ण मानवता के लिए समर्पित है।जाति,वर्ण,समाज, देश, पंथ, संप्रदाय आदि की दीवारों को गिराकर धरती पर मनुष्यमात्र की संवेदना का प्रतिनिधित्व करता है वेद का आलोक।महाभारत वेद के आलोक की सत्ता का सम्यक्तया ज्ञानोपरान्त ही डिंडिम उद्घोषणा के लिए उद्यत हुआ है।महर्षि वेदव्यास की ध्वनि पूर्ण निष्ठा के साथ वैदिक गवेषणा के लिए आह्लादकारी प्रेरणा है।मनुष्य की सभी तरह की प्रवृत्तियों के संरक्षण के सूत्र पदे-पदे वेद में विद्यमान हैं। 

          यानीहागमशस्त्राणि याश्च काश्चित् प्रवृत्तयः पृथक्।

          तानि वेदं पुरस्कृत्य प्रवृत्तानि यथाक्रमम्।।महा0 अनु0 122/4

आधुनिककाल खंड में वामपंथ की पक्षपात पूर्ण बौद्धिकता के भ्रमित मायाजाल से ग्रसित कुछ आग्रही व्यक्तियों ने मनु की समग्र चिंतन परम्परा को गर्हित करने के अभीप्सित प्रयत्नों द्वारा निम्नकोटि के तथा विभाजनकारी षड्यंत्रों वाली मानसिकता से मनु को अनावश्यक विवादास्पद बनाने की भरपूर कोशिश की थी।वैदिक विरासत और वैदिक गवेषणा में महर्षि मनु अत्यंत श्रद्धास्पद हैं।महर्षि मनु की दृष्टि में वेदों में भौतिक पदार्थों के नाम और कर्म के साथ ही लौकिक व्यवस्थाओं की रचना  का समग्र निदर्शन प्राप्त होता है।

सर्वेषां नामानि  कर्माणि च पृथक्  पृथक्।वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे।।मनु0 1/21

आत्म-परमात्मा का वर्णन, परमानंद की प्राप्ति के उपायों की चर्चा,प्रकृति-पुरुष का विश्लेषण, द्रव्य-गुण की व्याख्या, प्रत्यक्ष-अनुमान आदि प्रमाणों का विस्तृत उल्लेख,यज्ञीयकर्मकांड की प्रक्रिया का चिंतन, न्याय-वैशेषिक आदि षड्दर्शनों की रचना के आधार वेद ही हैं।तभी तो इन दर्शनों को आस्तिकसंज्ञा है।वेदों की प्रमाणिकता को अस्वीकार करने वाले चार्वाक-जैन–बौद्ध आदि दर्शनों को मनु ने नास्तिको वेदनिन्दकः कहा है।

महर्षि मनु की मान्यता है कि राज्यव्यवस्था, दंडविधान और सेनासंचालन में सिद्धहस्त वेदों के विद्वान ही हो सकता है।

सैनापत्यं च राज्यं च दंडनेतृत्वमेव च।सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति ।।-मनु012/100

वेदों में राष्ट्रसंरक्षण के रहस्य की ऐसी सीख दी गई है, जिसे जीवन में अपनाने से हमारा राष्ट्र सुरक्षित रहेगा और समुन्नति की ओर अग्रसर भी होगा।अथर्ववेद में वर्णित है यदि  राष्ट्र के नागरिक परिश्रमी आलस्य और प्रमाद से रहित हैं तो वह राष्ट्र सुरक्षित भी है और उत्कर्ष के सभी सोपानों को अवश्य संस्पर्श करता है।

श्रमेण तपसा ब्रह्मणा वित्त ऋते श्रिताः .... अथर्ववेद 12//5/1

सुविदित ही है कि आलसी और निकम्मा व्यक्ति संसार में कुछ भी नहीं प्राप्त कर सकता है।यजुर्वेद में उल्लिखित है।मनुष्य तू कर्म का निष्पादन करता हुआ वर्षों तक जीवित रहने की अभिलाषा रख।कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः...... यजुर्वेद 40/2

श्रम के बिना विश्राम की परिकल्पना नितांत असंभव है।इसी कारण वैदिक ऋषि परिश्रमी व्यक्ति के मुखव्याजेन  उद्घोषणा करता है कि मेरे दाहिने हाथ में पुरुषार्थ है और बाएं हाथ में उत्कृष्ट सफलता।कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः..........अथर्ववेद 7/50/8

सफलता आस्वादन का मुख्य रहस्य कठोर परिश्रम ही है।राष्ट्र के नागरिक यदि परिश्रमी हैं तो उस राष्ट्र के उत्कर्ष को कोई चुनौती नहीं दे सकता है?आज भी विश्व में अनेक ऐसे राष्ट्र हैं जिन्होंने बहुत ही अल्पसमय में प्रकर्ष उत्कर्ष की गाथा स्वर्णाक्षरों में लिखी है।उत्कर्ष के मूल में विवेकपूर्ण कठोर परिश्रम है।यदि वहां के नागरिक कदाचित किसी विशेष संदर्भ में अपने राष्ट्रीय नेतृत्व से असहमति रखते हैं तो वे विरोधस्वरूप अपने हाथों में काली पट्टी धारण करेंगे,परन्तु अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्यों से वे कदापि विमुख नहीं होते हैं।हड़ताल के नाम पर जर्मनी और जापान देशों के नागरिक अपने राष्ट्र की प्रगति को रोकने में किसी भी कीमत पर सहभागी नहीं बनते हैं। वे राष्ट्रीय उन्नति में कभी भी बाधक नहीं बनते हैं।

श्रम और तप  का अर्थ है श्रम में तपस्या  की अनिवार्यता।महाभारत में तप का अन्वाख्यान कर्तव्यपालन से है। तपः स्वकर्मवर्त्तित्वम्।कर्म करते समय तप की भूमिका नींव में संस्थापित पत्थर सदृश है।चाणक्य के अनुसार इंद्रियों को वश में रखने का नाम तप है।तपः सारमिन्द्रियनिग्रहः।चाणक्यनीति

आचार्यशंकर तर्क और शास्त्र की अभिज्ञता से सदा वंदनीय हैं।वे जितं हि जगत् केन? मनो हि येन.....प्रश्नोत्तरी माध्यम से तप का माहात्म्य संदर्शित करते हैं।मन को नम किए बिना विश्वविजेता की संकल्पना उपहासास्पद होती है।

संसार की सार्वभौमिक सत्ता की स्वीकार्यता का अर्थ है अखिल विश्व के संचालक,जिसके अनुशासन में सम्पूर्ण जड़-चेतन अनुविद्ध है,उसके अनुशासन का उल्लंघन सर्वथा असंभव है।इस धारणा में प्रगाढ श्रद्धा ही अनौखी अनुभूति कारण बनती है-ईश्वरीय सार्वभौमिक सत्ता की स्वीकार्यता।यही आस्तिक हृदय की पहचान है।इस सत्ता की स्वीकार्यता ही व्यक्ति को अशुभता से सदा दूर रखती है।कर्मफल अवश्य ही सम्प्राप्त होते हैं-यह न्याय इस सत्ता का परम संज्ञान है।कोई भी जागरूक व्यक्ति कभी भी दुःख की कामना नहीं करता है।अशुभ कर्मों के परिणामस्वरूप दुःखों के भोग को रोकने में कोई भी शक्ति सक्षम नहीं है।आस्तिकहृदय कर्मपरिणाम को कभी विस्मृत नहीं करता है।इस अनौखी सीख की छाप सदा उसके अंतर्मन में रहती है।इसी अनौखी शिक्षा की स्पष्ट झलक छान्दोग्योपनिषद में मिलती है।आस्तिकमति से सम्पन्न राष्ट्रीयनेतृत्व के प्रतिनिधि महाराज अश्वपति की उद्घोषणा संवेदनापूर्ण सज्जनों को आज भी अनवरत आकर्षितकिए बिना नहीं रहती है।

न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः।नानाहिताग्निर्नाना विद्वान्न स्वैरी स्वैरिणी कुतः।।

राष्ट्र चेतना के संदेश वीरभोग्या वसुन्धरा को अनुप्राणित करने की सदा ही आवश्यकता रहती है।भूमि मांसदृश पुत्र की सभी इच्छाओं को सुफलित करने वाली होती है।वेद की ऋचा माता भूमि: पुत्रोSहं पृथिव्या: का उच्चारण इसी महत्ता की ओर संकेत करती है।इस राष्ट्र वैभव की सुरक्षा हेतु स्वयं की आहुति देने में कैसा भय? वयं राष्ट्रे जागृयामः पुरोहिता: और वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम... भी इसी भावना की जागृति में परम उद्दीपन हैं।

वेदों की समाज के संदर्भ में मौलिकता अवश्य ही आदरणीय है।ज्ञान-विज्ञान के कारण ब्राह्मण,शक्ति और साहस की प्रचुरता से क्षत्रिय, व्यापार में अनुष्ठानकौशल से वैश्य,सेवा की परम भावना से शुद्र,उत्तमप्रबंधन से नारीशक्ति, निर्भीक और बलवान संतति, दुधारू और पुष्ट गौएँ,द्रुतगति धारक अश्व,पर्याप्त भारसंवाहक वृषभ, अपरिमित हरीतिमा,रोगनाशक औषधि,पर्याप्त वर्षा,अतिवृष्टि और अनावृष्टि का सर्वथा अभाव तथा योग और क्षेम की उपलब्धि की कामना और प्रार्थना वेद की वैज्ञानिकता का व्यवस्थित चित्रण है।यजुर्वेद की यह मन्त्र साधना-आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतां.......योगक्षेमो न:कल्पताम् ....

यह सार्वकालिक और सार्वभौमिक कामना है।वेदों में उदात्त शिक्षा का संदर्शन,मानवीयवेदना और राष्ट्रीयचेतना के सूत्र पदे-पदे विद्यमान हैं।स्वामी दयानन्द सरस्वती का उद्घोष वेदों की ओर लौटो तथा वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।वस्तुतः वेदों की सार्वभौमिकता के परिचय कायह निदर्शन है।

वेदों में सोम तत्त्व शान्ति का परम दूत के रूप वर्णित है।सोम के महत् सामर्थ्य में ही विश्वशान्ति की स्थापना सन्निहित है। वैश्विकशान्ति विश्ववरणीय है और यही वैदिकसंस्कृति की सर्वोच्च प्राथमिकता भी।

अच्छन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य ............सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा.......यजुर्वेद 7/14

शान्ति की प्रार्थना पदे-पदे वेदों में उल्लसित है।शान्तिपाठ और शान्तिकरण के मन्त्र शान्ति की वैश्विक प्रासंगिकता की अपरिहार्य देशना है।द्युलोक के सूर्य, चंद्र और नक्षत्र शान्ति के सन्देशवाहक हैं।अंतरिक्ष जो वायु और वर्षा का स्रोत भी है वह शान्ति का मंगल गायक है।विविध ऐश्वर्यों से प्लावित यह पृथ्वी शान्ति की अधिष्ठात्री है।नदी की शीतल धारा तथा फूलों और फलों से संयुक्त वनस्पतियां भी शान्ति की ही स्वर लहरियां हैं।हरितिमा से समादृत पर्वतों के उत्तुंग शिखर और उत्ताल तरंगों से आपन्न समुद्र भी शान्तिगान के लयबद्ध और अनुशासित श्रोता हैं।

शान्ति की स्थापना के लिए साधन भी शान्ति पूर्ण हों।परस्परप्रेम, परस्परसहयोग,परस्परसंवाद और परस्परनिर्भरता ही सही अर्थों में वसुधा को कुटुंब बना सकती है।

आतंकवाद आज वैश्विक समस्या है। इस समस्या के समाधान में परम साधन और सामयिक आह्वान है वैदिक संस्कृति की शान्ति के बीजांकुरण की प्राकृतिकप्रक्रिया का अनुप्रयोग।तथापि कदाचित् कतिपय संगठन यदि आतंक की फसल पैदा करने में अति उत्साहित दिखे, तब सभी विकल्पों में शिष्ट और अन्यतम विकल्प शेष समर ही है।

उत्तिष्ठत संनह्यध्वमुदारा: केतुभिः सह।सर्पा इतरजना रक्षांस्यमित्राननु धावत।।अथर्ववेद 3/30/19

वीरपुत्रों का सुसज्जा के साथ आह्वान राष्ट्रध्वज के उन्नतभाव का प्रदर्शन,सर्पसदृश कुटिल और विषधरप्रवृत्ति वालों  ,विभेदकारी की मानसिकता से अतिरंजित आतंकी क्रियाओं के कारक असुरों पर तब प्रहार ही एकमात्र विकल्प शेष रहता है-असौ या सेना मरुतः परेषामस्मानैत्यभ्योजसा स्पर्धमाना।तां विध्यत तमसापवृतेन यथैषामन्यो अन्यं न जानात् ।।अथर्ववेद 8/8/24

हे वीरपुरुषो!हमारी ओर बढ़ने वाली आतंकवादी सेना की गति को निरुद्ध हेतु उसे तामस अस्त्र से भेदन कीजिए,ताकि इन्हें परस्पर के सम्बन्ध का विस्मरण हो सके और ये परस्परसंहार हेतु भी तत्पर हो जाएं-इमे जयन्तु परामी जायन्ताम्।अथर्ववेद 8/8/24

हमारे वीर विजयश्री का आलिंगन करें और आतातायियों का पराभव हो।वैदिकऋषि द्वारा युद्ध की भयंकरता वर्णन आधुनिक समय में उसकी शाश्वत चिन्तन की प्रासंगिकता को यथार्थ में परिभाषित करता है।

वृक्षे वृक्षे नियता मीमयद् गौस्ततो वयः प्रणतान् पूरुषाद:।

                 अथेदं विश्वं भुवनं भयात इन्द्राय सुन्वद् ऋषये च शिक्षत् ।। ऋग्वेद 10/27/22

आचार्य यास्क उक्त मन्त्र के व्याख्यान क्रम में वृक्ष का अर्थ धनुष, गौ का अर्थ प्रत्यञ्चा और वयः का अर्थ बाण करते हैं।भीषणसंग्राम के दौरान उभयपक्ष की सेनाएं अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित है।प्रत्येक सैनिक के धनुष पर चढ़ी प्रत्यञ्चा टंकार की भीष्म गर्जना के साथ नररक्तपिपासु बाण शत्रुदल का मर्दन कर रहे हैं।इस संहार लीला से समस्त भुवन संत्रस्त हो उठा है।इन्द्र विनाश के क्षणों को अवलोकन कर प्रभु से कातरस्वरों में प्रार्थना करने लगा। संहारकारक इस संग्राम को रोकना अति आवश्यक है।प्रभो! प्राणों के प्यासे मन में प्रेम की अविरल धारा प्रवाहित कीजिए।ऋषियों से भी अभ्यर्थना है कि आपकी देशना में युद्ध विराम की कामना हो।युद्ध की अनिवार्यता को अस्वीकारते हुए वैदिक ऋषि की पुकार अवश्य ही ध्यातव्य है।

प्रमुञ्च धन्वनस्त्वमुभयोरार्त्न्योर्ज्याम्।याश्च ते हस्त इषवः परा ता भगवो वप।।यजुर्वेद 16/9

हे राष्ट्रनायक!धनुष की दोनों कोटियों पर चढ़ी प्रत्यंचा विमुक्त कीजिए।युद्ध हेतु सन्नद्ध हाथों में रखे बाणों को पृथक् कर दीजिए।धनुष और बाण सभी तरह के अस्त्र-शस्त्रों के बोधक हैं।समर में जिस साधन से विनाशक तत्त्व को विमोचित किया जाए वह धनुष और संहारक तत्व बाण संज्ञक के रूप में लोक में प्रचलित है।मन्त्रार्थ का तात्पर्य सामरिक सज्जा के विराम की प्रासंगिकता को अवसर प्रदान करना।

मित्रत्व की संकल्पना में वैदिकसंस्कृति की अनूठी सन्देशना है-मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।। यजुर्वेद 36/18

मैत्री झलक से मुझे और मेरे प्रत्येक कलाप में अवलोकन की वांछा सभी मानवीय सत्ता से और उस सत्ता के प्रति मेरी चक्षुओं में भी मैत्री की ज्योति सदा अवलोकित रहे।यह भावना परिस्थितियों पर निर्भरता के अपेक्षा प्रेम की शाश्वत सत्ता के प्रति पूर्ण निष्ठा की गंभीर अभिव्यक्ति हो।प्रेम की उपासना में अलंकार की अभिव्यंजना के साथ जिस स्वाभाविक प्रवृत्ति के आश्रय से ग्रहण किया गया है,वह वैदिक मनोविज्ञान के उत्कर्ष का भी परिचायक है।

सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या।।अथर्ववेद 3/30/2

हृदय की सदाशयता, मन की पवित्रता और द्वैष विद्वैष की सर्वथा अनुपस्थिति की अवधारणा में नवजात गोवत्स के प्रति गोमाता के व्यवहार का आदर्शसंस्मरण भी अनौखी ऋषिप्रज्ञा का अनुपम उदाहरण है।

वैदिक संस्कृति की प्रयोगशाला का नाम यज्ञशाला है।ऋचाओं की अनुगूंज के साथ स्वाहाकार के क्रम में शाकल्य और घृत की आहुति गौण होते हुए भी पर्यावरण की शुद्धि में प्रधान हेतुकी है।प्रकृति में सर्वत्र यज्ञ विद्यमान है।रात्रि के बाद उषा, उषा के बाद सूर्योदय।भूमि द्वारा सूर्य की परिक्रमा, वर्षा, ऋतुचक्र, नवसंवत्सर आदि।वस्तुतः यह सब यज्ञ ही है।

छान्दोग्योपनिषद में मानवजीवन यज्ञ नाम से संकेतित है।पुरुषो वाव यज्ञ: ... 3/16

प्रातःसवन, माध्यन्दिनसवन और सायंसवन-मानवीय संकल्पों का यज्ञीय अनुष्ठान के साथ तादात्म्य भाव है।महिदास ऐतरेय ऋषि इसी यज्ञीयसाधना के अन्यतम अनुष्ठाता थे।

विशेष ध्यान के आकर्षण क्रम में वैदिक शब्द कोष निघण्टु में धन वाचक 28 शब्दों का संग्रह है। पाठान्तर दो शब्दों के जोड़ने पर 30 शब्द हो जाते हैं।निघण्टु में धन और लक्ष्मी पदों का संग्रह नहीं है, तथापि इन्हें सम्मिलित किये जाने पर 32 धन वाचक शब्दों से धन की महिमा का वेदों में बहुशः वर्णन है।वेदों में दरिद्रता और कंगाली को कोई स्थान नहीं है-वयं स्याम पतयो रयीणाम् । ऋग्वेद 4/50/6

रयि शब्द का बहुवचन प्रयोग द्योतक है बहुविध ऐश्वर्यों के स्वामी बनना।ऋग्वेदपरिशिष्ट के लक्ष्मीसूक्त में वर्णित है-प्रादुर्भूतोSस्मि राष्ट्रेSस्मिन् कीर्त्तिमृद्धिम् ददातु मे ।मन्त्र संख्या 7

राष्ट्र में जन्मग्रहण और उस राष्ट्र से यश और समृद्धि की अभिलाषा है।अन्न, वस्त्र,अलंकार,रजत, हिरण्य,पुत्र,कलत्र, रथ,गाय,अश्व,हाथी-सभी तरह के धन की आकांक्षा की गई है।परन्तु लक्ष्मी प्राप्ति में पापकर्म सर्वथा परिहेय है।

इन्द्र जिसे मघवा अर्थात् धनाधीश कहते हैं।उससे धन की प्रार्थना में उच्चरित मन्त्र-भूरिदा भूरी देहि नो दभ्रं भूर्याभर।ऋग्वेद 4/32/20

हे इन्द्र!भूरिदाता आप भूरिशः ऐश्वर्य की प्राप्ति में सहायक हों।स्वल्प नहीं बहुत अधिक लक्ष्मी की इच्छा है।अलक्ष्मी को काणी,विकटा एवं सदा रुलाने वाली कहकर पर्वत से टकराकर चूर-चूर होने की इच्छा व्यक्त की गई है।अरायिकाणे विकटे गिरि गच्छ सदान्वे।ऋग्वेद 10/155/1

वेद की प्रेरणा है लक्ष्मीवान होने के लिए।परन्तु भौतिक सम्पदा के अतिरिक्त महनीय सम्पदा अध्यात्म की प्राप्ति जीवन का परम उद्देश्य वांछनीय है।

                                     ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदु:।

  यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत् तद्विदुस्त इमे समासते ।।ऋग्वेद 1/164/39

ऋचाओं द्वारा उस परम अविनाशी सत्ता का स्तवन,जिसके अनुशासन में सभी देवगण रहते हैं।यदि उसे नहीं जान पाए तो फिर उसे ऋचा से क्या प्राप्त होगा।ऋचा की उपादेयता परम पद के दर्शन की अभिलाषा में समाधि को प्रमुखता देना है।समाधि के अन्वाख्यान में ऋग्वेदीय ऋषिचेतना की सीख अवश्य संज्ञेय है।

न दक्षिणा विचिकिते न सव्या न प्राचीनमादित्या नोत पश्च ।

               पक्या चिद् वसवो धीर्या चिद् युष्मानीतो अभयं ज्योतिरश्याम् ।। ऋग्वेद 2/27/11

न तो मुझे दक्षिण दिशा में ही कुछ दिख रहा है और न ही बायीं दिशा में।पूर्व दिशा में भी कुछ नहीं दिख रहा और न ही पश्चिम दिशा में।जान गया हूं कि मुझ में अपरिपक्वता की अपार त्रुटियां हैं बुद्धि अल्पता की भी भरमार है फिर भी आपके मार्गदर्शन से निर्मित ज्योतिष्पथ मुझ में अभयता का संचार करता है।समाधि के क्रम में मन और बुद्धि के प्रयोग की व्यापकता का वर्णन यजुर्वेद में है।

                  युञ्जते मन उत युञ्जते धियो  विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः।

   वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्महि देवस्य सवितु: परिष्टुतिः ।।यजुर्वेद 5/14,11/4,37/2

विप्रश्रेष्ठ विद्वान् विप्र के विप्र सवितादेव में मन समाहित करते हैं और बुद्धि को स्थिर करते हैं।सर्वव्यापी ईश्वर अकेले ही यज्ञों का धारण किये हुए है।महान सर्वज्ञ विप्रकृष्ट दिव्य स्रष्टा की महती महिमा है।इस मन्त्र में योग  के मूल सिद्धांत विद्यमान हैं।

भारतीय एवं पाश्चात्य ऐतिहासिक गवेषकों की स्पष्ट मान्यता है कि संसार की सबसे प्राचीन संस्कृति वैदिकसंस्कृति है।वैदिकसंस्कृति भारत की संस्कृति है।बड़े-बड़े झंझावातों ने इसे उखाड़ने की भरसक चेष्टा की थी।इसके सिद्धांतों को कई तरह से झकझोरा गया था।परंतु आश्चर्य है कि यह फिर भी मिट न सकी।विश्व के समस्त उत्थान और पतन की साक्षी रही है यह वैदिकसंस्कृति।प्राचीनसमय से ही वैदिकसंस्कृति की उदात्तशिक्षाएं अखिलविश्व के मार्गदर्शक की भूमिका में प्रतिष्ठित रही है।इस प्रतिष्ठित भूमिका से आह्लादित महर्षि मनु की उद्घोषणा हमारी समस्त  ऋषिचेतना के प्रति कृतज्ञतापूर्ण  अविस्मरणीय अभिव्यक्ति है।

एतद्देशप्रसूतस्य        सकाशादग्रजन्मनः ।

       स्वंस्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ।।मनु0 2/20 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु

स्मृति और कल्पना

  प्रायः अतीत की स्मृतियों में वृद्ध और भविष्य की कल्पनाओं में  युवा और  बालक खोए रहते हैं।वर्तमान ही वह महाकाल है जिसे स...