सोमवार, 19 अप्रैल 2021

हर किसी की लालू जैसी किस्मत कहाँ

चारा घोटाले में 23 दिसंबर 2017 को जेल जाने के बाद कोर्ट द्वारा लालू प्रसाद यादव को मिली जमानत ने एक बार फिर से आम और खास के बीच में एक बड़ी खाई पैदा कर दी है।आम आदमी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।उसे लालू की जमानत से न तो खुशी है और न ही गम है।बस, तकलीफ़ इतनी जरूर है कि जैसे चारा घोटाले में अपराध सिद्ध होने पर लालू को सात-सात वर्ष की मिलाकर चौदह साल की सजा मिली थी।चौदह साल की सजा के साढ़े तीन साल काटने के बाद ही अठारह अप्रैल को लालू को जमानत मिल जाती है।जमानत से जहां उनके परिवार और  उनकी पार्टी में दिवाली जैसी खुशी है तो वहीं विरोधियों के हलक सूखते नजर आरहे हैं।इतने बड़े अपराध पर न्यायालय उन्हें जमानत देता है तो क्या अन्य जो दबे-कुचले, शोषित गरीब मुजरिम भी कोर्ट में जमानत ले पाते हैं कभी।वे कपिल सिब्बल जैसे वकीलों की फीस भर सकेंगे कभी?

हमारी कोर्ट के फैसलों पर प्रश्न चिन्ह लगाने की न तो कोई मंशा है और नहीं यह हमारी फितरत है।बस, इतनी जिज्ञासा जरूर है कि स्वतन्त्र भारत में दबे-कुचले,शोषितों तथा सुख-सुविधाओं से वंचित , किसी तरह से जीवन यापन के निचले पायदान पर स्थित जीवन बसर करने वालों के लिए भी लालू जैसी किस्मत के दरवाजे खुल सकेंगे कभी?न्याय की देवी के मंदिर में उनके कराहने की चीखें इतनी इत्मीनान से सुनी जाएंगी ?न्याय की देवी के तो आंखों और कानों पर काली पट्टी बंधी है,इसलिए कानून की देवी को न तो स्वयं कुछ दिखता है और न ही कुछ सुनता है।इसके मंदिर के पुजारी जैसा बताएंगे और जैसा दिखाएंगे उसीके आकलन से न्याय का भविष्य सुनिश्चित होता है।भारतीय पूजापद्धति में मूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा की जाती है।उसकी चेतनामय उपस्थिति हेतु यह अद्भुत अनुष्ठान है।यद्यपि यह सारा अनुष्ठान श्रद्धा जन्य है।इसके पक्ष-विपक्ष हैं।हिन्दूसमाज में यह लंबे समय से परम्परा में है। अस्तु, जिस भगवती के आंख और कान पर पट्टी बंधी हो वहां कोई तो हो जो उस देवी को कन्विंस कर सके जो उस न्याय स्वरूपादेवी को संतुष्ट कर सके।यद्यपि कई स्थितियों में इस देवी के अन्तःचक्षु इतने पैने होते हैं कि स्वतः संज्ञान भी ले लेती है।परंतु ये स्थितियां सर्वत्र नहीं हुआ करती हैं।अब पीड़ित और अपराधी के नियमन और व्यवस्था के लिए न्यायालयों में वकीलों की कानून की बारीकियों की दक्षता के साथ वाक्पटुता का बहुत महत्व है।वकीलों में यह महत्ता जितनी  अधिक होगी,उतनी ही अधिक उनकी कीमत तय होगी।

आज के समय में न्याय बहुत महंगा हो गया है।आम आदमी को न्याय मिल पाना आसान नहीं है।न्याय उन्हींको मिल पाता जो इसकी अच्छी-खासी कीमत चुका पाते हैं।अन्यथा बहुत से गरीब अपराध सिध्द हुए बिना बीस-बीस सालों तक सलाखों के पीछे घुट-घुट कर सड़ने को मजबूर होते है।अभी पिछले दिनों ही एक गरीब बेचारे युवक की बीस-बाइस साल की जिंदगी इस कीमत को न चुकाने के कारण ही बरबाद हो गई थी।

स्वर्गीय राजीव दीक्षित एक बात कहा करते थे कि भारत में अंग्रेजों ने जो कानून बनाए थे।वे न्याय के लिए नहीं थे।ये सब निरंकुश सत्ता के अहं किरदार थे। वे कहते हैं कि उस कानून को न्याय समझना सबसे बड़ी भूल है।वे न्याय की बात नहीं लॉ की की बात करते थे। वर्तमान सीजीआई  बोवड़े साहब ने भारत के न्यायदर्शन की प्रशंसा की है।।अंग्रेजों ने भारत की न्यायव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था को समझने में बहुत समय लगाया था।उनके बहुत से पत्रव्यवहार इस बात के साक्षी हैं कि भारत में गुरुकुलो की ख्याति सत्तरह सौ की सदी तक विद्यार्थियों में  बहुत अधिक  थी। गुरुकुलों में आचार्य एक और पढ़ने वाले छात्र सैकड़ों में होते थे।अंग्रेजों की छानबीन में जब यह निकल कर आया कि बड़ा आचार्य भले ही एक है ,लेकिन वहां पठन-पाठन में कोई व्यतिक्रम नहीं होता है।बड़े छात्र छोटों को पढ़ाते हैं।अंग्रेज अपने शासन को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए भारतीय राजाओं को डरा धमकाकर गुरुकुलों में मारकाट मचाने लगे और गुरुकुलों बन्द करने के लिए भारतीय राजाओं को विवश करने लगे।उस समय गुरुकुलों को राजाओं का सहयोग प्राप्त होता था।इस षड्यंत्र को आगे जाकर मैकाले ने अमलीजामा पहनाया था।

दूसरा महत्त्वपूर्ण बिंदु था भारत की न्याय प्रणाली उसे भी उन्होंने ध्वस्त कर दिया, ताकि यहां के लोगों को कभी न्याय मिल ही न पाए। पंच परमेश्वर की न्याय पद्धति से अंग्रेज अचंभित होने लगे।दोनों पक्ष पंचों को परमेश्वर मानते थे।इस निष्पक्ष न्याय प्रक्रिया को अंग्रेज कैसे पचा सकते थे।पुनः एकबार यह बात और अधिक प्रामाणिकता से स्पष्ट हो रही है कि स्वतंत्रता के बाद भारत की महंगी  शिक्षाव्यवस्था और न्यायव्यवस्था के बोझ में दबा-कुचला,शोषित गरीब कब तक पिसता रहेगा?क्या कोई सरकार इस पर बिना आंकड़ों के खेल से स्वस्थ विमर्श हेतु विश्वसनीय योजना बनाने के लिए संकल्पित होंगी?आज शिक्षासंस्थाएं और न्याय की संस्थाएं चालाकियों से नियमों की व्याख्याएं करने में सिद्धहस्त हो चुकी हैं।इन संस्थानों में किस तरह से  खेल खेले जाएं जिससे अपने स्वार्थ अधिक पूरे हों,कैसे न्याय की देवी और ज्ञान की देवी को पर्दे में डालकर अपनी कुटिल चालों की निपुणता से दोहन किया जा सके।बस, एक उम्मीद है कभी तो अंधेरा छटेगा , कभी तो सबेरा होगा।

डॉ कमलाकान्त बहुगुणा

Chairman: Varenyam Journey to the Bliss

 

 

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

घिसटती पिसती पहाड़ की नारियां



उत्तराखंड भी दूसरा बिहार बन सकता है ।यदि समय रहते  सही रणनीति और नेतृत्व  का अनुसन्धान नहीं किया गया। वैसे भी पहाड़ की संस्कृति में ख और ब का महत्त्व बहुत ज्यादा है। अस्पृश्यता तो वहां भयानक बीमारी है इसके विरोध में तो कोई  पहाड़ में उतर ही नहीं सकता।साथ ही नए नए नौजवानों की राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाओं का  मुकाम AAP  भी हो सकती है। पहाड़ के युवक या तो फौज में या फिर होटल में ज्यादा सरीख होते हैं।
उच्चशिक्षा का आकर्षण  नशे की लत में बौना ही है।कोई बिरले ही अपने माँ बाप की तपस्या का सुपरिणाम दे पाते हैं।वैसे भी पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम आती ही कितनी है।पलायन तो होगा ही जब रोजगार नहीं मिलेंगे।युवा अवस्था में ही बुढ़ापा  झलकता है चहरे पर।कभी जो ईमानदारी थी पहाड़ों में वो भी रफूचक्कर।आज भी जो नहीं बदला पहाड़ में वह पहाड़ की महिलाओं के संघर्ष की जीवन गाथा।वंदनीय तो पहाड़ों की नारियां हैं जो घिसटती पिसती रहती हैं फिर भी उप्फ तक नहीं करती।





मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

भारत बनेगा विश्वगुरु?



भारत को पुनः विश्वगुरु के पद पर प्रतिष्ठापित करने में शिक्षा प्रमुख भी है और अनिवार्य भी। पुनर्स्थापना की इस प्रक्रिया में भारत और विश्वगुरु इन दो शब्दों की अर्थ प्रकृति का अवगाहन  ही प्रवेश द्वार है। प्रवेश द्वार का होना  उत्साह को द्विगुणित कर देता है। भारत शब्द में एक पूरी फिलॉस्फी अंतर्निहित है। भारत यह शब्द चाहे कितना ही पुराना क्यों न हो , लेकिन अर्थ की प्रकृति से यह सदा नवनीत सदृश नित नूतन अर्थ की अभिव्यंजना करता है।

भारत = भा और रत इन दो शब्दों से मिलकर बना है। भा का अर्थ  प्रकाश होता है और सच्चा प्रकाश ज्ञान के सिवा कुछ भी नहीं है।ऋते ज्ञानान्न मुक्ति:’ का भी यही संकेत है। रत का अर्थ है रम गया ।जो रम गया वही राम है, वही तल्लीनता है, वही सच्चा राग भी कहलाता है। सदैव ज्ञान की अनुरक्ति ही मात्र  ऐसा आदर्श है जो भारत को प्राचीनतम और आधुनिकतम दो विशेषताओं से निरूपित करता है। भारत वैदिक काल से लेकर आज के कॉरोना काल तक ज्ञान का पिपासु ही है। सदा से यही  ज्ञान की पिपासा जिज्ञासा में उद्दीपन का कारण रही है।

विश्वगुरु = विश्व और गुरु इन दो शब्दों से मिल कर बना है।विश्व का अर्थ है संसार और गुरु का अर्थ है अंधकार दूर करने वाला अर्थात् प्रकाश का कारक प्रकाश अर्थात् ज्ञान का आलोक   विश्वगुरु का एक अर्थ है संसार का गुरु। जो यहां स्पष्ट समझ में आरहा है। यह हमारी मंजिल भी है।परन्तु मंजिल तक पंहुचाने वाली राह का अवलोकन भी अनिवार्य है।विश्वगुरु मंजिल की राह का रहस्य भी विश्वगुरु शब्द में ही छिपा है। अब विश्वगुरु का अर्थ थोड़ा लीक से हटकर परन्तु लक्ष्मण रेखा के अंदर ही विवेचनीय है।  विश्व का अर्थ सारे और गुरु का अर्थ शिक्षकविश्वगुरु से तात्पर्य है - सारे गुरु। विश्वगुरु यदि मंजिल है तो उसकी राह भी विश्वगुरु से ही निकलती है।

भारत में सदा से ज्ञान के आदान - प्रदान की महान् परंपरा रही है। जब भी इस महान् परंपरा का अनादर या विस्मरण हुआ है तो कोई कोई गुरु जरूर प्रकट हुआ है। यदि धृतराष्ट्र ने पुत्रमोहवश इस प्रक्रिया में अवरोध खड़े करने में अनेकों षड्यंत्रों का जाल बुना था तो श्रीकृष्ण सदृश गुरु भी धृतराष्ट्र के सभी तरह के कुकर्मों के प्रतिकार हेतु अदम्य पराक्रम और अपरिमेय विवेक के साथ विद्यमान थे। मगध नरेश नंद की अकर्मण्यता और निरंकुशता का मानमर्दन का बीड़ा आचार्य चाणक्य ने उठाकर भारत को पुनः एक सूत्र में पिरोने वाले सम्राट चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक भी करवाया था।महर्षि वशिष्ठ और ऋषि विश्वामित्र आदि गुरुओं की कर्मस्थली रही है यह भारतभूमि।

वर्त्तमान परिदृश्य में जिनके भी पास ज्ञानवितरण की  महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है, उन्हें इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का स्वतः ही विश्लेषण करने की आवश्यकता है।इस जिम्मेदारी का संवाहक है शिक्षकवर्ग।जिम्मेदारी को इंग्लिश में responsibility कहते हैं। response + ability -The ability to choose your response. प्रतिक्रिया चुनने की योग्यता को responsibility कहते हैं।सामान्यतया प्रतिक्रिया के चयन में दो तरह की मानवीय प्रवृत्तियों का बोलबाला होता है। एक प्रवृत्ति है-अपने या दूसरे के व्यवहार के लिए स्थिति-परिस्थितियों या फिर कंडीशनिंग को दोष मढना। इस प्रवृत्ति में ब्लेमगेम और विक्टिम कार्ड खेले जाते हैं।दूसरी प्रवृत्ति वाले अपनी जिम्मेदारी को अच्छी तरह से समझते हैं , वे भावनाओं बहने की बजाय जीवनमूल्य आधारित अपनी चेतना द्वारा परिणाम परक प्रतिक्रिया का चुनाव करते हैं। वे किसी भी व्यवहार के लिए परिस्थितियों को दोषी नहीं मानते हैं।आचार्य चाणक्य हों या फिर आदि शंकराचार्य,अरस्तू हों या सुकरात,कबीर हों या गुरुनानक,समर्थ गुरुरामदास हों या फिर रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानन्द हों या फिर स्वामी विवेकानंद अथवा यहूदी मनो वैज्ञानिक फ्रेंकल हों या फिर इमर्सन - इन सबके पास भी मौका था परिस्थितियों के नाम पर रोने का लेकिन इन्होंने अपनी समग्र चेतना के अनुप्रयोग से प्रतिक्रिया करने में अपनी योग्यता का परिचय देकर विश्व के लिए सतत प्रेरक की पदवी में विराजमान हो गए।

यदि भारत को विश्व का मार्गदर्शन करना है तो उसे आधुनिक गुरुजनों की मनोदशा का विश्लेषण करना ही पड़ेगा।यद्यपि शिक्षा के क्षेत्र में भारतसरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले बहुत गैरसरकारी संगठन जैसे डीएवी, सरस्वती शिशु मंदिर, डीपीएस, बालभारती, शिवनादर, बीजीएस तथा पतंजलि आदि अनेकों ट्रस्ट और सोसायटी इस आंदोलन में बढ़चढ़ कर भाग ले रहे हैं। समय समय पर सरकार  उनके इस कार्य की प्रशंसा हेतु उन्हें सम्मानित करती है।

ये सब कार्य आवश्यक तो हैं परंतु विश्वगुरु के रूप में पर्याप्त नहीं है।आचार्य चाणक्य ने कहा है कि शिक्षक की गोद में सृजन और प्रलय दोनों पलते हैं। इस वाक्य को गहराई से समझने के लिए हमें यह जरूर विचारना होगा कि सृजन और प्रलय का ब्लूप्रिंट तैयार करना होगा। भविष्य को वर्तमान में लाने की क्षमता का नाम है ब्लूप्रिंट है।आचार्य चाणक्य जंगल मे गाय-भैंस चराने वालों लड़कों में से भारत का भावी सम्राट ढूंढ लेते हैं। इसे कहते हैं सृजनयही यथार्थ में ब्लूप्रिंट की प्रासंगिकता भी।

कक्षा में प्रवेश वाले शिक्षक यदि छात्रों के तात्कालीन अभद्र व्यवहार से मूल्यांकन करता है तो फिर सृजन की गारंटी कैसे कोई ले सकेगा? सृजन की अनिवार्यता में प्रथम संकल्प है प्रत्येक विद्यार्थी को अनौखा स्वीकारना। संसार मे जन्मने वाला प्रत्येक मानव अद्वितीय है। इस धरती में कोई भी किसीका डुप्लीकेट नहीं है।धारणा को छोड़ कर संभावना पर नजर रखनी होगी ।

छात्र की गरिमा और अस्तित्व का ख्याल हर पल रखना होगा। शिक्षक को खुद भी मैनेजमेंट के समक्ष निर्भय रहना होगा और छात्रों को निर्भयता का वातावरण देना होगा।इस बात की सदा मन में गांठ बांधनी होगी की excellence act नहीं habit है। और आदत बनाने के लिए शॉर्टकट रास्तों से नहीं गुजरना होता है, पूरी प्रक्रिया को महत्व देना ही पड़ेगा। ज्ञान, योग्यता और इच्छा का समन्वय नई आदत को निर्मित करने में प्रबल उद्दीपन हैं।ज्ञान बतायेगा कि क्या करना है और क्यों करना है। जबकि योग्यता कैसे करना है का उत्तर है। बिना इच्छा के ज्ञान और योग्यता का कोई अर्थ ही नहीं रहता है।पढ़ने और सीखने के बुनियादी फर्क को भी समझना होगा। दोनों ही क्रिया है।सीखने का अर्थ है हाथ धोकर पीछे पड़ना।लोग क्या कहेंगे यह सोचने की फुर्सत ही कहाँ है? साइकिल से लेकर कार सीखने की प्रक्रिया इसी दौर से गुजरती है।सीखने में शॉर्टकट का महत्व नहीं हो सकता है।

भारत की अर्थवत्ता में पोषक है जड़ों से जुड़ना और पंखों को भी मजबूती देना। परम्परा यदि प्रासंगिकता खो दे तो उसे म्यूजियम में रखा जाना चाहिए।चाहे वह अपने समय में कितनी ही प्रतिष्ठित क्यों न रही हो?आज असहमति को आदर देने की प्रवृत्ति की बहुत अधिक आवश्यकता है।मानवीय गरिमा सर्वोपरि है। सफाई कार्मिक का कर्म निम्न नहीं आंका जाना चाहिए।स्वच्छता के बिना कोई बड़ा अधिकारी भला अपनी योजना को अंजाम दे सकता है क्या? क्या डिलीट करना है और क्या डाउनलॉड करना है,इसका विवेक होना आवश्यक है।ऊंचाइयों को संस्पर्श के बाद भी सेवा और योगदान का आदर्श अनिवार्य होना चाहिए।सुधार से पहले स्वीकार्यता को उद्बुद्ध करना आवश्यक है। एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति तभी तो कहा गया है। हमारी कुंठाओं का कारण हमारी अपेक्षाएं होती हैं।जब भी अपेक्षाएं जीवनमूल्य और प्राथमिकताओं के बजाय सामाजिक दर्पण से प्रतिबिंबित होंगी तो वे कुंठाओं को पैदा करेंगी ही।अतः जीवन मूल्य की सीख बहुत महत्वपूर्ण है।

दो अक्षरों वाला गुरुतत्व अंधेरा दूर करने वाला होता है।ज्ञान, उपदेश तक ही जिम्मेदारी नहीं है गुरु की। जीवन के नए आयाम को उजागर करने वाला होता है गुरु। अपने अस्तित्व का नहीं शिष्य के अस्तित्व बोध की प्रकृति से परिचय कराता है।अहंकार और अवसाद से ऊपर उठाता है गुरु।अपनी थोपने की बजाय खुले आसमान में उड़ने वाले पंख देता है ताकि अपनी सृष्टि निर्माता बन सके।अपनी नई स्क्रिप्ट लिख सके। तभी विश्वगुरु का सपना भी सार्थक होगा।अन्यथा जैसे एक इंजीनियर की गलती ईंट और चूने दब जाती है, एक डॉक्टर की गलती कब्र में दब जाती है, एक वकील की गलती फाइल में दब जाती है,लेकिन एक शिक्षक की गलती सदा राष्ट्र में झलकती रहती है।

वस्तुतः ज्ञान की शक्ति और प्रकृति की समझ ही  इम्पैथी को प्रगाढ़ करती है।तब सिम्पैथी के बजाय समनानुभूति महत्वपूर्ण होती है।यह समत्व का भाव ही निर्भयता प्रदान करता है।सह नाववतु...मंत्र से इसी सह-अस्तित्व का अवबोधन होता है।भारत की ज्ञानसम्पदा ही विश्वगुरु बनने का माध्यम है।

                                                          -डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा



 

 

 

 

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

अस्तित्वबोध और विवेक



उपसर्ग पूर्वक विच्लृ पृथग्भावे धातु से विवेक शब्द बना है। विवेक वह दिव्य तत्त्व है जो व्यक्ति को सही-गलत,अच्छे-बुरे, सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय तथा यश-अपयश आदि द्वंद्वों से मुक्त कर स्वयं के अस्तित्व बोध की प्रकृति से परिचय कराता है। अपने अस्तित्व की अनुभूति का अर्थ है स्वयं की सत्ता को स्वीकारना । बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि आज के  सारे  धार्मिक क्रियाकलापों में ईश्वरीय सत्ता का उपदेश हद से ज्यादा सुनने को मिलता है, भले ही ईश्वर उनसे कोसों दूर क्यों न हो ? लेकिन ईश्वरीय सत्ता से पहले क्या स्वयं के अस्तित्व का बोध अनिवार्य नहीं है। गायत्री मंत्र में भूर्भुवः स्व: में भू: का अर्थ अस्तित्व ही है।यह अस्तित्व किसका? अगर छोटे बच्चे को असली कार गिफ्ट  में देंगे तो उसका परिणाम क्या होगा यह बताने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है। बिना नर्सरी व प्राइमरी तथा दसवीं आदि  क्लास पास किए पीएच.डी कैसे कर सकता हैं कोई ?  ठीक ऐसे ही अपने अस्तित्व को जाने बिना ईश्वर का अस्तित्व कैसे जान सकते हैं।

विवेक ही वह श्रेष्ठ संपदा है जो इंसान को अपने अस्तित्व की सही झलक दिखा सकता है। विवेक अर्थात् विवेचना । सही और गलत का बोध विवेक कहलाता है। हंस के पास दूध और और पानी को अलग करने की प्रतिभा है। इसे ही विवेक कहते हैं। अपने व्यवहार को नियंत्रित करने की अद्भुत क्षमता है विवेक में।अंतरात्मा की आवाज को सुनने के लिए विवेक बहुत अनिवार्य है। विवेक ही हमारे विचारों के पीछे छिपे मनोभावों का सही से विश्लेषण कर पाता है।

मैडम डे स्टेल ने कहा था – अंतरात्मा की आवाज इतनी धीमी है कि इसे दबाना आसान है । परंतु यह इतनी स्पष्ट है कि इसे पहचानने में गलती करना असंभव है।

जैसे शरीरविज्ञान के सभी आयामों की सही शिक्षा एक अच्छे खिलाड़ी बनने के आवश्यक है, जैसे मन के सभी आयामों का ज्ञान कुशाग्र विद्यार्थी के लिए आवश्यक है, वैसे ही अपने अस्तित्व बोध की प्रकृति से परिचित होने के लिए विवेक की सही शिक्षा अनिवार्य है।

विवेक के शिक्षण-प्रशिक्षण क्रम में बहुत अधिक एकाग्रता, संतुलित अनुशासन तथा सतत ईमानदार जीवन की आवश्यकता होती है।साथ ही नियमित रूप से प्रेरित करने वाले आलेख व साहित्य पढ़ना, उत्तम विचार और विशेषतः अंदर की धीमी आवाज को सुनना और उसके अनुरूप जीना शामिल है।

यह जरूर याद रखना होगा कि जिस तरह से व्यायाम का अभाव और फ़ास्ट फ़ूड किसी भी खिलाड़ी की क्षमता को बर्बाद कर सकता है, उसी तरह घटिया , अश्लील या पोर्नोग्राफिक चीजें अंतर में अंधेरा ला सकती है, जो हमारी उच्चतर अनुभूतियों को सुन्न कर देती है।

क्या सही है और क्या गलत है? इस विवेक के स्थान पर क्या मैं पकड़ा जाऊंगा यह सामाजिक अवधारणा अधिक प्रबल होती है। किसी पाश्चात्य विचारक ने कहा है कि पशु बने बिना आप अपने भीतर के पशु के साथ नहीं खेल सकते हैं,सच के अधिकार को जब्त किए बिना झूठ के साथ नहीं खेल सकते हैं और अपने मस्तिष्क की संवेदनशीलता को खोए बिना क्रूरता के साथ नहीं खेल सकते हैं। जो व्यक्ति अपने बगीचे को साफ-सुथरा रखना चाहता है, वह खर पतवार के लिए किसी क्यारी को सुरक्षित नहीं रख सकता है।

विवेक के अभाव में हम रेंगने वाले जानवरों की भांति  जीते हैं। फिर हम सिर्फ जिंदा रहने के लिए और संतति पैदा करने के लिए जीते हैं। तब हम जी नहीं  रहे  होते हैं अपितु हमारे द्वारा जिया जा रहा होता है। विवेक हमें सदा सक्रिय, जागृत और  विकसित करता है। तभी हम व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आस्वादन करते हैं और अंदर से  सुरक्षा, बुद्धि , साहस , ऊर्जा और मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं। यही हमारे अस्तित्व बोध की प्रकृति भी है। 

-डॉ.कमलाकान्त बहुगुणा

Chairman: Varenyam journey to the bliss

 

सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु

स्मृति और कल्पना

  प्रायः अतीत की स्मृतियों में वृद्ध और भविष्य की कल्पनाओं में  युवा और  बालक खोए रहते हैं।वर्तमान ही वह महाकाल है जिसे स...