बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

दशरथनंदन भरत की कतिपय विशेषताएं





 
भारतवर्ष आदिकाल से ज्ञान-विज्ञान ,धर्म-अध्यात्म और मानवीयमूल्यों के अधिष्ठान के रूप में प्रतिष्ठित है।वैदिक युग की महानतम परम्पराओं के साथ ही रामायण का युग भी मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं का अप्रतिम युग रहा है।
यह सच है कि घटनाएं  संसार में हर क्षण घटती हैं, लेकिन उन घटनाओं को हम समझते कैसे हैं?और उनसे सीखते क्या हैं ? यह बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। ये घटनाएं हमें  रूपांतरित  भी करती हैं  और  सामान्य से विशेष बनने का भी शुभ अवसर देती हैं। वस्तुतः ये घटनाएं हमारे अस्तित्व के अनोखापन को निखारती  भी हैं प्रतिष्ठित भी करती हैं।
यह भारतराष्ट्र सृष्टि के प्रारंभ से ही महान विभूतियों की कर्मभूमि रही है।उनके कर्म और जीवनशैली सदा से मानवता के लिए प्रेरणास्रोत और जीवन जीने का नजरिया भी हैं ।हम अपनी नजर का तो ऑपरेशन कर सकते हैं, लेकिन नजरिए का नहीं।
आज इन्हीं युगपुरुषों की अध्ययन की कड़ी  में हमारा अध्ययन और मनन का विषय है - " दशरथनंदन भरत की कतिपय विशेषताएं है  या  भरत  की मानवता को देन ।" यह एक ऐसा विषय है जो हमें अंदर से अपने कर्तव्य पथ पर अडिग  बने रहने के लिए सतत प्रेरित करता है। जीवन में बहुत से षड्यंत्र और लोभ मुंह बाए खड़े हैं। यहां फिसलन की बहुत अधिक सम्भावनाएं हैं। जरूरी नहीं कि हर बार उन षड्यंत्रों में कोई बाहरी शामिल हो।हो सकता है  ऐसे षड्यंत्रों में वे भी शामिल हों जिन्हें सर्वाधिक चाहते हों या उन पर  आप अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए हमेशा उद्यत रहते हों।
जब कोई हमारा अपना इस षड्यंत्र में शामिल होता है तो दिल  यह  बहुत टूटता है। हमें यह जरूर सोचना होगा कि यहां हर कोई राम नहीं हो सकता है।राम वह है जिन्हें कोई भी घटना विचलित न कर सके । श्रीराम तो वैसे भी दिव्य सत्ता के साक्षात् स्वरूप हैं। वे तो पद्मपत्र स्थित बून्द की तरह  संसार के व्यवहारों से अनासक्त भी हैं और निर्मल भी ।उनका अविचलित होना उतना कारुणिक नहीं जितना कि भरत का मानवीय मूल्यों के प्रति अडिग रहना है।
भगवान श्रीराम के राज्याभिषेक के समय भरत अपने छोटे भाई शत्रुघ्न के साथ अपने ननिहाल अर्थात् कैकेय राज्य में थे ।  भरत अपने  नाना अश्वपति के हालचाल जानने वहां चले गए थे । भरत के पीछे से उनकी माँ कैकेयी ने अपनी दासी मंथरा की चालों में आकर भगवान श्रीराम को 14 वर्षों का वनवास दिलवा दिया था  और  भरत को अयोध्या का राजा नियुक्त करवा दिया था। इसी दुःख में  पिता राजा दशरथ ने अपने प्राण त्याग दिए थे।

दशरथ के प्राण त्यागते ही तुरंत अयोध्या की मंत्रिपरिषद ने अयोध्या के दूत को भरत को कैकेय राज्य से  बुलावाने के लिए भेज दिया गया। भरत अभी तक इन सभी बातों से पूरी तरह से अनभिज्ञ थे । अयोध्या आकर उन्हें पता चला कि उनके पीछे महल में किस प्रकार के षड़यंत्र रचे गए, जिस कारण उनके प्रिय भ्राता को वनवास मिला था और पुत्र राम के वियोग में पिता की भी मृत्यु हो चुकी थी।
इस घटना के बाद भरत की निर्णायक भूमिका ही राम को मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम तक की यात्रा का ब्लूप्रिंट तैयार कर सकी।
भरत द्वारा अयोध्या का राज सिंहासन ठुकराने  और साथ ही  अयोध्या की प्रजा से क्षमा मांगने में  श्रेष्ठ रघुवंश से  विरासत में मिले संस्कारों  की देन थी । भरत ने सदा अयोध्या का राजा केवल भगवान श्रीराम को माना और  स्वयं को उनका दास ही स्वीकारा। अपनी राय उन्होंने अपने सभी मंत्रियों, गुरुओं तक भी त्वरित पहुंचा दी थी।
षड़यंत्र के लिए उत्तरदायी अपनी माँ कैकेयी का  भी उन्होंने परित्याग कर दिया था और कैकेयी को माँ मानने से मना कर दिया था। साथ ही अपनी माँ को यह भी कहा कि वह अब वह उनका मुख कभी नही देखेंगे।
चारों भाइयों में सबसे छोटे भाई शत्रुघ्न मंथरा को भरी सभा में घसीटकर लेकर आए थे। मन्थरा की हत्या करने के इच्छुक  शत्रुघ्न को  भरत ने  यह कहकर रोका था कि स्त्री हत्या भगवान श्रीराम के आदर्शों के विरुद्ध है। 
राम और लक्ष्मण के वन में और भरत और शत्रुघ्न  कैकेय राज्य  में थे इसलिये पिता दशरथ का  अंतिम संस्कार नहीं हो पाया था। बहुत दिनों तक उनका शव तेल तथा अन्य दिव्य पदार्थों की सहायता से सुरक्षित रखा गया था। इसलिए भरत ने सर्वप्रथम पिता के अन्त्येष्टि संस्कार में  मुखाग्नि दी थी।
भरत अपने परिवार, गुरु , मंत्री और सेना के साथ भगवान श्रीराम को अयोध्या वापस लेने के लिए चित्रकूट गए थे । वहां जाकर उन्होंने भगवान श्रीराम से क्षमा मांगी व उन्हें वापस अयोध्या चलने को कहा था, किंतु भगवान श्रीराम ने अपना पिता को दिए वचन के अनुसार वापस चलने से मना कर दिया था ,इसलिये भरत केवल उनकी चरणपादुका लेकर वापस लौट आए थे।
अयोध्या आकर भरत ने भगवान श्रीराम की चरणपादुका को सिंहासन पर रखा और उन चरणपादुकाओं को ही सांकेतिक रूप से राम का अंग मानकर अयोध्या का राज सिंहासन उन्हें समर्पित कर उनके सेवक बन राजकार्य संभाला।
भगवान श्रीराम ने भरत को 14 वर्षों तक अयोध्या को सँभालने का आदेश दिया था ।इसलिये भरत ने अयोध्या का राजसिंहासन तो संभाला, लेकिन श्रीराम की तरह वनवासी रहते हुए उन्होंने अपना सब राजसी सुख त्यागकर  अयोध्या के समीप नंदीग्राम वन में एक कुटिया बनाकर रहने लगे।
चित्रकूट में भरत ने श्रीराम से वचन लिया था कि यदि वे 14 वर्ष समाप्त होने के पश्चात एक दिन की भी देरी करेंगे तो वे अपना आत्मदाह कर लेंगे और प्रभु श्रीराम भी 14 वर्षों के पश्चात पुनः अयोध्या वापस लौट आए थे। भरत ने श्रीराम को वैसी ही अयोध्या लौटाई जिस प्रकार वे छोड़कर गए थे। इस प्रकार भरत ने अपने भाई का संपूर्ण कर्तव्य निभाया  था तथा मानवता के उच्च आयामों  की स्थापना में अपना अमूल्य योगदान दिया था।
पदोपभुक्ते  तव पादुके मे एते प्रयच्छ प्रणताय मूर्ध्ना ।
यावद्  भवानेष्यति तावद्      भविष्याम्यनयोर्विधेयः ।।
सम्पूर्ण मानवता के इतिहास में भाई-भाई आपस में राज के लिए लड़ते रहे लेकिन यहाँ तो दोनों भाई राजसिंहासन को ही गेंद की तरह एक दूसरे की तरफ उछालते रहे।ऐसा उदात्त चरित भरत के नसों में ही नहीं अपितु उनके मन और आत्मा में प्रवाहित मानवीय गरिमा के श्रेष्ठ संस्कारों की अविरल धारा से सम्भव हो सका।
        -डॉ. कमलाकान्त बहुगुणा

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