क्या बनें हम? योगी या प्रतियोगी
योग शब्द के पहले उप जोड़ने से उपयोग और प्र जोड़ने से प्रयोग बनता है।साथ ही प्रति जोड़ने से से प्रतियोग बनता है।प्रति उपसर्ग प्रायः विपरीत अर्थ का द्योतन कराता है।प्रतियोग के अर्थ के अवबोधन के लिए हमें शब्द की विश्लेषणपद्धति की तरफ अग्रसर होना पड़ेगा।इसी पद्धति द्वारा हम 'उत्तर" शब्द के विपरीत अर्थ पर विचार करते हैं।हमें यह अवश्य जानना चाहिए कि शब्दजगत में विलोम की महत्ता सर्वविदित है। अतः उत्तर का विलोम पक्ष सदैव प्रश्न ही नहीं होता है अपितु "प्रति+उत्तर =प्रत्युत्तर" भी होता है। यथा ध्वनि का विपरीत प्रतिध्वनि है। वैसे ही योग का विपरीत पक्ष है प्रतियोग।
योग का अर्थ जोड़ है।जुड़ने की प्रक्रिया का नाम योग है। योगदर्शन के भाष्यकार महर्षि व्यास योग का समाधि अर्थ ही स्वीकारते हैं।गीता तो योग को तपस्या और ज्ञान से भी अधिक श्रेष्ठ मानती है।आज सभी मानते हैं कि
योग करने वाला योगी कहलाता है।योग एक अंतर्यात्रा है।योग का विपरीत है प्रतियोग।प्रतियोगी मतलव बाहर की यात्रा करने वाला।प्रतियोग करने वाला प्रतियोगी अर्थात् बहिर्यात्रा करने वाला होता है।
वस्तुतः प्रतियोग करने वाला ही प्रतियोगी होता हैऔर वही प्रतियोगी ही प्रतियोगिता में शामिल होता है।प्रतियोगिता अर्थात कम्पटीशन। लेकिन कम्पटीशन से वास्तविक अर्थ ध्वनित नहीं हो पाता है ।यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले छात्र प्रायः कम्पटीशन की तैयारी करते हैं।यूनिवर्सिटी में उन्हें कंपीटिशन का सही अर्थ का ज्ञान कहां मिल पाता है?
हमारी यह प्रतियोगिता मां के पेट से बाहर निकलते ही,संसार में आते ही शुरू हो जाती है।प्रतियोगिता मतलव संघर्ष शुरू,द्वंद शुरू।द्वन्द मतलव राइवलरी ( Rivalry) अर्थात् प्रतियोगिता।अब किसके हिस्से में कितनी प्रतियोगिता आएगी?यह तय नहीं किया जा सकता है।न ही इसका कोई मानक है।लेकिन जिसकी जितनी बड़ी आकांक्षा,जितनी ज्यादा महत्वाकांक्षा, उसकी उतनी ही बड़ी प्रतियोगिता है।आजकल मनोविज्ञानी एक शब्द बोलते हैं-Sibling Rivalry. अर्थात सगे भाई-बहनों के बीच प्रतियोगिता।
आज हम अपने आसपास यह बखूबी से देख सकते हैं कि सगे भाई-बहन ही आपस में ही द्वंद कर रहे हैं, प्रतियोगिता कर रहे हैं।बच्चों को भी होना होता है और उन्हें अपने जीवन में आगे भी बढ़ना है।साथ ही वे बड़े सपने भी देखने लगते हैं।परंतु उनके ये सपने समाज और परिवार की अपेक्षा के अनुसार ही होते हैं।
बड़े सपने ही भविष्य में गलाकाट-प्रतियोगिता में बदलते हैं।गलाकाट शब्द का अर्थ प्रतियोगिता के संदर्भ में कब और कैसे शुरू हुआ है? यह जरूर शोध का विषय है।अपने इच्छित सपनों के लिए उपलब्ध वस्तुओं की संख्या सीमित है और उनके चाहने वालों की संख्या असीमित है।इसलिए एक-दूसरे का गला काटना ही पड़ेगा। इसे शाब्दिक स्वरूप में न लें। लेकिन हमारे मन में हिंसा के भावों के आए बिना सफलता का मिलना असम्भव-सा है।यह बात तो तय है। इस तरह से हमारे मन में और शरीर में हिंसा एकत्रित होती चली जाती है।लेकिन हमें यह पता ही नहीं चल पाता है कि कब से हमारे साथ यह सब घटित होने लगा है ? फिर यही हिंसा हमारे शरीर में विभिन्न प्रकार के विषैले केमिकल पैदा करती है।इन विषैले केमिकल को ही इमोशनल टोक्सिन कहते हैं।ये हमारे सिस्टम में शनैः-शनैः एकत्रित होने लगते हैं और हमारे सिस्टम को विकृत और रुग्ण करना शुरू कर देते हैं।
कालान्तर में यही हिंसा बेचैनी, घबराहट, भय, स्ट्रेस अवसाद, उदासी, डिप्रेशन आदि के भयावह रूप में तब्दील होती है।
एक फ़िल्म आई थी, जिसमें इसे केमिकल लोचा कहा गया था।केमिकल लोचे का प्रभाव जब मन पर पड़ता है तो उससे मानसिक समस्याओं का जन्म होता है।यदि शरीर पर पड़ता है तो उससे स्ट्रेस से बनने वाली बीमारियां यथा हाइपरटेंशन, डायबिटीज आदि जैसी घातक बीमारियों का जन्म होता है। मेडिकल साइंटिस्ट उन्हें लाइफ स्टाइल डिजीज कहते हैं।
इन मानसिक और शारीरिक बीमारियों के मूल कारण हिंसा का अभी तक मेडिकल साइंस में कोई इलाज उपलब्ध नहीं हो पाया है।जो इलाज है भी वह शामक केमिकल्स के पिल्स के रूप में है या फिर शराब आदि के रूप में है। लेकिन इन शारीरिक और मानसिक बीमारियों के मूल कारण हिंसा के इलाज में योग की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है।
वैसे तो हमारे मन में हिंसा का जन्म होना ही नहीं चाहिए।लेकिन यदि हो भी
गया है तो उसे हम बाहर कैसे निकालें? महर्षि पतंजलि का अष्टांग योग इसी हिंसा से निबटने में सहायता करता है।इस अष्टांगयोग की आवश्यकता आज पूरे विश्व को है। विशेष करके उस समाज को जो अपनी हिंसा को शारीरिक श्रम के माध्यम से बाहर नहीं निकाल पा रहा है। उस साधनसंपन्न और वैभवपूर्ण समाज को इस अष्टांगयोग की आज बहुत आवश्यकता है।सबसे अधिक रुग्ण वर्ग यही है।अगर यह वर्ग रुग्ण न होता तो क्या यह अरबों-खरबों रुपए खर्च करता किसी को बर्बाद करने के लिए। इसलिए हमेशा से इस प्रतियोग का एक ही उत्तर है योग।
वाह ! अद्भुत आलेख श्रीमन् !
जवाब देंहटाएंमन गदगद हो गया। सातत्य बना रहे ; बस इतनी सी इल्तिजा।
🌹🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
श्रीमान विश्वरंजन त्रिपाठी जी आपकी सहृदयता हमारी अनमोल निधि है।
हटाएंयोग-प्रतियोग उत्तम शैली में परिभाषित हुआ है l
जवाब देंहटाएंश्रीशास्त्रीजी आभार
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