विडंबना ही कहेंगे कि आतंकवाद का जख्म वो करते गए और हम शालीनता तथा अहिंसा के गीत गाते रहे । कभी उनकी धमकी तो कभी उनका बार यूं ही हम सदा सबकुछ सहते रहे। शहीदों की चिता की राख ठंढ़ी भी नही हुई कि देश के नेता उससे पहले आरोप प्रत्यारोप का खेल खेलने लग गए ।
शहीदों की विधवा पत्नियों ,मासूम बच्चों और उनके परिजनों के तरफ से पुछना चाहूँगा कि कब तक हम अपने बेटा ; पति और बाप का बलिदान देते रहेंगे ? कब बनेगा कोई कानून कब बनेगा ठोस सुरक्षा का आधुनिकतम हथियार और उस पर अमल करने की आजादी ?
कानून कब देशद्रोहियों को उसी पल खत्म करने का अधिकार देगा ? कब तक हल्ला मचेगा अफजल के फाँसी पर? क्यों रोता है कोई मेमन की मौत की सजा पर?
राजनीति और धर्म का नापाक मेल कहीं न कहीं आतंकवादियों पर प्रहार करने से रोकता है और शहीदों के रक्त बहने पर हमें रोने के लिए अभिषप्त करता है ।नेताओं की चमड़ी मोटी है। राजनीति के क्रुर बंदिशों के कारण ही भारतीयों की जान सस्ती हो चली है ।
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