शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

क्या बनें हम? योगी या प्रतियोगी

 


क्या बनें हम? योगी या प्रतियोगी

योग शब्द के पहले उप जोड़ने से उपयोग और प्र जोड़ने से प्रयोग बनता है।साथ ही प्रति जोड़ने से से प्रतियोग बनता है।प्रति उपसर्ग प्रायः विपरीत अर्थ का द्योतन कराता है।प्रतियोग  के अर्थ के अवबोधन के लिए हमें शब्द की  विश्लेषणपद्धति की तरफ अग्रसर होना पड़ेगा।इसी पद्धति द्वारा हम 'उत्तर" शब्द के विपरीत अर्थ पर विचार करते हैं।हमें यह अवश्य जानना चाहिए कि शब्दजगत में विलोम की महत्ता सर्वविदित है। अतः उत्तर का विलोम पक्ष सदैव प्रश्न ही नहीं होता है अपितु "प्रति+उत्तर =प्रत्युत्तर"  भी होता है। यथा ध्वनि का विपरीत प्रतिध्वनि है। वैसे ही योग का विपरीत पक्ष है प्रतियोग।

योग का अर्थ जोड़ है।जुड़ने की प्रक्रिया का नाम योग है। योगदर्शन के भाष्यकार महर्षि व्यास योग का समाधि अर्थ ही स्वीकारते हैं।गीता तो योग को तपस्या और ज्ञान से भी अधिक श्रेष्ठ मानती है।आज सभी मानते हैं कि

योग करने वाला योगी कहलाता है।योग एक अंतर्यात्रा है।योग का विपरीत है प्रतियोग।प्रतियोगी मतलव बाहर की यात्रा करने वाला।प्रतियोग करने वाला प्रतियोगी अर्थात् बहिर्यात्रा करने वाला होता है

वस्तुतः प्रतियोग करने वाला ही प्रतियोगी होता हैऔर वही प्रतियोगी ही प्रतियोगिता में शामिल होता है।प्रतियोगिता अर्थात कम्पटीशन। लेकिन कम्पटीशन से वास्तविक अर्थ ध्वनित नहीं हो पाता है ।यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले छात्र प्रायः कम्पटीशन की तैयारी करते हैं।यूनिवर्सिटी में उन्हें कंपीटिशन का सही अर्थ का ज्ञान कहां मिल पाता है?

हमारी यह प्रतियोगिता मां के पेट से बाहर निकलते ही,संसार में आते ही शुरू हो जाती है।प्रतियोगिता मतलव संघर्ष शुरू,द्वंद शुरू।द्वन्द मतलव राइवलरी ( Rivalry) अर्थात् प्रतियोगिता।अब किसके हिस्से में कितनी प्रतियोगिता आएगी?यह तय नहीं किया जा सकता है।न ही इसका कोई मानक है।लेकिन जिसकी जितनी बड़ी आकांक्षा,जितनी ज्यादा महत्वाकांक्षा, उसकी उतनी ही बड़ी प्रतियोगिता है।आजकल मनोविज्ञानी एक शब्द बोलते हैं-Sibling Rivalry. अर्थात सगे भाई-बहनों के बीच प्रतियोगिता। 

आज हम अपने आसपास यह बखूबी से देख सकते हैं कि सगे भाई-बहन ही आपस में ही द्वंद कर रहे हैं, प्रतियोगिता कर रहे हैं।बच्चों को भी होना होता है और उन्हें अपने जीवन में आगे भी बढ़ना है।साथ ही वे बड़े सपने भी देखने लगते हैं।परंतु उनके ये सपने समाज और परिवार की अपेक्षा के अनुसार ही होते हैं। 

बड़े सपने ही भविष्य में गलाकाट-प्रतियोगिता में बदलते हैं।गलाकाट शब्द का अर्थ प्रतियोगिता के संदर्भ में कब और कैसे शुरू हुआ है? यह जरूर शोध का विषय है।अपने इच्छित सपनों के लिए उपलब्ध वस्तुओं की संख्या सीमित है और उनके चाहने वालों की संख्या असीमित है।इसलिए एक-दूसरे का गला काटना ही पड़ेगा। इसे शाब्दिक स्वरूप में न लें। लेकिन हमारे मन में हिंसा के भावों के आए बिना सफलता का मिलना असम्भव-सा है।यह बात तो तय है। इस तरह से हमारे मन में और शरीर में हिंसा एकत्रित होती चली जाती है।लेकिन हमें यह पता ही नहीं चल पाता है कि कब से हमारे साथ यह सब घटित होने लगा है ? फिर यही हिंसा हमारे शरीर में विभिन्न प्रकार के विषैले केमिकल पैदा करती है।इन विषैले केमिकल को ही इमोशनल टोक्सिन कहते हैं।ये हमारे सिस्टम में शनैः-शनैः एकत्रित होने लगते हैं और हमारे सिस्टम को विकृत और रुग्ण करना शुरू कर देते हैं।

कालान्तर में यही हिंसा बेचैनी, घबराहट, भय, स्ट्रेस अवसाद, उदासी, डिप्रेशन आदि के भयावह रूप में तब्दील होती है। 

एक फ़िल्म आई थी, जिसमें इसे केमिकल लोचा कहा गया था।केमिकल लोचे का प्रभाव जब मन पर पड़ता है तो उससे मानसिक समस्याओं का जन्म होता है।यदि शरीर पर पड़ता है तो उससे स्ट्रेस से बनने वाली बीमारियां यथा हाइपरटेंशन, डायबिटीज आदि जैसी घातक बीमारियों का जन्म होता है। मेडिकल साइंटिस्ट उन्हें लाइफ स्टाइल डिजीज कहते हैं। 

इन मानसिक और शारीरिक बीमारियों के मूल कारण हिंसा का अभी तक मेडिकल साइंस में कोई इलाज उपलब्ध नहीं हो पाया है।जो इलाज है भी वह  शामक केमिकल्स के पिल्स के रूप में है या फिर शराब आदि के रूप में है। लेकिन इन शारीरिक और मानसिक बीमारियों के मूल कारण हिंसा के इलाज में योग की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण  है। 

वैसे तो हमारे मन में हिंसा का जन्म होना ही नहीं चाहिए।लेकिन यदि हो भी

या है तो उसे हम बाहर कैसे निकालें? महर्षि पतंजलि का अष्टांग योग इसी हिंसा से निबटने में सहायता करता है।इस अष्टांगयोग की आवश्यकता आज पूरे विश्व को है। विशेष करके उस समाज को जो अपनी हिंसा को शारीरिक श्रम के माध्यम से बाहर नहीं निकाल पा रहा है। उस साधनसंपन्न और वैभवपूर्ण समाज को इस अष्टांगयोग की आज बहुत आवश्यकता है।सबसे अधिक रुग्ण वर्ग यही है।अगर यह वर्ग रुग्ण न होता तो क्या यह अरबों-खरबों रुपए खर्च करता किसी को बर्बाद करने के लिए। इसलिए हमेशा से इस प्रतियोग का एक ही  उत्तर है योग।

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

शिथिलीकरण और योगनिद्रा का वैज्ञानिक स्वरूप



शिथिलीकरण और योगनिद्रा का वैज्ञानिक स्वरूप

मानवीय शरीर के समग्र व्यापार का आधार है मांसपेशियां।इंसान का उठना-बैठना, लिखना- पढ़ना, दौड़ना,कूदना,फेंकना,बातें करना तथा श्वास-निश्वास आदि सभी क्रियाएं  मांसपेशियों के संकोचन पर निर्भर हैं।मानवीय व्यापार के क्रम में सोचना और विचारना मानसिक क्रिया के अंतर्गत आते हैं।विचारों की मानसिक प्रक्रिया में भी मांसपेशियों के संकोचन की महत्वपूर्ण भूमिका है।

मानव शरीर का अधिकांश भाग मांसपेशियों से ढका होता है। मांसपेशियां शरीर के कुल भार का लगभग 40% भाग बनाती है।इनका अधिक संबंध संचलन या गति से होता है। यह अंगों मे गति उत्पन्न करता है। शरीर का ऊपरी हिस्सा पूर्ण रूप से मांसपेशियों से ढका रहता है। इसी कारण शरीर सुंदर व सुडौल दिखाई देता है। Muscular system एक organ system है।

मांसपेशी प्रणाली वास्तव में क्या है?

हमारा यह शरीर मुख्यरूप से मांसपेशियों से पर निर्भर है।वे मांसपेशियां तीन प्रकार की होती हैं। 1- skeletal (कंकाल की मांसपेशी) जो हमारी हड्डियों को कवर करती है। 2- visceral (चिकनी मांसपेशी) जो रक्तवाहिकाओं और कुछ अंगों, जैसे आंत और गर्भाशय, को खींचती है। 3- cardiac muscles (हृदय की मांसपेशियों) जो केवल हृदय में पाई जाती है)

ये तीनों तरह की मांसपेशियां लंबी कोशिकाओं से बनी होती हैं,जिन्हें muscle-fiber कहा जाता है। मांसपेशियों में contractility व excitability का गुण होता है । ये शरीर को strength, balance, posture movement व heat प्रदान करती है। मानव शरीर मे 600 से अधिक muscles होती है।

शरीर के कुछ हिस्से  ऐसे भी हैं जिनकी गति मांसपेशियों की प्रणाली द्वारा नियंत्रित नहीं होती है, वे हैं शुक्राणु कोशिकाएं, हमारे वायुमार्ग में बाल जैसे सिलिया और कुछ सफेद रक्त कोशिकाएं।

मांसपेशी प्रणाली का कार्य क्या है?

हम जब भी एक कदम उठाते हैं तो 200 मांसपेशियां हमारे पैर को ऊपर उठाने के लिए एकजुट होकर काम करने लगती हैं।इसी एकजुटता से वे इसे आगे बढ़ाती हैं और  इसके क्रम को भी सेट करती हैं।650 से अधिक मांसपेशियों का यह नेटवर्क शरीर को कवर करता है।जिसके  कारण  हम यह सब कार्य कर पाते हैं।

मांसमांसपेशी प्रणाली के मुख्य कार्य 

1. गतिशीलता – Mobility

2. स्थिरता – Stability

3. आसन – Posture

4. परिसंचरण – Circulation

5. श्वसन – Respiration

6. पाचन – Digestion

7. पेशाब – Urine

8. प्रसव – Childbirth

9. विजन – Vision

10. अंग सुरक्षा – Organ Protection

11. तापमान विनियमन – Temperature Regulation


मांसपेशियों के संकोचन का स्वरूप-

मांसपेशियों का संकोचन स्नायुप्रणाली द्वारा नियंत्रित होता है।स्नायुप्रणाली मस्तिष्क और मेरुदंड में शक्ति को निर्मित करती है।यह शक्ति नाड़ियों द्वारा शरीर के प्रत्येक हिस्से में पंहुचती है।इनमें शरीर को कवर करने वाली मांसपेशियां भी शामिल हैं।

यह स्नायविक शक्ति संवेग सदा नाड़ियों के पथ से प्रवाहित होती है।जब भी यह शक्ति किसी भी मांसपेशी में प्रवेश करती है तो उस जगह पर संकुचन होना लाजिमी है।संकुचन का क्षेत्र पंहुची हुई शक्ति पर निर्भर है।मांसपेशियों का संकुचन स्नायुवेग की प्रबलता के अनुपात पर होता है।स्नायुवेग विद्युत सदृश गुण वाले होते हैं।

हमारे शरीर में मस्तिष्क और मेरुदंड से लेकर मांसपेशियों तक ,फिर ज्ञानेन्द्रियों से लेकर मस्तिष्क और मेरुदंड तक नाड़ियों के मार्ग में विद्युत धाराएं लगातार प्रवाहित होती हैं।ये विद्युत धाराएं साधारण विद्युत धारा की तरह गति नहीं करती हैं।इनकी गति प्रति सेकिंड केवल चालीस गज से लेकर सौ गज तक होती है।ये विद्युत धाराएं मनुष्य की चेतना में भी नहीं प्रविष्ट होती हैं।

स्नायुसंवेग की विद्युत का पता सबसे पहले सन् 1842 में  लगा था।लेकिन इसे व्यक्त करने वाले यन्त्र को तैयार करने में एक शताब्दी का समय लगा था। डॉ. जैकाब्सन ने यह यंत्र बनाया था।

मनुष्य अपने दैनिक कार्यों में अपनी स्नायविक शक्ति बहुत अधिक मात्रा में व्यय करता है।हमें कितनी स्नायविक ऊर्जा व्यय करनी चाहिए- यह जानना  हमारे लिए बहुत आवश्यक है।अपने कार्यों में व्यस्त डॉक्टर,वकील, व्यवसायी,राजनेता या फिर अधिकारी के कार्यों का अवलोकन करना चाहिए।इन्हें प्रतिदिन अधिक व्यक्तिओं से मिलना होता है।प्रत्येक की समस्या अलग है और उन्हें समाधान भी तत्काल चाहिए।

इन डॉक्टर ,वकील, व्यवसायी, राजनेता और अधिकारियों को हर नए व्यक्ति के कारण बार-बार शक्ति रूपी बिजली का बटन दबाना पड़ता है और छोड़ना पड़ता है।

हम जिस तरह से जीवन यापन कर रहे हैं ,उसके कारण हमारे शरीर के डाइनेमो को प्रायः अविराम सक्रिय रहना पड़ता है।इसीलिए हमारी स्नायुओं को तनाव की उच्चतम अवस्था में रहना पड़ता है।जिस कारण हमारी मांसपेशियां स्वाभावतः संकुचित हो जाती हैं।

वैज्ञानिक परीक्षणों में प्रमाणित हो चुका है कि आवश्यकता से अधिक कार्य करने वाले व्यक्ति की न तो स्नायु नींद की अवस्था में भी शांत  होती हैं और न ही मांसपेशियां शिथिल हो पाती हैं।बिना विश्राम के मशीनें भी कार्य नहीं कर सकती हैं।मशीनें  आराम नहीं मिलने से जल्दी खराब हो जाती हैं।इसी तरह जो लोग स्नायविक विश्राम करना नहीं जानते हैं उन्हें स्नायविक रोगों का शिकार होना पड़ता है।

स्नायु दुर्बलता से आज धनी लोगों में अजीर्ण, कोष्ठबद्धता, अनिद्रा, रक्तचाप में वृद्धि, नपुंसकता और उन्माद ज्यादा तेजी से बढ़ रहे हैं।इसका एकमात्र कारण है -बिना विश्राम के लगातार आवश्यकता से अधिक स्नायविक शक्ति को व्यय करना है।

स्नायु दुर्बलता का समाधान -

क्या आज के समय हम स्नायविक तनाव पैदा करने वाले कार्यों से अपना पिंड छुड़ाकर अपनी स्नायुओं को आराम दे सकते हैं? क्या यह सब सम्भव है?

सुखपूर्ण भविष्य के लिए शरीर को बराबर तनाव की अवस्था में रखने से परहेज तथा समय-समय पर विश्राम देना बहुत आवश्यक है।बहुत से डॉक्टर स्नायुविकार से पीड़ित को आराम तथा उसकी मांसपेशियों को विश्राम दिला कर उसे रोग मुक्त करते हैं।परन्तु मांसपेशियों को शिथिलीकरण के बिना आराम करने से रोगी को विशेष लाभ नहीं मिल सकता है।

रोगी चारपाई पर लेट तो जाता है लेकिन वह बराबर बेचैन रहता है।इसका कारण यह है कि उसकी नाड़ियों के मार्ग से विद्युत शक्ति लगातार मांसपेशियों की ओर प्रवाहित होती है,जिसके कारण नाड़ियों में बहुत अधिक तनाव और मांसपेशियों में संकुचन रहता है।

शिथिलीकरण की प्रक्रिया-

वस्तुतः जब तक शरीर की मांसपेशियों को पूर्ण विश्राम  अर्थात् शिथिलीकरण नहीं किया जाता ,तब तक नाड़ियों के मार्ग से प्रवाहित होने वाली विद्युत धारा को रोका नहीं जा सकता है।शिथिलीकरण द्वारा शरीर की मांसपेशियों को पूर्ण विश्राम पंहुचा कर मांसपेशियों में विद्युत शक्ति के प्रवेश को पूरी तरह से रोका जा सकता है और नाड़ियों को पूरा आराम पंहुचाया जा सकता है।

डॉ.जैकाब्सन ने भी शरीर की मांसपेशियों का शिथिलीकरण का तरीका बताया है।सबसे पहले पीठ के बल चारपाई पर लेट जाएं।फिर धीरे-धीरे सजगता के साथ शरीर के किसी अंग विशेष की मांसपेशियों को सिकोड़ना है।मांसपेशियों के संकुचन पैदा होने का ज्ञान अधिकाधिक अनुभव करने का प्रयत्न करना चाहिए।जब मांसपेशियों के संकुचन पैदा होने के ज्ञान प्राप्त करने में पूर्ण सफलता मिल जाती है तो फिर मंद संकुचन को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए।यह अनुभूति आराम करने की दशा में भी मांसपेशियों में बनी रहती है।

बचे हुए संकुचन को  दूर करना इच्छाशक्ति द्वारा सम्भव है। इसमें सफलता के बाद ही अवशिष्ट संकुचन समाप्त होता है तथा मांसपेशियों का भी शिथिलीकरण हो जाता है।

हम अपने शरीर का कोई अंग ,जिसे हम इस क्रिया में शामिल करना चाहते हैं।उदाहरण के रूप में हम अपना दाहिना हाथ ही लें।सबसे पहले हमें अपने दाहिने हाथ की मांसपेशियों को ढीला छोड़ना है या इसे संकुचित कर लें।एक तरफ जहां हमें अपने दाहिने हाथ की मांसपेशियों को संकुचित करना है तो दूसरी तरफ दाएं हाथ की मांसपेशियों में संकुचन पैदा होने के ज्ञान का अधिकाधिक अनुभव करने की कोशिश करनी चाहिए।इस प्रकार के संकुचन के ज्ञान में सफलता मिलने के बाद ही हमें मंद संकुचन को रोकना चाहिए।आराम करते समय में भी मांसपेशियों में संकुचन तो होता है ,लेकिन वह अपेक्षाकृत मंद अर्थात् कम होता है।मंद संकुचन ही अवशिष्ट संकुचन कहलाता है। ऊपर बताए गए तरीके से मांसपेशियों के संकुचन को समझने के बाद ही हम जब कभी भी आराम या विश्राम की अवस्था में हों तो वहां भी हम मांसपेशियों के पूर्ण संकुचन को पैदा कर असीम ऊर्जा की अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं।

भारतीय परम्परा में  शिथिलीकरण-

शवासन और श्वास-निश्वास

शवासन के लिए पीठ के बल पर लेट कर पूरी तरह से अपने शरीर को ढीला छोड़ दें।आंखें बंद करके शरीर की समस्त मांसपेशियों के ढीलेपन और शिथिलीकरण का बोध करें।

शिथिलीकरण में उन्नति के बाद श्वास-निश्वास का लाभ-

मांसपेशियों के शिथिलीकरण के बाद श्वास-निश्वास पर ध्यान ।श्वास-निश्वास के संचालन में सामंजस्य स्थापित करें।नाभि तक श्वास-निश्वास की प्रक्रिया का पालन करें। श्वास-निश्वास की प्रक्रिया में सतर्कता और सामंजस्य समूची स्नायुप्रणाली में चमत्कार पैदा करता है।इस प्रक्रिया से न केवल हृदय और फेफड़ों को काफी शीतलता मिलती है बल्कि शरीर की  समस्त मांसपेशियों का भी शिथिलीकरण हो जाता है।

शिथिलीकरण में श्वास-निश्वास के समायोजन से शिथिलीकरण की क्रियाएं भी आसान हो जाती हैं और श्वास-निश्वास पर भी अधिकार हो जाता है।इससे मांसपेशियों का शिथिलीकरण अपेक्षाकृत अधिक पूर्ण तथा श्वास-निश्वास को भी हम दिन-रात स्थिर रखने में सक्षम हो जाते हैं।

शवासन 


शव का अर्थ होता है मृत।अपने शरीर को शव के समान बना लेने के कारण ही इस आसन को शवासन कहा जाता है। इस आसन का उपयोग प्रायः अपने दैनिक योगाभ्यास को समाप्त करने के लिए किया जाता है। यह एक शिथिल करने वाला आसन है और शरीर, मन और आत्मा को नवस्फूर्ति प्रदान करता है। परंतु यह आसन ध्यान लगाने के लिए नहीं है। क्योंकि इससे नींद आ सकती है।

शवासन की विधि-

जमीन पर दरी और उसके ऊपर कंबल भी बिछाना चाहिए।(गर्मियों में खादी की चादर बिछाएं।)फिर हम पीठ के बल लेटें और दोनों पैरों में डेढ़ फुट का अंतर रखें। दोनों हाथों को शरीर से 6 इंच (15 सेमी) की दूरी पर रखना है और  हथेली की दिशा ऊपर की ओर रहेगी।

सिर को सहारा देने के लिए हम तौलिया या किसी कपड़े को दोहरा कर सिर के नीचे रख सकते हैं। इस दौरान हमें  यह भी ध्यान रखना है कि सिर सीधा रहे।

शरीर को तनावरहित करने के लिए हमें अपनी कमर और कंधों को व्यवस्थित करना होगा। शरीर के सभी अंगों को ढीला छोड़ना है। हम अपनी आंखों को बड़े प्यार से बंद कर लें।शवासन करने के दौरान हमें अपने शरीर का कोई भी अंग हिलाना-डुलाना नहीं है।

हमें बहुत ही सजगता से अपने ध्यान को अपने गहरे और लंबे श्वास-निश्वास पर लगाना।श्वास-निश्वास की प्रक्रिया का नाभि तक सहजता से  आदत में शुमार होना बहुत आवश्यक है।श्वास-निश्वास में अधिक से अधिक लयबद्धता  निरंतरता के अभ्यास पर निर्भर होती है। श्वास-निश्वास के समय ऐसा अनुभव करें कि पूरा शरीर शिथिल होता जा रहा है। शरीर के सभी अंग शांत हो गए हैं।

इस दौरान हमें श्वास-निश्वास की सजगता को बनाए रखना है।हमें अपनी आंखें बंद ही रखनी है और आज्ञाचक्र (भौहों के मध्य स्थान पर) में एक दिव्यज्योति के प्रकाश को देखने का प्रयास करना चाहिए।

यदि कोई विचार हमारे  मन में आए तो उसे हमें साक्षी भाव से देखना है।हमें उससे जुड़े नहीं रहना है।हम उसे देखें और उसे जाने दें। कुछ ही पल में हम मानसिक रूप से भी शांत और तनावरहित हो जाएंगे।

आंखे बंद रखते हुए इसी अवस्था में  हम 10 से 1 (या 25 से 1) तक उल्टी गिनती भी गिन सकते हैं। उदाहरण के तौर पर "मैं श्वास ले रहा हूं 10, मैं श्वास छोड़ रहा हूं 10, मैं श्वास ले रहा हूं 9, मैं श्वास छोड़ रहा हूं 9"। इस प्रकार हम शून्य तक गिनती को मन ही मन गिन सकते हैं

यदि हमारा मन भटक जाए और हम गिनती भूल जाएं तो फिर से हम उल्टी गिनती आरंभ करें। श्वास की सजगता के साथ गिनती करने से हमारा मन थोड़ी ही देर में शांत हो जाएगा।

योग के अभ्यास के समय पर भी हम 1 या 2 मिनट तक शवासन का अभ्यास कर सकते हैं।  हमें 20 से 30 मिनट तक शवासन का अभ्यास नियमित रूप से करना चाहिए। विशेषकर थक जाने के बाद या सोने से पहले।

शवासन के दौरान हम किसी भी अंग को हिलाएंगे नहीं। सजगता को साँस की ओर लगाकर रखें। अंत में अपनी चेतना को शरीर के प्रति लेकर आएँ।

अंत में दोनों पैरों को मिलाएं, दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ें और इसकी गर्मी को हम अपनी आंखों पर धारण करें। इसके बाद हम अपने हाथ सीधे कर लें और आंखें खोल लें।

शवासन के विविध लाभ-

शवासन एक मात्र ऐसा आसन है, जिसे हर आयु के लोग कर सकते हैं। यह सरल भी है।यदि शवासन को पूरी सजगता के साथ किया जाए तो इससे तनाव दूर होता है, उच्च रक्तचाप सामान्य होता है और अनिद्रा भी दूर होती है।

श्वास की स्थिति में हमारा मन शरीर से जुड़ा हुआ रहता है, जिससे कि शरीर में किसी प्रकार के बाहरी विचार उत्पन्न नहीं होते। इस कारण से हमारा मन पूर्णत: आरामदायक स्थिति में होता हैं, तब शरीर स्वत: ही शांति का अनुभव करता है। आंतरिक अंग सभी तनाव से मुक्त हो जाते हैं, जिससे कि रक्त लसंचार सुचारु रूप से प्रवाहित होने लगता है। और जब रक्त सुचारु रूप से चलता है तो शारीरिक और मानसिक तनाव घटता है। विशेषकर जिन लोगों को उच्च रक्तचाप और अनिद्रा की शिकायत है, ऐसे रोगियों के लिए शवासन बहुत लाभदायक है।

शरीर जब शिथिल होता है, मन शांत हो जाता है तो हम अपनी चेतना के प्रति सजग हो जाते हैं। इस प्रकार हम अपनी प्राण ऊर्जा को फिर से स्थापित कर पाते हैं। इससे हमें अपने शरीर की ऊर्जा पुनः प्राप्त हो जाती है।

योगनिद्रा अर्थात् आध्यात्मिक नींद-

योगनिद्रा वह नींद है, जिसमें जागते हुए सोना है। सोने व जागने के बीच की स्थिति है योगनिद्रा। इसे हम स्वप्न और जागरण के बीच ही स्थिति मान सकते हैं। यह झपकी जैसा है या कहें कि अर्धचेतन जैसा है। देवता इसी निद्रा में सोते हैं।

ईश्वर का अनासक्त भाव से संसार की रचना, पालन और संहार का कार्य योगनिद्रा कहा जाता है। मनुष्य के सन्दर्भ में अनासक्त हो संसार में व्यवहार करना योगनिद्रा है।

योगनिद्रा लें और दिनभर तरोताजा रहें। प्रारंभ में हमें यह योगनिद्रा किसी योग विशेषज्ञ से सीखनी चाहिए, ताकि हमें अधिक लाभ प्राप्त हो सके।योगनिद्रा द्वारा शरीर व मस्तिष्क स्वस्थ रहते हैं। यह नींद की कमी को भी पूरा कर देती है। इससे थकान, तनाव व अवसाद भी दूर हो जाता है। योग की भाषा में इसे प्रत्याहार कहा जाता है। जब मन इन्द्रियों से विमुख हो जाता है।

प्रत्याहार की सफलता एकाग्रता लाती है। योगनिद्रा में सोना नहीं है। योगनिद्रा द्वारा मनुष्य से अच्छे काम भी कराए जा सकते हैं। बुरी आदतें भी इससे छूट जाती हैं। योगनिद्रा का प्रयोग रक्तचाप, मधुमेह, हृदयरोग, सिरदर्द, तनाव, पेट में घाव, दमे की बीमारी, गर्दन-दर्द, कमर-दर्द, घुटनों, जोड़ों का दर्द, साइटिका, अनिद्रा, अवसाद और अन्य मनोवैज्ञानिक बीमारियों, स्त्री रोग में प्रसवकाल की पीड़ा में बहुत ही लाभदायक है।

योगनिद्रा का संकल्प प्रयोग पशुओं पर भी किया जा सकता है। खिलाड़ी भी मैदान में खेलों में विजय प्राप्त करने के लिए योगनिद्रा लेते हैं। योगनिद्रा 10 से 45 मिनट तक की जा सकती है।

योगनिद्रा की विधि-

योगनिद्रा प्रारंभ करने के लिए खुली जगह का चयन किया करना चाहिए। यदि किसी बंद कमरे में करना है तो उसके दरवाजे और खिड़की खोल देने चाहिए। ढीले कपड़े पहनकर शवासन करें। जमीन पर दरी बिछाकर उस पर एक कंबल जरूर बिछाना चाहिए।हमारे दोनों पैर लगभग एक फुट की दूरी पर हों, हथेली कमर से छह इंच दूरी पर हो तथा आँखे बंद रहनी चाहिए।

हमें न तो शरीर को हिलाना है और नहीं नींद के आगोश में जाना है।यह एक मनोवैज्ञानिक नींद है।हमें किसी भी तरह के विचारों से जूझना नहीं है। हमें अपने शरीर व मन-मस्तिष्क को शिथिल करना है। हमें सिर से पाँव तक पूरे शरीर को शिथिल करना है।हमें श्वास-निश्वास को नाभि तक सहजता से लेना है।

Self-imagination से Affirmation और Visualization की भूमि तैयार-

अब हम कल्पना करें कि हम समुद्र के किनारे लेटकर योगनिद्रा कर रहे हैं।हमारे हाथ, पांव, पेट, गर्दन, आंखें सब शिथिल हो गए हैं। हम स्वयं से कहें कि मैं योगनिद्रा का अभ्यास करने जा रहा हूं।

योगनिद्रा में अच्छे कार्यों के लिए संकल्प लिया जाता है। बुरी आदतें छुड़ाने के लिए भी संकल्प ले सकते हैं। योगनिद्रा में किया गया संकल्प बहुत ही शक्तिशाली होता है। अब लेटे-लेटे पांच बार श्वास-निश्वास की प्रक्रिया नाभि तक  इसमें पेट व छाती दोनों ही जगह प्राण धारण की अनुभूति होगी। पेट ऊपर-नीचे होगा। अब परमात्मा का ध्यान करें और मन में संकल्प 3 बार बोलें।

अब हम अपने मन को शरीर के विभिन्न अंगों (76 अंगों) पर ले जाएं और उन्हें शिथिल व तनाव रहित होने का निर्देश दें। हम अपने मन को दाहिने पैर के अंगूठे पर ले जाएं। पैर की सभी उंगलियां कम से कम पैर का तलवा, एड़ी, पिण्डली, घुटना, जांध, नितंब, कमर, कंधा शिथिल होता जा रहा है। इसी तरह हम अपना  बायां पैर भी शिथिल करें। सहजता से हम श्वास-निश्वास प्रक्रिया दोहराएं।हम अहसास करें कि समुद्र की शुद्ध वायु हमारे शरीर में आ रही है व गंदी वायु बाहर जा रही है।

अभिनव संकल्पना के नूतन आयाम-

हम कल्पना करें कि धरती माता ने हमारे शरीर को अपनी गोद में उठाया हुआ है। अब हम अपने मन को अपने दाहिने हाथ के अंगूठे, सभी उंगलियों पर ले जाएं। कलाई, कोहनी, भुजा व कंधे पर ले जाएं। इसी प्रकार हम अपने मन को बाएं हाथ पर ले जाएं। दाहिना पेट, पेट के अंदर की आंतें, जिगर, अग्न्याशय दाएं व बाएं फेफड़े, हृदय व समस्त अंग हमारे शिथिल हो गए हैं।

हम हृदय में देखें। हमारे हृदय की धड़कन सामान्य हो गई है। हमारे ठुड्डी, गर्दन, होठ, गाल, नाक, आंख, कान, कपाल सभी शिथिल हो गए हैं। अंदर ही अंदर हम देखें कि हम तनाव रहित हो रहे हैं। सिर से पैर तक हम शिथिल हो गए हैं।ऑक्सीजन हमारे अंदर आ रही है और कार्बन डाई-ऑक्साइड बाहर जा रही है। हमारे शरीर की बीमारी बाहर जा रही है।हम अपने विचारों को तटस्थ होकर देखें।

अब हम अपनी कल्पना में गुलाब के फूल को देखें। चंपा के फूल को देखें। पूर्णिमा के चंद्रमा को देखें।आकाश में तारों को देखें। उगते हुए सूरज को देखें। बहते हुए झरने को देखें। तालाब में कमल को देखें। समुद्र की शुद्ध वायु आपके शरीर में जा रही है और बीमारी व तनाव बाहर जा रहा है। इससे हम स्वस्थ हो रहे हैं, तरोताजा हो रहे हैं।

अब हम सामने देखें। हमारे सामने समुद्र में एक जहाज खड़ा है।उस जहाज के अंदर जलती हुई मोमबत्ती को हम देखें। जहाज में दूसरी तरफ एक लालटेन जल रही है। हम उस जलती हुई लौ को देखें। फिर सामने देखें की खूब जोरों की बरसात हो रही है। बिजली चमक रही है, चमकती हुई बिजली को देखें, बादल गरज रहे हैं। गरजते हुए बादल की आवाज हम सुनें। नाक के आगे देखें। ऑक्सीजन हमारे शरीर में जा रही है। कार्बन डाई ऑक्साइड बाहर जा रही है।

उपसंहार-
अंत में हम अपने मन को आज्ञाचक्र (दोनों भौहों के बीच) में लाएं व योगनिद्रा समाप्त करने से पहले हम अपने आराध्य का ध्यान करें व अपने संकल्प को तीन बार अंदर ही अंदर दोहराएं। लेटे ही लेटे बंद आंखों में तीन बार ओ3म्‌ का उच्चारण करें। फिर दोनों हथेलियों को गरम करके आंखों पर लगाएं और पांच बार हम सहजता से श्वास-निश्वास लें। अब अंदर ही अंदर हम देखें कि हमारा शरीर, मन व मस्तिष्क तनाव रहित हो गया है और हम स्वस्थ व तरोताजा हो गए हैं।

                          -डॉ. कमलाकान्त बहुगुणा








बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

दशरथनंदन भरत की कतिपय विशेषताएं





 
भारतवर्ष आदिकाल से ज्ञान-विज्ञान ,धर्म-अध्यात्म और मानवीयमूल्यों के अधिष्ठान के रूप में प्रतिष्ठित है।वैदिक युग की महानतम परम्पराओं के साथ ही रामायण का युग भी मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं का अप्रतिम युग रहा है।
यह सच है कि घटनाएं  संसार में हर क्षण घटती हैं, लेकिन उन घटनाओं को हम समझते कैसे हैं?और उनसे सीखते क्या हैं ? यह बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। ये घटनाएं हमें  रूपांतरित  भी करती हैं  और  सामान्य से विशेष बनने का भी शुभ अवसर देती हैं। वस्तुतः ये घटनाएं हमारे अस्तित्व के अनोखापन को निखारती  भी हैं प्रतिष्ठित भी करती हैं।
यह भारतराष्ट्र सृष्टि के प्रारंभ से ही महान विभूतियों की कर्मभूमि रही है।उनके कर्म और जीवनशैली सदा से मानवता के लिए प्रेरणास्रोत और जीवन जीने का नजरिया भी हैं ।हम अपनी नजर का तो ऑपरेशन कर सकते हैं, लेकिन नजरिए का नहीं।
आज इन्हीं युगपुरुषों की अध्ययन की कड़ी  में हमारा अध्ययन और मनन का विषय है - " दशरथनंदन भरत की कतिपय विशेषताएं है  या  भरत  की मानवता को देन ।" यह एक ऐसा विषय है जो हमें अंदर से अपने कर्तव्य पथ पर अडिग  बने रहने के लिए सतत प्रेरित करता है। जीवन में बहुत से षड्यंत्र और लोभ मुंह बाए खड़े हैं। यहां फिसलन की बहुत अधिक सम्भावनाएं हैं। जरूरी नहीं कि हर बार उन षड्यंत्रों में कोई बाहरी शामिल हो।हो सकता है  ऐसे षड्यंत्रों में वे भी शामिल हों जिन्हें सर्वाधिक चाहते हों या उन पर  आप अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए हमेशा उद्यत रहते हों।
जब कोई हमारा अपना इस षड्यंत्र में शामिल होता है तो दिल  यह  बहुत टूटता है। हमें यह जरूर सोचना होगा कि यहां हर कोई राम नहीं हो सकता है।राम वह है जिन्हें कोई भी घटना विचलित न कर सके । श्रीराम तो वैसे भी दिव्य सत्ता के साक्षात् स्वरूप हैं। वे तो पद्मपत्र स्थित बून्द की तरह  संसार के व्यवहारों से अनासक्त भी हैं और निर्मल भी ।उनका अविचलित होना उतना कारुणिक नहीं जितना कि भरत का मानवीय मूल्यों के प्रति अडिग रहना है।
भगवान श्रीराम के राज्याभिषेक के समय भरत अपने छोटे भाई शत्रुघ्न के साथ अपने ननिहाल अर्थात् कैकेय राज्य में थे ।  भरत अपने  नाना अश्वपति के हालचाल जानने वहां चले गए थे । भरत के पीछे से उनकी माँ कैकेयी ने अपनी दासी मंथरा की चालों में आकर भगवान श्रीराम को 14 वर्षों का वनवास दिलवा दिया था  और  भरत को अयोध्या का राजा नियुक्त करवा दिया था। इसी दुःख में  पिता राजा दशरथ ने अपने प्राण त्याग दिए थे।

दशरथ के प्राण त्यागते ही तुरंत अयोध्या की मंत्रिपरिषद ने अयोध्या के दूत को भरत को कैकेय राज्य से  बुलावाने के लिए भेज दिया गया। भरत अभी तक इन सभी बातों से पूरी तरह से अनभिज्ञ थे । अयोध्या आकर उन्हें पता चला कि उनके पीछे महल में किस प्रकार के षड़यंत्र रचे गए, जिस कारण उनके प्रिय भ्राता को वनवास मिला था और पुत्र राम के वियोग में पिता की भी मृत्यु हो चुकी थी।
इस घटना के बाद भरत की निर्णायक भूमिका ही राम को मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम तक की यात्रा का ब्लूप्रिंट तैयार कर सकी।
भरत द्वारा अयोध्या का राज सिंहासन ठुकराने  और साथ ही  अयोध्या की प्रजा से क्षमा मांगने में  श्रेष्ठ रघुवंश से  विरासत में मिले संस्कारों  की देन थी । भरत ने सदा अयोध्या का राजा केवल भगवान श्रीराम को माना और  स्वयं को उनका दास ही स्वीकारा। अपनी राय उन्होंने अपने सभी मंत्रियों, गुरुओं तक भी त्वरित पहुंचा दी थी।
षड़यंत्र के लिए उत्तरदायी अपनी माँ कैकेयी का  भी उन्होंने परित्याग कर दिया था और कैकेयी को माँ मानने से मना कर दिया था। साथ ही अपनी माँ को यह भी कहा कि वह अब वह उनका मुख कभी नही देखेंगे।
चारों भाइयों में सबसे छोटे भाई शत्रुघ्न मंथरा को भरी सभा में घसीटकर लेकर आए थे। मन्थरा की हत्या करने के इच्छुक  शत्रुघ्न को  भरत ने  यह कहकर रोका था कि स्त्री हत्या भगवान श्रीराम के आदर्शों के विरुद्ध है। 
राम और लक्ष्मण के वन में और भरत और शत्रुघ्न  कैकेय राज्य  में थे इसलिये पिता दशरथ का  अंतिम संस्कार नहीं हो पाया था। बहुत दिनों तक उनका शव तेल तथा अन्य दिव्य पदार्थों की सहायता से सुरक्षित रखा गया था। इसलिए भरत ने सर्वप्रथम पिता के अन्त्येष्टि संस्कार में  मुखाग्नि दी थी।
भरत अपने परिवार, गुरु , मंत्री और सेना के साथ भगवान श्रीराम को अयोध्या वापस लेने के लिए चित्रकूट गए थे । वहां जाकर उन्होंने भगवान श्रीराम से क्षमा मांगी व उन्हें वापस अयोध्या चलने को कहा था, किंतु भगवान श्रीराम ने अपना पिता को दिए वचन के अनुसार वापस चलने से मना कर दिया था ,इसलिये भरत केवल उनकी चरणपादुका लेकर वापस लौट आए थे।
अयोध्या आकर भरत ने भगवान श्रीराम की चरणपादुका को सिंहासन पर रखा और उन चरणपादुकाओं को ही सांकेतिक रूप से राम का अंग मानकर अयोध्या का राज सिंहासन उन्हें समर्पित कर उनके सेवक बन राजकार्य संभाला।
भगवान श्रीराम ने भरत को 14 वर्षों तक अयोध्या को सँभालने का आदेश दिया था ।इसलिये भरत ने अयोध्या का राजसिंहासन तो संभाला, लेकिन श्रीराम की तरह वनवासी रहते हुए उन्होंने अपना सब राजसी सुख त्यागकर  अयोध्या के समीप नंदीग्राम वन में एक कुटिया बनाकर रहने लगे।
चित्रकूट में भरत ने श्रीराम से वचन लिया था कि यदि वे 14 वर्ष समाप्त होने के पश्चात एक दिन की भी देरी करेंगे तो वे अपना आत्मदाह कर लेंगे और प्रभु श्रीराम भी 14 वर्षों के पश्चात पुनः अयोध्या वापस लौट आए थे। भरत ने श्रीराम को वैसी ही अयोध्या लौटाई जिस प्रकार वे छोड़कर गए थे। इस प्रकार भरत ने अपने भाई का संपूर्ण कर्तव्य निभाया  था तथा मानवता के उच्च आयामों  की स्थापना में अपना अमूल्य योगदान दिया था।
पदोपभुक्ते  तव पादुके मे एते प्रयच्छ प्रणताय मूर्ध्ना ।
यावद्  भवानेष्यति तावद्      भविष्याम्यनयोर्विधेयः ।।
सम्पूर्ण मानवता के इतिहास में भाई-भाई आपस में राज के लिए लड़ते रहे लेकिन यहाँ तो दोनों भाई राजसिंहासन को ही गेंद की तरह एक दूसरे की तरफ उछालते रहे।ऐसा उदात्त चरित भरत के नसों में ही नहीं अपितु उनके मन और आत्मा में प्रवाहित मानवीय गरिमा के श्रेष्ठ संस्कारों की अविरल धारा से सम्भव हो सका।
        -डॉ. कमलाकान्त बहुगुणा

सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु

स्मृति और कल्पना

  प्रायः अतीत की स्मृतियों में वृद्ध और भविष्य की कल्पनाओं में  युवा और  बालक खोए रहते हैं।वर्तमान ही वह महाकाल है जिसे स...