आज हम मानवीय विकास की यात्रा पर कुछ परिचर्चा करते हैं।इस परिचर्चा से जहां हम इतिहास के पन्नों को पलट सकेंगे वहीं हम स्वयं के जीवन को दिशा देने वाली प्रेरणा से भी रूबरू हो सकेंगे। यूं तो हमने आकाश में पक्षियों की तरह उड़ना सीख लिया है।सूर्य, चंद्र आदि सौरमंडल की वास्तविकता का मापन भी हमने कर लिया है और साथ ही मछलियों की तरह समुद्र में तैरना भी हमें आगया है। हमने समुद्र की गहराई का मापन और उसके अंदर के रत्नों को भी पहचान लिया है।भले ही हमने पक्षियों के जैसे उड़ना और मछलियों के जैसे तैरना सीख लिया है ,फिर भी हमें इंसानों की तरह चलना सीखना ही होगा।हम मनुष्यों की प्रकृति उड़ना या तैरना नहीं है।हमारा सच्चा स्वभाव है धरती पर चलना।यह हमारे अस्तित्वबोध की प्रकृति भी।धरती है ही रत्नों की खान । इसलिए धरती को रत्नगर्भा कहा जाता है।रत्नगर्भा धरा में असंख्य रत्न हैं।उन अमूल्य रत्नों की पहचान के लिए हमें आखिर किस योग्यता की आवश्यकता है? क्या केवल योग्यता से इन अमूल्य रत्नों की पहचान होने वाली है।वास्तव में इसके लिए ज्ञान ,योग्यता और इच्छा का संतुलन अनिवार्य है।
ज्ञान (क्या-क्यों)योग्यता (कैसे) इच्छा (चाहना)।इसी प्रक्रिया को विद्वान शिक्षा कहते हैं।शिक्षा का अर्थ है जो जीवन में आने वाली समस्याओं से पार कराने में सक्षम हो।ऐसी शिक्षा के ब्लूप्रिंट पर विमर्श आवश्यक है।शिक्षा के ब्लूप्रिंट पर विमर्श के लिए उन्नीसवीं सदी के महान आचार्य महर्षि दयानंद सरस्वती जी की अमर कृति सत्यार्थ प्रकाश का दूसरा समुल्लास ही आज का मुख्य उपकरण है।
महर्षि दयानंद सरस्वती ने कहा था कि अगर कोई मेरी उंगलियों को मोमबत्ती तरह जला भी दे तो भी मैं सत्य को सत्य ही कहूंगा। ऐसे दिव्य संत द्वारा प्रदत्त शिक्षा की प्रक्रिया हमारे लिए प्रेरणाप्रद भी है और मानवता के लिए उनकी देशना महामन्त्र की तरह अनुष्ठान योग्य भी।
महर्षि दयानंद सरस्वती जी शतपथ ब्राह्मण के वचन से अपनी बात रखते हैं-मातृमान् पितृमानाचार्यवान् पुरुषो वेद अर्थात् मनुष्य के ज्ञानवान् होने में तीन उत्तम शिक्षकों का बहुत बड़ा योगदान है। वह कुल धन्य है,वह संतान बहुत भाग्यवान् है,जिसके माता और पिता धार्मिक और विद्वान हैं।
महर्षि दयानंद सरस्वती जी माता निर्माता भवति अर्थात् प्रथम गुरु माता को मानते हैं। वर्णोच्चारण की शिक्षा माता द्वारा दी जानी चाहिए।माता के बाद दूसरा गुरु पिता है।महर्षि दयानंद सरस्वती उस मां को शत्रु और उस पिता को संतान का वैरी मानते हैं जो अपनी संतान को शिक्षा नहीं दिलाते हैं।
सच में शिक्षा वह साधन है जिससे व्यक्ति सही अर्थों में मनुष्य बनता है और एक सुंदर ,स्वस्थ ,सरल और सहज समाज के निर्माण में अपनी सर्वोत्तम भूमिका तय करता है।महर्षि दयानंद सरस्वती जी के सत्यार्थ प्रकाश के दूसरे और तीसरे समुल्लास हमें अवश्य पढ़ने चाहिए।