शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

महाराजजी आज तो मैं मरते-मरते बच गया

 


बात उन्नीस सौ तिरानवे के समय की होगी।गुरुकुल में अध्ययन के दौरान का यह घटित प्रसंग है।गुरुकुल में एक बड़ी उम्र के छात्र भी पढ़ने के लिए आए थे।वे उम्र में हमसे दस वर्ष बड़े होंगे।वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक भी थे।हम सब उन्हें भ्राता जी बोलते थे।वे बहुत ही सरल,सहज स्वाभाविक व्यवहार के धनी थे।मुझे तो उनका स्नेह सगे भाई से भी बढ़कर मिलता था।छात्रावास में स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण उन्होंने अपने रहने की व्यवस्था बाहर कर दी थी और पढ़ने महाविद्यालय में आया करते थे।

एकदिन की बात थी।वे बहुत ही व्यथित और घबराए हुए लग रहे थे।उनके चेहरे को देखकर लग भी रहा था कि मानो जैसे वे किसी बड़ी परेशानी में हों।मुझसे उनकी वह अवस्था कुछ अटपटी-सी लग रही थी।यह सब देख मुझसे रहा नहीं गया और मैं पूछ बैठा भ्राताजी आप आज बहुत परेशान नजर आरहे हैं। सब कुशल तो है न।वे प्रायः सबको महाराजजी ही संबोधित करते थे।वे बोले- महाराजजी आज तो मैं मरते-मरते बच गया।और फिर जो उनके साथ घटा उसे उन्होंने सिल-सिलेबार बताना शुरू कर दिया।मैं उनकी हर बात को बहुत ही गौर से सुन रहा था।उन्होंने बताया कि आज जब मैं पढ़ने के लिए कमरे से पैदल-पैदल आरहा था तो रास्ते में मुझे फन फैलाए हुए काला सांप दिखा।आज तो उसने मुझे डस लिया होता।यह समझो कि मैं बाल-बाल बच गया हूं।मुझे तो आज अपनी साक्षात मौत नजर आरही थी।वह तो अच्छा हुआ सांप को देखते ही मैं दौड़ पड़ा।मेरी हिम्मत पीछे मुड़कर देखने की भी नहीं हुई।अगर मैं भागता नहीं तो आज वह सांप मुझे बिना काटे नहीं छोड़ता।

खैर, अब वे पहले से मुझे बेहतर दिखने लगे।फिर दूसरे दिन जब वे आए तो मैंने पूछा-भ्राता जी आज तो आपको  सांप नहीं दिखा होगा रास्ते में।मेरे बोलते ही वे बड़े ही कातर भाव से बोले कि लगता है वह सांप मुझे डसकर ही मानेगा।आज भी मुझे सांप उसी जगह पर दिखा।मैं भी हैरान था कि ऐसा कैसे होसकता है।उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था, मानो जैसे उन्हें अपनी मौत साक्षात नजर आरही हो।वे बहुत ही घबराए हुए नजर आरहे थे।खैर,शाम को वापिस अपने कमरे पर चले गए और जब फिर मुझे अगले दिन अर्थात् तीसरे दिन मिले तो मैंने उनसे पूछा-भ्राता जी!सब ठीक-ठाक?अब तो वह हंसते हुए बोले-महाराज! वहां सांप-वांप कुछ नहीं था।मैं तो उससे  बेकार ही डर रहा था,वह तो सड़क के किनारे फन फैलाए सांप के आकार वाला लोहा गड़ा था।जिसे मैं सांप समझ बैठा था।फिर क्या था?हम दोनों मिलकर बहुत देर तक हंसते रहे।

सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु

स्मृति और कल्पना

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