मैं कौन हूँ
मैं कौन हूं ? वास्तव में इस प्रश्न की जिज्ञासा का कारण है- Know yourself.
Know yourself के लिए मैं कौन हूँ? पर आना ही पड़ेगा।
एक छोटी-सी कोशिश है - मैं जान सकूँ कि मैं कौन हूँ?इस प्रश्न की जिज्ञासा के लिए हमें मान्यता,विश्वास,विचारों की गठरी और अनुमान से परे अनुभूति की चरम गहराई में उतर कर ही खोजना होगा।
अनुभूति का यह क्षेत्र नितांत निजी क्षेत्र होता है।यहाँ धारणा नहीं अपितु सम्भावनाओं पर विशेष ध्यान देना होगा।
मैं कौन हूँ ? यह शब्दों का ज्ञान बढाने मात्र तक सीमित नहीं है,अपितु यह तो वास्तव में स्वयं को स्वयं से खोजना है।यह एक ऐसी महायात्रा है जहां स्वयं को स्वयं ही जानना है।
मैं इस विषय पर और आगे बढूं उससे पहले एक छोटी-सी कहानी से आपको रूबरू कराना चाहूंगा।
एकबार एक व्यक्ति अपनी फ्लाइट पकड़ने के लिए जैसे ही एयरपोर्ट पहुंचता है तो उसे वहाँ लंबी कतार दिखाई पड़ती है।वह उस कतार की परवाह किए बिना बोर्डिंग पास वाले काउंटर तक पहुंच जाता है और कहता है मुझे जल्दी है- अतः मुझे बोर्डिंग पास दे दें।काउंटर में बैठी महिला ने कहा -सर आप कतार से आएं।कतार के सभी पैसेंजर भी उसी फ्लाइट के हैं।यह सुनते ही वह व्यक्ति झल्लाते हुए बोलता है मुझे मेरा बोर्डिंग पास दे दीजिए।आप जानते नहीं मैं कौन हूँ।
उस महिला ने भी माइक हाथ में लेकर कतार में खड़े लोगों से पूछा कि आप लोग बता सकते हैं क्या कि ये कौन हैं।क्योंकि इन सज्जन ने अभी-अभी पूछा है -आप जानते हो मैं कौन हूँ?
ट्रस्ट मी।मुझ पर भरोसा कीजिए यदि हम यह जान जाते हैं कि "मैं कौन हूँ?" तो समझिए दुनिया की नब्बे प्रतिशत समस्या खत्म ।संसार के कई तरह के संघर्ष और राजनीति बहुत हद तक स्वतः खत्म हो सकती है।
आइए!पुनः इसी चर्चा की तरफ आगे बढ़ते हैं। मैं कौन हूँ?मेरी पहचान क्या है?
क्या मेरा नाम मैं हूं?
नाम हमारा साउंड से रिप्रजेंटेशन है। अतः नाम भी मैं नहीं हूं।
हमारी फोटो भी हमारा ग्राफिक रिप्रजेंटेशन ही है।अतः फोटो भी मैं नहीं हूं।
बेटा, पिता,मां ,बहन, गुरु आदि हमारी अलग -अलग भूमिकाएं हैं।अतः हमारे रोल भी मैं नहीं हूं।
डॉक्टर, इंजीनियर, टीचर आदि तो प्रोफेशन है। अतः प्रोफेशन भी मैं नहीं हूं।
इंडियन, अमेरिकन आदि भी देश से बिलोंग होने के कारण है।अतः राष्ट्रीयता भी मैं नहीं हूं।
हिन्दू ,मुस्लिम, क्रिश्चियन आदि भी रिलीजन हैं। अतः रिलीजन भी मैं नहीं हूं।
क्या शरीर मैं हूं?परंतु जब कई बार शरीर का अंग कट जाता है तो भी बिना उस अंग के भी मुझे अपने मैं की अनुभूति होती है। यूँ भी शरीर तो भोजन का ही परिणाम है। अतः शरीर भी मैं नहीं हूं।
क्या मन मैं हूँ? नहीं विचारों के बदलते रहने के कारण मन भी मैं नहीं हो सकता है ।
सत्य तो यह है कि मन जिसे ज्यादा याद करता है उसे ही स्वयं समझ लेता है।तभी तो कार के हिट होने पर दर्द , मोबाइल के खो जाने पर सब कुछ खत्म समझ लेता है।अतः मन भी मैं नहीं हूं।
मैं कौन हूँ ? जानने के लिए आसान पथ यह भी है कि मैं क्या नहीं हूं-इन बिंदुओं पर विचार करके भी हम अपने "मैं" की तलाश जारी रख सकते हैं।
हमारे सभी वेद और उपनिषद आदि शास्त्र आत्मा को "मैं "मानते हैं।यह शाश्वत सत्य भी है।
लेकिन मैं आत्मा हूँ- क्या यह बोध इतना आसान है? यदि हां तो फिर शरीर में चोट लगने पर और हमारे जीवन में दुःखों के आने पर हमें दर्द क्यों होता है?क्योंकि आत्मा न तो मरता है और न ही उसे चोट पहुंचाई जा सकती है।जिस दिन शरीर पर लगी चोट से हमें दर्द और पीड़ा का अहसास नहीं होगा उसी दिन से हमारा शरीर से डिटैचमेंट होना शुरू हो जाता है। यह चेतना ही हमारी पहचान है।हमारा अस्तित्व अनौखा है, अद्वितीय है। किसी भी कालखंड में कोई हमारा डुप्लीकेट नहीं हो सकता है।यह ईश्वरीय सृष्टि की विशेषता है।हमें अपने यूनिकनेस के बोध तक पहुंचना है।
इस बोध के लिए अवेयरनेस और डिटैचमेंट की सतत आवश्यकता है।
मनोविनोद हेतु एक सामान्य कथानक से इसी बात को आगे बढ़ाता हूँ।एक बार भगवान इंसान से बहुत परेशान हो गया था।हर जगह इंसान पहुँच जाते थे अपनी -अपनी लंबी लिस्ट लेकर।किसी ने भगवान से कहा कि आप समुद्र में चले जाओ। वहां इंसान नहीं आपायेगा, तो किसी ने कहा कि पहाडों में चले जाओ,वहां इंसान नहीं आपायेगा।भगवान ने कहा इंसान इतना लालची है कि वह हर जगह आजाएगा। फिर किसी ने कहा भगवान आप इंसान के अंदर चले जाओ।इंसान वहां नहीं आसकता है।तब से भगवान इंसान के अंदर रहने लग गए हैं। कहानी सत्य है या झूठी यह महत्वपूर्ण नहीं है।महत्वपूर्ण है ईश्वर मंदिर में नहीं मन के अंदर है।
अगर हमें सही में अपने मैं को जानना है तो हमें अपने अंदर की यात्रा करनी होगी।अंदर की यात्रा को बोलते हैं योग और बाहर की यात्रा को बोलते हैं प्रतियोग। प्रतियोग ही प्रतियोगिता की जननी भी है।
योग ही वह आधार है जो हम में अवेयरनेस और डिटैचमेंट के गुणों को उद्बुद्ध करता है।
वेद,उपनिषद, धर्म और दर्शन इसी प्रश्न के समाधान में नेति नेति कहकर इसी अंतर्यात्रा का संकेत करते हैं।।यह जरूर प्रार्थनीय है कि हमें यह यात्रा अकेली ही करनी होगी।जिस दिन अस्तित्व की बुनियादी समस्या से ऊपर यदि सही अर्थों में "मैं कौन हूँ?" के प्रश्न में धार होगी और हमारी जानने की इच्छा तीव्रतम होगी तो उस दिन "मैं कौन हूं?" के सारे रहस्यों के प्रकटीकारण में कोई बाधा उपस्थित हो ही नहीं सकती है। और इसी प्रकटीकरण को शास्त्रों में आत्मबोध कहा गया है।